राजनीति विज्ञान / Political Science

संघवाद का अर्थ | संघवाद की परिभाषाएँ | संघवाद के आधारभूत सिद्धान्त | एकात्मक और संघात्मक सरकारें | एकात्मक और संघात्मक सरकारों में अन्तर | एकात्मक सरकार के गुण | एकात्मक सरकार के दोष

संघवाद का अर्थ | संघवाद की परिभाषाएँ | संघवाद के आधारभूत सिद्धान्त | एकात्मक और संघात्मक सरकारें | एकात्मक और संघात्मक सरकारों में अन्तर | एकात्मक सरकार के गुण | एकात्मक सरकार के दोष

वर्तमान युग में हम जिस संघीय व्यवस्था को देख रहे हैं वह पूर्णतया मौलिक नहीं है। आधुनिक युग में जो संगठनों का रूप देखने को मिलता है वैसा प्राचीन काल में न था परन्तु संघीय व्यवस्था की जड़ें अवश्य ही किसी न किसी रूप में प्राचीन काल में विद्यमान थीं। इस समय स्विट्जरलैण्ड, कनाडा, आस्ट्रेलिया,) सी० आई० एस० (Common wealth of Independent States दक्षिणी अफ्रीका, यूगोस्लाविया और भारत आदि देशों में संघीय व्यवस्था को देखा जा सकता है।

संघवाद का अर्थ

आधुनिक युग में संघवाद, संघात्मक राज्यों के रूप में दिखाई पड़ रहा है। संघवाद अंग्रेजी भाषा के शब्द फेडरलिज्म (Federalism) का हिन्दी-रूपान्तर है जो लैटिन भाषा के शब्द (Feodus) (फोइडस) से बना है जिसका अर्थ है—सन्धि या समझौता।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संघराज्य वह राज्य है जिसमें कुछ स्वतंत्र राज्य अपने आपको अलग रखते हुए भी सामान्य उद्देश्य की पूर्ति हेतु अपने को एक संघ के रूप में संयुक्त  कर लेते हैं। ये राज्य अपने कुछ सामान्य हित के विषयों को एक केन्द्रीय सत्ता के सुपुर्द कर देते हैं और यह केन्द्र या सत्ता, सरकारी संघ के शासन का भार उठाते हैं। इस प्रकार की केन्द्रीय सरकार को संघीय सरकार कहा जाता है। परन्तु इस संघीय सरकार की स्थापना से संघ का सम्मिलित राज्यों की सरकारों की शक्तियाँ नष्ट नहीं हो जाती हैं बल्कि ये राज्य सरकारें अपने राज्य के अन्तर्गत शासन का कार्य चलाती हैं। संघीय सरकार का समस्त देश से सम्बन्धित कार्य करती हैं। संधीय शासन में शक्तियों का स्पष्ट विभाजन हो जाता है। इस विभाजन के अनुसार कुछ कार्य करने का अधिकार संघीय सरकार को दे दिया जाता है और शेष राज्य सरकारों के पास रह जाते हैं। दूसरे राज्यों के अधिकार निश्चित कर दिये जाते हैं और शेष कार्यों का दायित्व संघीय सरकार का होता है। कहीं कहीं संविधान में संघीय सरकार और राज्यों की सरकारों की शक्तियाँ अलग-अलग लिख दी जाती हैं। जैसे अमरीका में संघीय सरकार के अधिकार निश्चित हैं और शेष शक्ति विभिन्न राज्यों को बाँट दी गई है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संघात्मक शासन में दोहरी शासन-व्यवस्था देखने को मिलती है। इसके अन्तर्गत केन्द्रीय शासन की अपनी अलग व्यवस्थापिका और कार्यपालिका होती है तथा राज्यों की अपनी अलग व्यवस्थापिका और कार्यपालिका । कुछ देशों में संघ और राज्य की अपनी-अपनी अलग-अलग न्यायपालिकाएँ भी होती हैं और दोहरे कानून भी होते हैं। परन्तु कहीं कहीं एक ही न्यायपालिका होती है; जैसे—भारत में। इस व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक दो प्रकार के शासन के प्रति अपनी भक्ति रखता है-संघीय शासन के प्रति और राज्यों के शासन के प्रति। संघ निर्माण और उसकी सफलता के लिए सर्वोच्च न्यायालय का होना अनिवार्य है और उनके न होने पर संविधान के संरक्षण की समस्या उत्पन्न होती है। संघ राज्य में संविधान का लिखित होना आवश्यक-सा है जिससे अव्यवस्था न हो ।

संघवाद की परिभाषाएँ

विभिन्न विद्वानों ने संघवाद की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं-

