इतिहास / History

खजुराहो मूर्तिकला की प्रमुख विशेषताएं | Salient Features of Khajuraho Sculpture in Hindi

खजुराहो मूर्तिकला की प्रमुख विशेषताएं | Salient Features of Khajuraho Sculpture in Hindi

खजुराहो मूर्तिकला की प्रमुख विशेषताएं

खजुराहो की विभिन्न मूर्तियों के सूक्ष्म अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि कलाकार ने मानव-मूर्तियों पर ही बल दिया था तथा उसे ही मूर्तिकला का केन्द्र बनाया था। उसी के अलंकरणार्थ विभिन्न पशु-पक्षी मूर्तियों का निर्माण किया गया है। खजुराहो की परम्परा गुप्त युगीन एवं मध्ययुगीन मूर्ति परम्पराओं का सम्मिश्रण है। यहाँ भी मूर्तियाँ भित्ति या स्तम्भ के सहारे तो बनी हैं किन्तु उन्हें पूर्ण विवक्त करने के लिए त्रिपार्श्व दर्शन सिद्धान्त पर बनाया गया है। मूर्तियाँ पूर्णतः उभरी, विकसित एवं दृश्य हैं। धार्मिक एवं लौकिक मूर्तियों का एक साथ सम्पज्जन उनकी हृदय-विशालता का परिचायक है। खजुराहो मन्दिरों की यह भी विशेषता है शैव, वैष्णव तथा जैन मन्दिर एक साथ बने हैं तथा सभी मन्दिरों में अलंकरण के लिए समान मूर्तियों का प्रयोग किया गया है। वाध्यतः यह अनुमान लगाना दुकर है कि मन्दिर किस देवता से सम्बद्ध है। गर्भगृह के देवता के दर्शन से ही यह भिन्नता स्पष्ट होती है। उससे खजुराहो में धार्मिक सामंजस्य का उच्चतम रूप प्राप्त होता है।

खजुराहो मूर्तियों को उनके वाह्य स्वरूप के आधार पर पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) प्रथम वर्ग की मूर्तियाँ

प्रथम वर्ग की वे मूर्तियाँ हैं जो मन्दिर के गर्भगृह में पूजार्थ स्थापित हैं। ये मूर्तियाँ चतुर्दिक तराशी गई हैं। ऐसी अधिकांश मूर्तियाँ स्थानक मुद्रा में हैं जो प्रभावली से अलंकृत हैं। मध्ययुगीन प्रतिभा शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुकूल इनका सृजन किया गया है। मूर्तियाँ शास्त्रानुकूल प्रतिबद्धता में अवश्य बनी हैं किन्तु अलंकरण में कलाकार ने अपनी स्वतंत्र प्रतिभा का प्रयोग कर विकसित सौन्दर्यादर्शों का प्रतिस्थापन किया है। कभी-कभी सौन्दर्य के वशीभूत कलाकार ने प्रतिभा शास्त्रीय सिद्धान्तों की भी उपेक्षा कर दी है। मुख्य मूर्ति के साथ पार्श्व देवताओं का अंकन उसने अपनी इच्छानुसार किया है जो पूर्ण यौवन के आनन्द एवं पवित्र शान्ति के प्रतीक हैं। शैव, वैष्णव तथा जैन धर्मों की मूर्तियाँ मुख्य गर्भगृह में स्थापित हैं। शिव अपने विभिन्न रूप-उग्र तथा सौम्य में वैष्णव तथा जैन मन्दिरों में भी प्राप्त होते हैं। विष्णु की स्थानक, आसन तथा शयन मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। विष्णु की एक योगासन मूर्ति में देवता अपनी एक उँगली ओंठ पर रखकर सपूर्ण विश्व को शान्ति का उपदेश दे रहा है।

जैन धर्म में पार्श्वनाथ की मूर्ति का आधिक्य है। पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ विविध रूपों में स्थानक तथा आसन मुद्राओं में प्राप्त होती हैं। वैष्णव, शैव तथा जैन मूर्तियाँ एक दूसरे को प्रभावित भी करती हैं जो इस युग की विशाल धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक हैं।

(2) द्वितीय वर्ग की मूर्तियाँ

द्वितीय वर्ग की मूर्तियाँ मुख्य देवता के परिवार, पार्श्व तथा आवरण देवताओं की मूर्तियाँ हैं जो मन्दिरों के अधिष्ठान रथयगों एवं बाढ़ में निर्मित हैं। ये मूर्तियाँ अधिकांशतः सम्मुख- दर्शन के सिद्धान्त पर बनी हैं किन्तु त्रिपार्श्वदर्शी मूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण में प्रतिमाशास्त्र पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। स्वच्छन्दरूपेण निर्मित ये मूर्तियाँ विभिन्न रूपों तथा मुद्राओं में प्राप्त होती हैं। सूर्य, ब्रह्मा, सरस्वती, वैकुण्ठ, नारसिंही, गजलक्ष्मी, सिंहवाहिनी, शंख, चक्र तथा पद्म पुरुष इत्यादि मूर्तियों की पुनरावृत्ति की गई है। देवता अपनी शक्तियों के साथ अधिकांशतः आलिंगन-मुद्रा में बने हैं। शिव-पार्वती, राम-सीता, बलराम-रेवती, गणेश-विघ्नेश्वरी, काम-रति, गन्धर्व-नाग इत्यादि मूर्तियाँ मनोरंजक एवं आकर्षक भाव- भंगिमाओं में उत्कीर्ण हैं । गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर मुख्य देवता के लांछन की लघुमूर्ति बनी है। प्रवेशद्वार के ऊपरी फलक पर नवग्रह, द्वारपार्श्व में गजलक्ष्मी की मूर्तियाँ दृष्टिगत होती हैं। अष्ट-दिग्पाल-इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, कुबेर इत्यादि नियमानुकूल प्रदर्शित किए गये हैं। कन्दरिया महादेव मन्दिर में नृत्य करती सप्तमातृकाएँ विशेष मनमोहक हैं।

