इतिहास / History

मुगल साम्राज्य के पतन में दरबार की राजनीति | मुगल साम्राज्य के पतन में बाहा आक्रमण | मुगल साम्राज्य के पतन में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की भूमिका

मुगल साम्राज्य के पतन में दरबार की राजनीति | मुगल साम्राज्य के पतन में बाहा आक्रमण | मुगल साम्राज्य के पतन में स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की भूमिका

मुगल साम्राज्य के पतन में दरबार की राजनीति

मार्च 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल इतिहास ने एक नया मोड़ लिया। औरंगजेब के समय तक मुगल साम्राज्य अपने विकास की चरम सीमा तक पहुंच गया था; परंतु उसको मृत्यु के साथ ही उसके उत्तराधिकारियों के समय में शक्तिशाली एवं वैभवशाली साम्राज्य का विघटन और पतन तेजी से हुआ। उसको मृत्यु के पचास वर्षों के भीतर ही भारत में अनेक नई शक्तियाँ क्षेत्रीय राज्य स्थापित करने में सफल हुई, भारत पर विदेशी आक्रमण हुए. मुगल सम्राट् की शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गई, मुगल दरबार गुटबाजी और षड्यंत्रों का अखाड़ा बन गया। इसका लाभ उठाकर अंततः ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में अपना शासन स्थापित करने में सफल हुई। 1857 ई. के विद्रोह का नेतृत्व करने के अपराध में अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर’ को गद्दी से हटाकर अंग्रेजों ने भारत में मुगलों की सत्ता समाप्त कर दी तथा भारत को बिटिश ताज का एक उपनिवेश बना दिया।

(अ) दरबार की राजनीति (Politics of Darhar)

उत्तराधिकार का युद्ध औरंगजेब को मृत्यु के साथ ही उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। औरंगजेब के पांच पुत्र थे-सुलतान मुहम्मद, मुअज्जम, आजम, अकबर और कामबख्श । सुलतान मुहम्मद को मृत्यु 1676 तथा अकबर की 1704 में हो चुकी थी। औरंगजेब की मृत्यु के समय मुअज्जम काबुल, आजम गुजरात तथा कामबख्श बीजापुर का सूबेदार था। औरंगजेब को इन तीनों पुत्रों के बीच संघर्ष की आशंका थी। इसलिए, उसने अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी वसीयत में तीनों पुत्रों को आपस में साम्राज्य का बंटवारा शांतिपूर्ण ढंग से कर लेने का सुझाव दिया था, परंतु तीनों ने ही इसे अस्वीकार कर दिया। जहांगीर के समय से ही गद्दी प्राप्त करने के लिए तलवार का सहारा लेने की जो परिपाटी चली आ रही थी उसे रोकना अव असंभव था। तीनों शहजादे गद्दी पर अधिकार करने के लिए तैयार हो गए। तीनों ने ही अपने अपने को सम्राट् घोषित कर दिया। तीनों ने अपना अपना राज्याभिषेक किया । कामबख्श ने ‘दीनपनाह’ की उपाधि धारण की तथा अपने नाम से सिक्के जारी किए। औरंगजेब के अन्य दोनों पुत्र आगरा पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़े। कामबख्श बीजापुर छोड़ने की स्थिति में नहीं था। आजम (आजमशाह) और मुअज्जम (बहादुरशाह अथवा शाहआलम प्रथम्) में गुअज्जम की स्थिति आजम से अच्छी थी। वह दिल्ली और आगरा पर अधिकार करने में सफल हुआ। उसने आजम के समक्ष साम्राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव भी रखा, जिसे आजम ने ठुकरा दिया। अत: दोनों के मध्य संघर्ष आवश्यक हो गया। जून 1707 में आगरा के निकट दोनों भाइयों की मुठभेड़ जाजौ नामक स्थान पर हुई। आजम युद्ध में मारा गया। अब मुअज्जम कामबख्श को ओर बढ़ा। उसने कामबख्श को भी समझौता करने के लिए समझाया, लेकिन वह नहीं माना। युद्ध में कामबख्श पराजित और घायल हुआ। जनवरी, 1709 में उसकी मृत्यु हो गई। अब मुअज्जम की स्थति निरापद हो गई। वह बहादुरशाह अथवा शाह आलम प्रथम के नाम से मुगल साम्राज्य का वारिस बना।