कोरी एवं अब्राहम के शब्दों में- “संघवाद सरकार का दोहरा रूप है जो विभिन्नता के साथ एकता का सामंजस्य करने की दृष्टि से शक्तियों के प्रादेशिक और प्रकार्यात्मक विभाजन पर आधारित होता है। संघीय व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण लक्षण शक्तियों और सत्ता का संयुक्त सरकार तथा राज्य सरकारों के मध्य वितरण है।”

के० सी० ह्वीयर के अनुसार- “संघ-शासन का अर्थ एक ऐसी पद्धति से है जिसके द्वारा सामान्य और प्रादेशिक शासकों में सामंजस्य होते हुए भी वे अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र होते हैं।”

फाइनर के मत में- “संघ राज्य वह है जिसमें अधिकार और शक्ति का एक भाग स्थानीय क्षेत्रों में निहित होता है और दूसरा भाग एक केन्द्रीय संस्था में, जो स्वयं स्थानीय क्षेत्रों की स्वेच्छा से निर्मित होती है। इन दोनों में से किसी को एक-दूसरे के अधिकार और शक्ति का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं होता।”

सर रॉबर्ट मर्टन के अनुसार जिस शासन में सम्प्रभुता या राजनीतिक सत्ता केन्द्रीय एवं स्थानीय सरकारों में इस प्रकार विभाजित हो कि दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में एक-दूसरे से स्वतंत्र हों, तो वह संघात्मक शासन है।”

संघवाद के आधारभूत सिद्धान्त

संघवाद या संघात्मक सरकार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

(i) राज्यों की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता का सामंजस्य- संघ के निर्माण के लिए राज्यों की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय एकता का सामंजस्य आवश्यक है। संघ सरकार की स्थापना से राज्य सरकारों का लोप नहीं होता वरन् दोनों सरकारों का सह-अस्तित्व होता है। वे स्वतन्त्र रूप से अपने-अपने शासन-क्षेत्र में एक-दूसरे के न तो अधीन होती हैं और न ही उनमें कोई उच्च या कोई निम्न होती हैं। दोनों ही सरकारों का उद्देश्य नागरिकों का कल्याण होता है। उनमें प्रतिद्वन्द्विता के स्थान पर सहयोग की भावना होती है। इस प्रकार दोनों सरकारें सम्पूरक होती हैं प्रतियोगी नहीं। संविधान के द्वारा प्रदान किये गये अधिकारों के अनुरूप दोनों ही सरकारें कार्य करती हैं। नागरिक दोनों ही सरकारों के कानूनों के प्रति निष्ठावान होकर उनका पालन करते हैं। वे दोनों ही सरकारों द्वारा लगाए गए करों को चुकाते हैं और दोनों सरकारों से प्राप्त सुविधाओं तथा अधिकारों का उपभोग करते हैं।

(ii) नागरिकों की दोहरी भक्ति- संघ शासन में नागरिकों की दोहरी भक्ति होती है-एक संघीय सरकार के प्रति और दूसरी राज्य सरकार के प्रति। अतः उसे दोनों ही स्थानों से नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं। वे दोनों ही सरकारों द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। चाहे दोहरी नागरिकता न हो, जैसा कि भारत में व्यवहारतः नागरिकों की दो निष्ठाएँ होती हैं एक केन्द्रीय सरकार के प्रति और दूसरी राज्य सरकार के प्रति ।

(iii) संविधान द्वारा संघ की स्थापना- संघात्मक शासन में केन्द्रीय सरकार का अधिकार तथा नागरिकों से सीधा सम्पर्क उसी प्रकार का होता है जिस प्रकार राज्य की सरकार का होता है। इसका कारण यह है कि संघ की स्थापना संविधान द्वारा होती है तथा संविधान सभा सदस्य राज्यों के नागरिकों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहमति से बनाई जाती है। संविधान सभा जो संविधान बनाती है उसके अनुसार शासन-कार्य चलाया जाता है। संविधान सभा में नागरिकों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं और वे जो संविधान बनाते हैं उसे मान्यता प्रदान की जाती है अथवा संविधान सभा से स्वीकृत होने पर संविधान को राज्यों के नागरिकों की सीधी स्वीकृति के हेतु भेजा जाता है।

(iv) संविधान की सर्वोच्चता- संघ में संविधान की सर्वोच्चता होती है। पृथक्-पृथक् राज्यों का सन्तोषजनक ढंग से संघ में बना रहना तभी सम्भव है जब राज्य और संघ दोनों ही उस संविधान को सर्वोच्च मानें जिसके अन्तर्गत संघ की रचना हुई है। संघ शासन का संविधान लिखित और कठोर होना चाहिए ताकि केन्द्र अथवा राज्य उसमें सरलता से संशोधन न कर सकें। संविधान में संशोधन के हेतु एक विशेष प्रकार की प्रक्रिया अपनायी जाती है जो अत्यन्त कठिन होती है। प्रायः संशोधन करने की प्रक्रिया साधारण विधि निर्माण प्रक्रिया से भिन्न और विशेषतया कठिन रखी जाती है। संघ शासन में संविधान को एक पवित्र लेख माना जाता है जिसे केन्द्र और राज्य दोनों ही स्वीकार करते हैं। संघ शासन की स्थिरता के लिये यह आवश्यक है कि उसमें संशोधन कम से कम हो।

