इमैनुअल वॉलरस्टीन का विश्व-व्यवस्था सिद्धान्त

इमैनुअल वॉलरस्टीन का विश्व-व्यवस्था सिद्धान्त | ईमैनुअअल वैलेरस्टीन एवं ए.जी. फ्रैंक द्वारा प्रतिपादित विश्व प्रणाली में निर्भरता के सिद्धान्त

इमैनुअल वॉलरस्टीन का विश्व-व्यवस्था सिद्धान्त | ईमैनुअअल वैलेरस्टीन एवं ए.जी. फ्रैंक द्वारा प्रतिपादित विश्व प्रणाली में निर्भरता के सिद्धान्त | World-system theory of Immanuel Wallerstein in Hindi | Immanuel Wallerstein and A.G. Principles of dependency in the world system propounded by Frank in Hindi

इमैनुअल वॉलरस्टीन का विश्व-व्यवस्था सिद्धान्त

वॉलरस्टीन का मत है कि आधुनिक विश्व व्यवस्था का उद्भव सामंतवादी प्रणाली के पतन के बाद हुआ और 1450 से 1670 के बीच पश्चिमी यूरोप का प्रभुत्व स्थापित हुआ। आधुनिक विश्व व्यवस्था की प्रकृति मुख्य रूप से पूँजीवादी हैं। वॉलरस्टीन ने फ्रैंक की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं के विपरीत पूँजीवादी विश्व-व्यवस्था के विकास की चार अवस्थाएं बताई हैं।

ये अवस्थाएं है:-

  1. 1450 से 1640 तक
  2. 1650 से 1730 तक
  3. 1760 से 1917 तक
  4. 1917 के बाद का दृढीकरण काल

ध्यान देने योग्य हैं कि वॉलरस्टीन की दृष्टि में पूँजीवाद एक व्यवस्था के रूप में 15वीं शताब्दी के मध्यकाल से मौजूद है। पश्चिमी यूरोप में 1150 से 1300 के मध्य सामन्तवाद एक प्रमुख अर्थव्यवस्था थी। इसने 1300 से 1450 के बीच गम्भीर संकटों का सामना किया है। इस संकट की प्रतिक्रिया में विश्व आर्थिक व्यवस्था का विकास हुआ और इसने ज्यादातर देशों को अपने प्रभाव में समाहित कर लिया।

पुँजीवादी विश्व व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन पर आधारित हैं। यह श्रम विभाजन विभिन्न क्षेत्रों के बीच सम्बन्धों की प्रकृति का निर्धारण करता है। साथ ही साथ यह प्रत्येक क्षेत्र को श्रम दशाओं के प्रकारों का भी निर्धारण करता है। वॉलरस्टीन विश्व को क्षेत्रों के आधार पर चार श्रेणियों में बांटते हैं। प्रत्येक श्रेणी में कुछ देश शामिल हैं। ये श्रेणियाँ विश्व व्यवस्था में इन देशों की तुलनात्मक स्थिति तथा राजनीतिक और आर्थिक विशेषताओं को प्रकट करती हैं। ये चार श्रेणियाँ इस प्रकार है:-

केन्द्र

उत्तर-पश्चिम यूरोप 1450 से 1670 के दौरान पहले केन्द्रीय क्षेत्र के रूप में विकसित हुआ। इंग्लैंड, फ्रांस तथा हॉलैण्ड इस क्षेत्र के अन्तर्गत आते थे। इस क्षेत्र में राज्यों ने मजबूत सरकारों और नौकरशाही का विकास किया था। इसने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में मदद की। साथ ही इसने उन्हें अपने लाभ के लिए इस व्यापार से अधिशेष अर्जित करने में भी सहायता पहुंचाई। सामन्तवाद के संकट के फलस्वरूप भूमिहीन हो चुके कृषकों को शहरों की तरफ पलायन करना पड़ा। इससे नगरीय उद्योगों को सस्ता श्रम उपलब्ध हुआ तथा उनके विकास में सहायता मिली।

परिधि

इस श्रेणी के अन्तर्गत पूर्वी यूरोप के देशों (विशेष रूप से पोलैण्ड) तथा दक्षिणी अमेरिका को खा गया। इन देशों के पास उनकी अपनी मजबूत सरकारें नहीं थीं और वे अन्य देशों द्वारा होते थे। वे देश केन्द्रीय क्षेत्र के देशों को कच्चा माल निर्यात करते थे। इन देशों का अधिकांश पूँजी अधिशेष आप्रवासी विनिमय के माध्यम से आता था। इस क्षेत्र में श्रम बंधुआ मजदूर के रूप में था, जिससे यूरोप को निर्यात किया जाने वाला सस्ता कच्चा माल उत्पादित कराया जाता था।

अर्द्ध-परिधि

यह क्षेत्र ऊपर विवेचित केन्द्र और परिधि के क्षेत्रों के बीच स्थित है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत केन्द्रीय क्षेत्र के वे देश जिनकी अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही है तथा परिधीय क्षेत्र के वे देश जिनकी अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है, शामिल है। वॉलरस्टीन पुर्तगाल और स्पेन का उदाहरण देते हैं, जो अपनी केन्द्रीय स्थिति से फिसलकर अर्द्ध-परिधीय क्षेत्र में आ गए।

बाह्य क्षेत्र

थे वे क्षेत्र हैं, जिनकी अपनी स्वंय की अर्थव्यवस्था है। इस क्षेत्र के देशों द्वारा आन्तरिक व्यापार को अधिक महत्व दिया जाता है। रूस इस क्षेत्र का सबसे बेहतर उदाहरण हैं।

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