बहादुरशाह (1707-12)- बहादुरशाह परिपक्व उम्र में गद्दी पर बैठा था। अनेक चारित्रिक गुणों के होते हुए भी वह मुगल साम्राज्य की अखंडता को बनाए रखने में समर्थ नहीं हो सका। उसके समय से ही मुगल साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया। औरंगजेब के समय से ही मराठे, राजपूत और सिख मुगल विरोधी नीतियां अपना रहे थे। औरंगजेब जैसे शक्तिशाली सम्राट को मृत्यु का लाभ उठाकर इन शक्तियों ने पुनः अपना प्रभाव बढ़ाना आरंभ कर दिया। राजपूत दुर्गादास के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्त करने का अभियान चला रहे थे। बहादुरशाह ने राजपूतों को मैत्री प्राप्त करने के लिए अजीत सिंह को जोधपुर का शासक स्वीकार कर उसे मनसबदार बना लिया। अंबर के शासक जयसिंह द्वितीय और दुर्गादास से भी मैत्री स्थापित की गई। राजपूतों की मैत्री हासिल कर वहादुरशाह ने सिखों की ओर ध्यान दिया। गुरु गोविंद सिंह के पश्चात् बंदा सिंखों का नेता हुआ। उसने मुगलों से संघर्ष जारी रखा। उसने ‘सच्चा बादशाह’ की उपाधि धारण की तथा पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर पंजाब और निकटवर्ती क्षेत्रों पर आक्रमण आरंभ कर दिया। उसने लोहगढ़ को अपनी शक्ति का केंद्र बनाया। वहादुरशाह ने लोहगढ़ पर अधिकार कर लिया परंतु वह बंदा पर नियंत्रण स्थापित नहीं कर सका। बंदा भाग खड़ा हुआ। सरहिंद पर भी मुगलों का अधिकार हुआ, परंतु इससे मुगल सिख संबंध सामान्य नहीं हो सके। बहादुरशाह ने मराठों के साथ भी समझौता करने का प्रयास किया। उसने शहू को राजा स्वीकार कर मराठों के साथ चलते आ रहे लंबे संघर्ष को समाप्त करने का प्रयास किया, परंतु मुगल-मराठा संबंध भी सामान्य नहीं हो सके । बहादुशाह अपनी उदारता के द्वारा प्रजा एवं अपने प्रतिद्वंद्वी शक्तियों से सामान्य व्यवहार बनाने में सफल हुआ।

जहाँदारशाह (1712-13)- बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् पुन: उत्तरधिकारी का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। बाहदुरशाह के चार पुत्र थे-जहाँदारशाह, अज्जीमुशान, जहाँशाह तथा रफीउशशान । इन चारों में जहाँदारशाह ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबेदार के रूप में प्रशासनिक क्षमता अख्तियार कर ली थी। बहादुरशाह को मृत्यु के समय चारों भाई लाहौर में थे। वहीं उनमें संघर्ष आरंभ हो गया। जुल्फिकार खाँ की सहायता से अपने तीनों भाइयों को युद्ध में पराजित कर एवं उनकी हत्या कर जहाँदारशाह गद्दी पाने में सफल हुआ। वह लाहौर से दिल्ली पहुंचा जहाँ उसका राज्याभिषेक हुआ। उसने जुल्फिकार खाँ को अपना वजीर नियुक्त किया। गद्दी पर बैठते ही जहाँदारशाह को फर्रुखशियर (बंगाल का नायब सूबेदार एवं अजीमुशन का पुत्र) के विद्रोह का सामना करना पड़ा। पटना में 1712 ई० में उसने अपने आपको सम्राट् घोषित कर दिया। उसकी सहायता पटना के नायब सूबेदार सैयद हुसैन अली खाँ और उसका भाई अब्दुल्ला खाँ इलाहाबद का नायब सूबेदार था, कर रहे थे। फर्रुखशियर इन सैयदबंधुओं और सेना के साथ राजधानी की ओर बढ़ा । खजुआ में जहाँदारशाह के सेनापति को पराजित करता हुई सेना आगरा की ओर बढ़ी। बाध्य होकर जहाँदारशाह को स्वयं शुभ करने के लिए आगे बढ़ना पड़ा। जनवरी, 1712 में जहाँदारशाह पराजित हुआ। वह भागकर दिल्ली गया परंतु, सैयदबंगों ने फरवरी, 1713 में उसकी हत्या करवा दी। जहांदारशाह मात्र दस महीनों तक ही गद्दी पर रहा। उसका सारा समय भोग-विलास में व्यतीत हुआ। इस बीच मुगल दरबार में लाल बुचरी एवं उसकी संबंधियों का प्रभाव बना रहा । दरबार में नाचने और गानेवाले ही प्रभावशाली बन गए। इसका प्रशासन और अर्थव्यस्था पर बुरा असर पड़ा। दरबारियों में भी आपसी प्रतिद्विता एवं वैमनस्य बढ़ गया। मुगल सरदारों के चारित्रिक पतन ने सामाज्य पर बुरा प्रभाव डाला।