(3) तृतीय वर्ग की मूर्तियाँ

तृतीय वर्ग में अप्सराओं तथा सुर-सुंदरियों की मूर्तियों का निरूपण किया गया है (देखिए राजपूत मूर्तिकला अध्याय) । सुर-सुन्दरी मूर्तियों में शृंगार प्रसाधनों एवं रस-सिद्धान्तों का सम्यक् विवेचन है। शान्तभाव तथा अनुभवातित्व के साथ इन मूर्तियों में एक विजातीय सौंदर्य एवं प्रेमाकर्षण है। भव्य, निष्कलंक कुमारियाँ, स्वर्ग एवं पृथ्वी की नर्तकियाँ न मात्र ऐन्द्रिय आह्लाद के स्रोत हैं वरन् वे परम मोहिनी महामाया की सन्देशवाहिका भी हैं जो मानव को भोग के अभिज्ञान द्वारा महाविद्या की ओर प्रेरित करती हैं। वह कभी. लज्जालु निश्छल बालिका रहती है जो अपने प्रेमी के आगमन से लज्जित होकर मुख छिपाती है। कभी प्रौढ़ महिला के रूप में उसे गर्व से धूरती है या उदास भाव से मुँह फेर लेती है; कभी स्नान कर बाल निचोड़ती है तो मानों विश्व को कामसंतप्त कर रही है; नृत्यरत, तरंगायित लटों को लहराती, विभिन्न काम- क्रीड़ा करती, कामोत्तेजित होकर को ढीला करती तथा अपने उन्नत उरोज, निम्न नाभि क्षीण कटि, भारी नितम्ब तथा चंचल नेत्रों से विश्व को कामाग्नि में भस्म करती है। इन विभिन्न कामुक दृश्यों में भी उसके मुख एवं नेत्र में आश्चर्यजनक शान्ति है जो उसके द्वित्व में एकत्व का उपदेश देती है। इन मूर्ति पट्टों में कापालिक एवं कौल लाधकों व्यभिचार क्रियाएँ भी प्रदर्शित हैं जो भवभूति के ‘मालती-माधव’ तथा राजशेखर के ‘कर्पूरमञ्जरी’ जैसे मध्ययुगीन तांत्रिक साहित्य के वितरण के अनुरूप हैं। कन्दरिया महादेव मन्दिर में एक ओर गुरु शिष्या को उपदेश रहे हैं तो दूसरी ओर रतिचक्र महोत्सव चल रहा है। इससे इन मूर्तियों पर तांत्रिक अभिचार का प्रभाव पूर्णत: प्रमाणित होता है।

(4) चतुर्थ वर्ग की मूर्तियाँ

चतुर्थ वर्ग की मूर्तियाँ धर्मेतर जीवन से सम्बद्ध हैं जो युद्ध, आखेट, गुरु-शिष्य तथा मिथुन युगल इत्यादि के दृश्य उपस्थित करती हैं। मिथुन मूर्तियों का आधिक्य है जो यदि शिव-शक्ति आत्मा-परमात्मा तथा पुरुष-प्रकृति के रूप हैं तो उनसे लौकिक भोग-विलास, हास्य-परिहास्य काम-क्रीड़ा एवं आलिंगन-चुम्बन के भी भाव व्यक्त होते हैं। ये मूर्तियाँ युक्ति एवं भुक्ति में अभिन्नता स्थापित करती हैं तथा सांसारिक जीवन के विविध सुखों का उपभोग करते हुए मोक्ष की ओर प्रेरित भी करती हैं। सामान्य दर्शकों के लिए इन्हें अश्लील ही कह सकते हैं।

खजुराहो कलाकार ने पशु जगत में भी दक्षता प्राप्त की थी जिन्हें पंचम वर्ग की मूर्तियों में समाहित किया गया है। शार्दूल जिसे व्याल, दिराल, वराल तथा विरालिका इत्यादि नामों से सम्बोधित किया गया है, कि अनेक मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। अनेक कल्पित पशु यथा- उग्रसश्रृंग सिंह जिस पर सशस्त्र सैनिक आरूढ़ है तथा पृष्ठ भाग से योद्धा प्रहार कर रहे हैं. अत्यन्त ही रोमाञ्चक दृश्य हैं। शुक, वराह तथा गजमस्तक मानव कृतियाँ भी दृष्टिगत होती हैं। मूर्ति कलाकार ने प्रचलित दन्तकथाओं के आधार पर विभिन्न पशुओं को जो मूर्तिगत रूप प्रदान किया है, वह निश्चय ही इसकी प्रबुद्ध कल्पना शक्ति का द्योतक है।

इस प्रकार खजुराहो की मूर्तिकला समग्र रूप में एक उत्कृष्ट परम्परा का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें धार्मिक एवं लौकिक जीवन पर समान बल देकर जीवन की वास्तविकता को व्यक्त किया गया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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