(v) स्वतंत्र एवं सर्वोच्च न्यायपालिका- संघ शासन की एक मौलिक आवश्यकता स्वतंत्र और सर्वोच्च न्यायपालिका का होना है; जिसके अभाव में संविधान का संरक्षण सम्भव नहीं हो सकता । संविधान के अन्तर्गत संघ और राज्य की सरकारों को शासन की जो शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं उनका उल्लंघन किसी भी सरकार द्वारा न हो और एक-दूसरे की शक्ति एवं कार्य-क्षेत्र का अतिक्रमण न हो सके इसके लिये यह आवश्यक है कि स्वतंत्र एवं सर्वोच्च न्यायपालिका हो । संघ शासन में न्यायपालिका का कार्य संविधान की रक्षा करना, केन्द्र और राज्यों के कानूनों की वैधता निश्चित करना, केन्द्र तथा एक अथवा एक से अधिक राज्यों के मध्य विवाद को तय करना । विभिन्न राज्यों के बीच उत्पन्न वैधानिक मतभेदों को निपटाना और किसी विवाद उपस्थित होने पर संविधान के किसी खण्ड अथवा उपबन्ध की व्याख्या करना होता है। संघीय शासन में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता अत्यन्त आवश्यक है। न्यायपालिका के स्वतंत्र और निष्पक्ष न होने पर एमसन का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल सकता ।

(vi) संघीय सत्ता और राज्यों में शक्तियों का विभाजन- संघीय व्यवस्था में संघीय या केन्द्रीय सरकार और राज्यों की सरकारों के महान् शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया जाता है। शक्तियों का विभाजन दो प्रकार से किया जाता है-प्रथम प्रकार में संविधान में केन्द्रीय सरकार की शक्तियों का उल्लेख कर दिया जाता है और शेष शक्तियाँ राज्यों अथवा इकाइयों को दे दी जाती हैं। दूसरे प्रकार में संविधान में प्रान्तों की शक्तियों का उल्लेख कर दिया जाता है और शेष शक्तियाँ संघीय सरकार को प्राप्त हो जाती हैं।

(vii) सम्बन्ध-विच्छेद की मान्यता नहीं- संघ शासन में सम्बन्ध विच्छेद के सिद्धान्त को प्रायः मान्यता नहीं दी जाती। राज्य के संघ में एक बार सम्मिलित हो जाने पर उससे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हो सकता। संघ एक स्थायी व्यवस्था है और उसमें सम्मिलित राज्य सदैव के लिये अपनी शक्ति का कुछ अंश संघीय सरकार को दे देते हैं। इस संघ का विघटन नहीं हो सकता । सोवियत संघ में अवश्य सिद्धान्त रूप में प्रत्येक गणतंत्र को संघ से स्वेच्छा से अलग होने का अधिकार प्राप्त है और वे विदेशों से सीधे सम्बन्ध स्थापित करने का अधिकार रखते हैं। परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं देखा जाता।

(viii व्यवस्थापिका का द्वितीय सदन लाभदायक- संघ शासन की एक विशेषता है- उसमें व्यवस्थापिका का द्विसदनीय होना । यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक संघ में व्यवस्थापिका में दो सदन हों। किन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि द्विसदनीय व्यवस्थापिका संघ शासन में लाभदायक अवश्य होती है। उच्च सदन का मुख्य कार्य निम्न सदन पर अंकुश रखना होता है। उच्च सदन में विशिष्ट वर्गों के प्रतिनिधि रखे जाते हैं। अधिकतर देशों में उच्च सदन निम्न सदन की अपेक्षा दुर्बल होता है। परन्तु अमरीका का उच्च सदन (सीनेट) संसार का सबसे शक्तिशाली सदन है।