फर्रुखशियर (171319) फर्रुखशियर सैयदबन्धुओं की सहायता से गद्दी पर बेटा था। इसलिए शासक बनते ही उसने उन दोनों को उच्च पद प्रदान किया। हुसैन अली को वजीर तथा सैयद अदुल्ला को मीरबख्शी के पद पर नियुक्त किया गया। फरवशियर एक नितांत ही कमजोर और अविवेकी शासक था। उसके समय में दरबारियों की शक्ति में वृद्धि हुई, परंतु बादशाह की शक्ति और प्रतिष्ठा में कमी आई। दरबारियों ने गुटबाजी और षड़यंत्र का सम्राट पर अपना प्रभाव जमाना आरंभ कर दिया। फर्रुखशियर वस्तुतः सैयदबंधुओं के हाथों का खिलौना बन गया। फर्रुखशियर के शासनकाल की प्रमुख घटनाएँ थीं मेवाड़ के शासक अजीत सिंह तथा सिख नेता बंदा के विरुद्ध सैनिक अभियान। अजीत सिंह एक स्वतंत्र शासक बनकर मुगल विरोधी कार्य कर रहा था। इसलिए, मुगल सेना को आक्रमण करने का आदेश दिया गया। मुगल सेना के समक्ष अजीत सिंह को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इसी प्रकार बंदा के विरूद्ध सैनिक अभियान कर उसे उसके अनुयायियों समेत गिरफ्तार कर लिया गया। जून, 1716 में बंदा एवं उसके पुत्र की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई। जाट नेता चूडामन के विदोह को दबा दिया गया। चूड़ामन ने सैयद बंधुओं के साथ समझौता कर मुगल विरोधी कार्रवाई नहीं करने का वचन दिया। फरीखशियर के शासनकाल की एक अन्य उल्लेखनीय घटना है औरंगजेब द्वारा हिंदुओं पर लगाया गया जजिया वापस लेना।

फर्रुखशियर सैयबंधुओं के बढ़ते प्रभाव और अपनी दयनीय स्थिति से छुटकारा पाना चाहता था। इसलिए, उसने सैयदबंधुओं से छुटकारा पाने के लिए षड्यंत्र रचना आरंभ किया। इस कार्य में उसे मीरजुमला का सहयोग मिला, परंतु फर्रुखशियर अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सका। बादशाह की कुतुन से सैयद बंधु क्रुद्ध हो उठे। उन लोगों ने उसे गद्दी से हटाने का निश्चय कर लिया। हुसैन अली ने मुगलों के विरुद्ध शाहू से एक संधि कर ली। पेशवा बालाजी विश्वनाथ की सैनिक टुकड़ी के साथ हुसैन अली फरवरी, 1719 में दिल्ली आया। फर्रुखशियर को अपमानित कर गद्दी से उतार दिया गया, उसकी आँखें फोड़ दी गई और उसे कारागार में डाल दिया गया। बाद में उसकी हत्या कर दी गई। यह घटना मुगलों के पतन की दर्दनाक स्थिति का द्योतक है।

रफी-उद-दरजात और रफी-उद-दौलत (1719 ई०)- फर्रुखशियर के स्थान पर अब सैयदबंधुओं ने रफी-उद-दरजात को बादशाह बनाया। वह मात्र चार महीनों तक ही गद्दी पर रह सका। वह क्षय रोग का मरीज था। अतः जून, 1719 में उसके स्थान पर रफी-उद-दौलत को नया बादशाह बनाया गया। वह शाहजहाँ द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठा। वह भी सैयद बंधुओं के हाथों का खिलौना बना रहा। सितंबर, 1719 में इसकी भी बीमारी से मृत्यु हो गई।

