व्यूहरचनात्मक प्रबंधन / Strategic Management

कार्यनीतिक एवं व्यूह रचना में अन्तर | Difference between strategy and strategy in Hindi

कार्यनीतिक एवं व्यूह रचना में अन्तर | Difference between strategy and strategy in Hindi

कार्यनीतिक एवं व्यूह रचना में अन्तर

कार्य-नीति तथा व्यूह रचना में निम्नलिखित आठ आधारों के द्वारा अन्तर को स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. निर्माण तथा क्रियान्वयन का स्तर- कार्यनीतियों का निर्माण अधिकतर संगठन के उच्च स्तर पर किया जाता है, इन्हें या तो मुख्यालय में बनाया जाता है अथवा विभागीय स्तर पर बनाया जाता है, जबकि दूसरी तरफ व्यूह रचनाओं का निर्माण प्रबन्ध के निम्न स्तर पर किया जाता है। यह स्वभाविक है कि व्यूह-रचनायें कार्यनीतियों का मुख्य भाग होती हैं जो कार्यनीतियों द्वारा निर्धारित सीमाओं के अंतर्गत कार्य करती हैं।
  2. समय तत्व- अगर कार्यनीतियों के निर्माण को देखा जाये तो उनका निर्माण निरन्तर एवं अन्तराल (रुक-रुक कर) दोनों के साथ किया जाता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कार्यनीति का निर्माण लगातार किया जाये लेकिन निर्णयों का समय असामान्य होता है क्योंकि उनका होना अवसरों, नये विचारों, प्रबन्धक की पहल तथा अन्य असामान्य तथ्यों पर निर्भर करता है। जबकि दूसरी तरफ, व्यूह रचनाओं का निर्माण विभिन्न संगठनों द्वारा समय अन्तराल के साथ निरन्तर किया जाता है।
  3. समय-सीमा- कार्यनीतियों का असर दूरगामी एवं प्रभावशाली होता है जिसे परिवर्तित करना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, अगले सप्ताह की उत्पादन योजना अधिक व्यूह रचनात्मक है। कार्यनीतिक कम, जबकि नये संयन्त्र की स्थापना तथा नयी वितरण व्यवस्था की योजना अधिक कार्यनीतिक है। साधारणतया कार्यनीतियों की समय सीमा अधिक लम्बी होती है, जबकि व्यूह रचना की समय सीमा अल्पकालीन होती है अर्थात् कार्यनीतियाँ दीर्घकालीन होती हैं और व्यूह-रचना अल्पकालीन होती हैं।
  4. क्षेत्र का विस्तार- कार्यनीतियों का क्षेत्र अधिक विस्तृत तथा व्यापक होता है, जबकि दूसरी ओर व्यूह रचनाओं का क्षेत्र संकुचित एवं कम फैलावदार होता है। विस्तृत तथा संकुचित शब्द सापेक्षिक है इसलिए कार्यनीति तथा व्यूह-रचना के साथ जोड़ा गया है। कार्यनीति विभाजन की दृष्टि से किसी विभाग के लिए अधिक व्यूहरचनात्मक हो सकती है। अगर अन्य बातें समान रहें तो निम्न स्तर पर नियोजन के मुकाबले कम्पनी स्तर पर नियोजन अधिक कार्यनीतिक हो सकता हैं
  5. साधन तथा साध्य- कार्यनीति का सम्बन्ध संगठन के उद्देश्यों तथा नीतियों को लागू करने के लिए मूलतः नियोजन के कार्यों से है। कार्यनीति का कार्य केवल उद्देश्यों तथा नीतियों का निर्धारण करना ही नहीं है। यद्यपि व्यवहार में, कार्यनीति का कार्य उद्देश्यों का निर्धारण करना तथा उन साधनों का चुनाव करना है जिनसे उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। इस प्रकार, कार्यनीति साधन तथा साध्य उन्मुख (Oriented) होती है। इसके विपरीत, व्यूहरचनाओं का सम्बन्ध के चुनाव से होता है जो किसी उद्देश्य की ओर ले जाते हैं।
  6. पूरक तथा परिपूरक- कार्यनीति तथा व्यूह रचना दोनों ही नियोजन के दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन अंग माने जाते हैं। पूर्ण सफलता प्राप्ति के लिए दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन योजनाओं का होना जरूरी है। एक अवसर पर ऊपरी तथा निचला हिस्सा निश्चित रूप से अन्तर रखते हैं तथा स्वतन्त्र रूप से उद्देश्यों को प्राप्त करने लिए दोनों को अलग नहीं किया जा सकता है। ऊपरी तथा चिला हिस्सा दोनों मिलकर सिक्के को रूप प्रदान करते हैं। इस प्रकार दोनों एक- दूसरे को सहयता प्रदान करते हैं न कि एक-दूसरे का स्थान लेते हैं।
  7. सूचनाओं की आवश्यकता- कार्यनीति तथा व्यूह-रचना दोनों के निर्माण तथा डिजाइन करने के लिए सूचनाओं के एकत्रीकरण तथा उनके प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है यद्यपि सूचनओं की मात्रा के मुकाबले यह महत्वपूर्ण होता है कि किस प्रकार की सूचना चाहिए। कार्यनीतिक निणयों में प्रबन्ध को अधिक विश्लेषित एवं पूर्ण सूचनाओं की आवश्यकता पड़ती है, यह वातावरण सम्बन्धी अनेक तत्वों के बारे में निर्माण के मान्यताओं एवं अवधारणाओं के लिए भी सावधान करती है। उस अर्थ में, प्रबन्धकों द्वारा अनेक कार्यनीति निर्णय उन पूर्ण सूचनाओं के प्रभाव के लिए जाते हैं जो वातावरण सम्बन्धी सूचनाएं लगातार परिवर्तन को प्रभावित करती हैं। यद्यपि, व्यूहरचनात्मक निर्णयों में उन सूचनाओं को लिया जाता है जो संगठन के अन्दर जन्म लेती हैं। ये सूचनाएँ लेखांकन तथा सांख्यिकी विभाग द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं।
  8. सार्थकता तथा चेतना सम्बन्धी मूल्य- प्राकृतिक रूप से कार्यनीतियाँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं क्योंकि ये पूर्ण संगठन का प्रभावित करती हैं। वे संगठन की प्रकृति एवं कार्य करने का तरीका निर्धारित करती है। जबकि, व्यूह रचना कम महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि वह संगठन के किसी एक अंग अथवा अंगों को प्रभावित करती हैं। यद्यपि यह अन्तर बहुत सरल है, लेकिन इसकाक्षप्रभाव इतना सरल नहीं है। अगर कार्यनीति असफल हो जाती है तो संगठन का नाश हो जाता है जबकि व्यूह-रचना के असफल (फेल) होने पर ऐसा नहीं होता है। जब इन कार्यनीतियों तथा व्यूहरचनाओं का निर्माण किया जाता है तो उस समय निर्णयकर्ता के व्यक्तिगत मूल्य भी इन प्रक्रियाओं में सम्मिलित होते हैं। कार्यनीति के निर्माण में अधिक चेतनापूर्ण निर्णय की आवश्यकता पड़ती है। जबकि व्यूह रचना के निर्माण में कम चेतनापूर्ण निर्णयों की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि कार्यनीति का निर्माण पहले होता है और व्यूह-रचना का निर्माण बाद में।
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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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