एकात्मक और संघात्मक सरकारें

रोडी, एंडरसन और क्रिस्टल के अनुसार “एकात्मक राज्य वह है जिसमें केन्द्रीय अथवा राष्ट्रीय सरकार सर्वोच्च, पूर्ण शक्ति उत्पन्न होती है। शासन-कार्य का कोई भी क्षेत्र संविधान द्वारा सरकार की छोटी से छोटी इकाइयों तक को नहीं सौंपा जाता । एकात्मक राज्य में राष्ट्रीय सरकार नगरों, काउन्टियों अथवा अन्य स्थानीय या क्षेत्रीय इकाइयों के कार्यों को प्रत्यायोजित कर सकती है और सामान्यतः करती भी है। किन्तु इस प्रकार की सत्ता प्रत्यायोजन राष्ट्रीय व्यवस्थापिका के एक सामान्य अधिनियम द्वारा कर दिया जाता है न कि संविधान द्वारा और सत्ता के इस प्रत्यायोजन को उसी सुविधा के साथ वापस ले भी लिया जाता है।”

एकात्मक सरकार में संघात्मक शासन की भाँति कोई संवैधानिक शक्ति वितरण नहीं होता, इसलिए समस्त देश और शासन एक केन्द्र के द्वारा ही नियन्त्रित होता है। केन्द्रीय व्यवस्थापिका, केन्द्रीय कार्यपालिका और केन्द्र न्यायपालिका को ही प्रमुख शक्ति प्राप्त होती है और इन्हीं के अधीन शेष सब शक्तियाँ अपना सब कार्य करती हैं।

एकात्मक और संघात्मक सरकारों में अन्तर

(i) एकात्मक व्यवस्था में संवैधानिक दृष्टि से प्रशासनिक शक्तियाँ केन्द्र के पास रहती हैं; जबकि संघात्मक व्यवस्था में प्रशासनिक शक्तियाँ केन्द्र तथा राज्यों में विभाजित होती हैं।

(ii) एकात्मक व्यवस्था में शासन का केन्द्रीयकरण रहता है, जबकि संघात्मक शासन में विकेन्द्रीयकरण।

(iii) एकात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका की स्थिति महत्वपूर्ण नहीं होती, जबकि संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका की स्थिति विशेष महत्वपूर्ण होती है।

(iv) एकात्मक व्यवस्था में नागरिकता इकहरी होती है, जबकि संघात्मक व्यवस्था में प्रायः दोहरी नागरिकता होती है।

(v) एकात्मक व्यवस्था में सम्पूर्ण देश के लिए एक मंत्रिमण्डल तथा एक विधान मण्डल होता है, जबकि संघात्मक सरकार में केन्द्र तथा प्रान्त का मन्त्रिमण्डल तथा विधान मण्डल अलग-अलग होते हैं।

(vi) एकात्मक व्यवस्था में संविधान में संशोधन सरल होता है जबकि संघात्मक व्यवस्था में संविधान में संशोधन करना कठिन होता है। क्योंकि इसके लिए एक विशेष प्रक्रिया को अपनाया जाता है।

एकात्मक सरकार के गुण-

एकात्मक सरकार में एक कुशल और प्रभावी प्रशासन होता है। एक केन्द्र होने से शीघ्रता के साथ सभी निर्णय हो जाते हैं और सरकार का संगठन सरल और एकरूप होता है। इससे राष्ट्र में एकता के तत्व मजबूत होते हैं। एकात्मक सरकार बहुत दृढ़ होती है। इसमें अधिकारों के सम्बन्ध में अनावश्यक विवाद और न विभिन्न स्तरों पर लम्बे विचार-विमर्श होते हैं। इसकी गृह और विदेश नीति स्पष्ट और दृढ़ होती है। संगठन के व्यय कम होते हैं। कार्यों में गति होती है। एकात्मक पद्धति में लचीलापन होता है, आवश्यकता के अनुरूप सरलता से परिवर्तन सम्भव होते हैं। इकहरी नागरिकता होने के कारण नागरिकों की राज्य के प्रति भक्ति विभाजित नहीं हो पाती और न ही शक्ति संघर्ष की सम्भावना होती है यह पद्धति छोटे देशों के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है।

एकात्मक सरकार के दोष-

(i) एकात्मक सरकार का सबसे बड़ा दोष यह कहा गया है कि इसमें स्थानीय स्वशासन के अधिकार नहीं होते। इसमें स्थानीय कार्यों का सम्पादन दूर बैठे अधिकारियों को सौंप दिया जाता है जिसको स्थानीय समस्याओं का ज्ञान नहीं होता है तथा उन्हें स्थानीय हितों में रुचि भी नहीं होती हैं।

(ii) केन्द्रीय शासन पर अनावश्यक भार होता है; अतः स्थानीय अधिकारियों को आदेश प्राप्त करने में विलम्ब लगता है।

(iii) सत्ता के अत्यधिक केन्द्रीयकरण से राष्ट्रीय सरकार के निरंकुश हो जाने की आशंका रहती है तथा सत्ताधारियों के भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना बढ़ जाती है।

(iv) बड़े देशों के लिये प्रायः अनुपयुक्त होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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