मुहम्मदशाह ‘रंगीला’ (1719-48)- अब सैयदबंधुओं ने मुहम्मदशाह को गद्दी पर बिठाया। नया बादशाह सैयदबंधुओं की कड़ी निगरानी में रखा गया। मुहम्मदशाह सैयदबंधुओं के प्रभाव से मुक्त होना चाहता था। इसके लिए उसने अंदर-अंदर ही प्रयास आरंभ कर दिया। इस समय तक सैयद्वेषुओं के अत्याचारों से दरबार के अनेक सरदार तंग आ चुके थे। इन लोगों ने गुप्त रूप से सपा को सहायता का आश्वासन दिया। ऐसे सरदारों में प्रमुख था मालवा का सूबेदार निजाम-उल-मुल्क । उसने पड्यंत्र रचकर हुसैन अली की हत्या उस समय करवा दी, जब वह बादशाह को अपने साथ लेकर दक्षिण की ओर निजाम-उल-मुल्क के विरुद्ध बढ़ा। अपने भाई की हत्या की सूचना पाकर अब्दुल्ला ने दिल्ली में शाहजादा इब्राहीम को गद्दी पर बिठा दिया। इस बीच मुहम्मदशाह अमीन खाँ के साथ वापस दिल्ली लौटा। उसने बिलोचपुर के निकट अब्दुल्ला को युद्ध में पराजित कर उसे गिरफ्तार कर लिया (1720 ई.)। कारागार में ही बाद में उसकी हत्या कर दी गई।

मुहम्मदशाह अब सैयदबंधुओं के प्रभाव से मुक्त हो गया। उसने पहले अमीन खाँ तथा बाद में निजाम-उल-मुलक को अपना वजीर नियुक्त किया, परंतु निजाम कुछ समय बाद ही दक्कन वापस चला गया। मुहम्मदशाह के समय में सम्राट की शक्ति एवं प्रतिष्ठा पुनः स्थापित हुई परंतु वह प्रशासन, दरबार अथवा साम्राज्य पर अपना नियंत्रण स्थापित नहीं कर सका। साम्राज्य के विभिन्न भागों में लगातार विद्रोह हुए, जिन्हें वह दबा नहीं सका। उसके समय में हैदराबाद, अवध, बंगाल स्वतंत्र हो गए और मराठों, जाटों, सिखों रुहेलों ने अपनी शक्ति बढ़ा ली। उसी के समय में नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण कर मुगल साम्राज्य की खोखली जड़ों पर तीव्र आघात किया। मुगल साम्राज्य के पतन की गति और तीव्र हो गई।

अहमदशाह (1748-54)- अहमदशाह के समय में मुगल सत्ता और अधिक संकुचित हो गई। आंतरिक प्रशासन नष्ट हो गया, राज्य में अशांति और अव्यवस्था व्याप्त हो गई। बादशाह का अधिकार दिल्ली के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गया। अहमदशाह में राज्य की गिरती अवस्था को नियंत्रण में रखने की न तो क्षमता थी और न इच्छा ही। उसका सारा समय भोग-विलास में व्यतीत होता था। इसलिए, दरबार में गुटबाजी और दलबंदी बढ़ गई। ईरानी और तुरानी सरदारों के आपसी संघर्ष ने स्थिति और दयनीय कर दी। मराठों ने दिल्ली में अपना प्रभाव बढ़ा लिया। मुगल बादशाह की दयनीय स्थिति को देखते हुए अहमदशाह अब्दाली ने भी भारत पर आक्रमण किया तथा पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत एवं पंजाब में अपना अधिकार बढ़ा लिया। इन परिस्थितियों में वजीर इमाद-उल-मुल्क ने जून 1754 में अहमदशाह को गद्दी से उत्तार दिया। उसे बंधा बनाकर कारागार में डाल दिया गया।

आलमगीर द्वितीय (1754-59)- अब अजीजुद्दीन को आलमगीर द्वितीय के नाम से गद्दी पर बिठाया गया। वह भी एक अयोग्य और निकम्मा शासक प्रमाणित हुआ। उसके समय में वास्तविक शक्ति वजीर इमाद-उल-मुल्क के हाथों में ही सुरक्षित रही, आलमगीर उसके हाथों की कठपुतली बना रहा। वजीर ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए बादशाह पर अत्याचार किए, उसे आवश्यक खर्च भी नहीं दिए गए। उसकी स्थिति अत्यंत ही दयनीय हो गई। वजीर के अत्याचारों से बचाने के लिए उसने अपने पुत्र अलीगौहर को पूर्वी प्रांतों में भेज दिया। मराठे इस समय अधिक शक्तिशाली हो गए। उनकी कार्यवाइयों से क्रुद्ध होकर अब्दाली ने 1757 ई० में दिल्ली पर आक्रमण कर इसे जी-भर लूटा। आलमगीर उसे धन देकर ही अपनी प्रतिष्ठा एव प्राणों की रक्षा कर सका। अब्दाली के वापस जाने के बाद वजीर इमाद-उल-मुल्क ने नवम्बर, 1759 में आलमगीर की हत्या करवा दी।

शाहआलम द्वितीय (1759-1806)- अलीगौहर की हत्या के पश्चात् मुगल सत्ता नाममात्र की रह गई । वजीर इमाद-उल-मुल्क के कामबख्श के पौत्र मुहीउल-मिल्लत को शाहजहाँ तृतीय के नाम से गद्दी पर बिठाया, लेकिन दरवारियों ने उसे मान्यता प्रदान नहीं की। इस बीच अलीगौहर ने बिहार में अपने-आपको सम्राट घोषित कर अपना राज्याभिषेक करवाया। उसने शाहआलम द्वितीय की उपाधि धारण की । दिल्ली पर मराठों के नियंत्रण, अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण और वजीर इमाद-उल-मुल्क के भय से सम्राट बनकर भी वह दिल्ली आने को तैयार नहीं हुआ। वह बिहार से शासन करने लगा। दिल्ली का राजसिंहासन खाली रहा । इस पर वजीर का ही अधिकार रहा। 1761 ई० में घटनाचक्र तेजी से चलने लगा। पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय हुई, शाहआलम भी अंग्रेजों से पराजित हुआ। बक्सर के युद्ध में पराजित होकर उसे बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को देनी पड़ी और वह स्वयं ही ईस्ट इंडिया कंपनी का पेंशनभोक्ता बना दिया गया। मुगल राजनीति पर अब अंग्रेजों भी हावी होने लगे। यद्यपि 1772 में वह मराठों के संरक्षण में दिल्ली आने और गद्दी पर बैठने में सफल तुआ परंतु उसकी स्थिति दिनों दिन कमजोर पड़ती गई। उसे मीरबख्श गुलाम कादिर ने अंधा कर गिरफ्तार कर लिया (1787 ई०) तथा बेदारबख्श को बादशाह बनाया। शाहआलम महादजी सिंधिया की सहायता से पुनः गद्दी प्राप्त करने में सफल हुआ। दुबारा शासक बनकर उसे अंग्रेजों की सहायता से मराठों से मुक्ति पाई एवं अंग्रेजों का पेंशन भोक्ता बनकर रहने लगा। 1806 ई० में उसकी मृत्यु हुई।

शाहआलम के साथ ही मुगलों की वास्तविक सत्ता समाप्त हो गई। मुगल बादशाह नाम के बादशाह रहे, वास्तविक सत्ता अंग्रेजों के हाथों में चली गई। अंग्रेजों ने बादशाह को पेंशन देकर सत्ता पर अधिकार कर लिया। अकबर द्वितीय (1806-37) और वहादुरशाह जफर (1837-57) नाममात्र के बादशाह बने रहे। 1857 ई. के विद्रोह के पश्चात् बहादुरशाह को गद्दी से उतार कर रंगून भेज दिया गया। वहीं 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। भारत में मुगल सत्ता का स्थान अब बिटिश ताज ने ले लिया। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के साथ मुगल साम्राज्य के पतन और विघटन की जो प्रक्रिया आरंभ हुई उसने अंतत: भारत से मुगलों की सत्ता ही समाप्त का दी।

(ब) वाह्य आक्रमण (The Foreign Invasions)

मुगल साम्राज्य की अवनति और पतन की स्थिति को देखकर विदेशियों ने भी भारत पर आक्रमण करने आंरभ कर दिए। मुगलों ने पश्चिमोतर सीमा की सुरक्षा-व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया था। इसका लाभ उठाकर अफगानों ने भारत पर आक्रमण आरंभ कर दिया। यद्यपि इन आक्रमणकारियों का उद्देश्य भारत में धन लूटना ही था, यहाँ पर राज्य स्थापित करना नहीं, परंतु उनके आक्रमणों का तत्कालीन भारतीय राजनीति और मुगल इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन आक्रमणों ने पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य को धराशायी कर दिया।

नादिरशाह का आक्रमण (The Invasion of Nadir Shah)

आक्रमण के कारण- पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य पर पहला आक्रमण नादिरशाह ने किया। नादिरशाह एक लुटेरा था। उसने अपनी शक्ति के बल पर फारस के शाह तहमास्स की मृत्य के पश्चात् राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया। 1736 ई० में वह स्वयं फारस का शासक बन बैठा। उसने अफगानों के विरुद्ध संघर्ष आरंभ किया। इस प्रक्रिया में उसे काबुल के मुगल प्रांतपति से भी संघर्ष करना पड़ा। उसने कांधार पर भी विजय प्राप्त कर ली। अब उसने अपना ध्यान भारत की ओर दिया। नादिरशाह द्वारा भारत पर आक्रमण करने के अनेक कारण थे। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था और अपनी सत्ता का विस्तार करना चाहता था। इस समय भारत की राजनीतिक स्थिति अत्यंत डॉवाडोल थी। पंजाब, राजपूताना अशांत था, मराठे अपनी शक्ति का विस्तार कर रहे थे। मुगल साम्राज्य छिन्न भिन्न हो रहा था। साम्राज्य के विभिन्न भागों में क्षेत्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष चल रहा था। साम्राज्य का प्रशासन नष्टप्राय हो चला था। चारों ओर अशांति एवं अव्यवस्था का वातावरण था। मुगल दरबार षड्यंत्रों एवं गुटबाजी का अखाड़ा था। ईरानी और तुरानी दलों के आपसी संघर्ष ने स्थिति और अधिक नाजुक बना रखी थी। दुर्भाग्यवश मुगल बादशाह मुहम्मदशाह इस स्थिति पर नियंत्रण पाने में सर्वथा असमर्थ था। नादिरशाह ने इस स्थिति से लाभ उठाने की योजना बनाई। नादिरशाह भारत के धन की भी चर्चा सुन चुका था। उसे यहां से अपार धन मिलने की आशा थी। अत: धन प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने आक्रमण की योजना बनाई। उसकी योजना को सीमांत प्रदेशों की असुरक्षा से भी बल मिला। नादिरशाह के आक्रमण का तात्कालिक कारण था मुगरों द्वारा फारस के साथ राजनीतिक संबंधों का विच्छेद कर लेना। मुगलों और ईरानियों के बीच लंबे समय से कूटनीतिक संबंध बने हुए थे। दोनों राजदूतों का आदान-प्रदान करते थे लेकिन नादिरशाह के द्वारा सत्ता हथिया लिए जाने के बाद मुगलों ने यह प्रथा बंद कर दी। नादिरशाह इससे क्रुद्ध हुआ। नादिरशाह ने मुहम्मदशाह के पास अपना दूत भेजकर उसे अफगानों की सहायता नहीं करने का निवेदन किया, परंतु मुहम्मदशाह ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस पर क्षुब्ध होकर नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

आक्रमण का स्वरूप- नादिरशाह ने 1738 ई० में अपना भारत अभियान आरंभ किया। उसने काबुल पर अधिकार कर लिया। काबुल से उसने पुनः अपना दूत दिल्ली भेजा, परंतु मार्ग में ही उसकी हत्या कर दी गई। इससे क्रुद्ध होकर वह तेजी से आगे बढ़ा जलालाबाद पर अधिकार करता हुआ, निर्दोष व्यक्तियों की हत्या करता हुआ वह लाहौर पहुंच गया। पंजाब के सूबेदार जकारिया खान ने अपने-आपको निःसहाय पाकर आत्म-समर्पण कर दिया। उसे दिल्ली दरबार से कोई भी सहायता नहीं मिल सकी। नादिर ने पूरे पंजाब पर अधिकार कर लिया। अब दिल्ली दरबार का ध्यान नादिरशाह की ओर आकृष्ट हुआ। मुहम्मदशाह अपनी सेना के साथ नादिर का मार्ग रोकने के लिए दिल्ली से आगे पंजाब की ओर बढ़ा। कारनाल के निकट फरवरी, 1739 में नादिर और मुहम्मदशाह की सेना की मुठभेड़ हुई। मुहम्मदशाह युद्ध में पराजित हुआ। वह संधि करने के लिए नादिर के पास गया। नादिर ने उसे अपने अधिकार में ले लिया एवं धन वसूलने के उद्देश्य से उसे लेकर दिल्ली पहुंचा।

दिल्ली लूट- मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने दिल्ली में नादिर का भव्य स्वागत किया। उसे लाल किला के दीवान-ए-खास में ठहराया गया। बादशाह स्वयं ही उसकी खिदमत में लगा रहा। इसी बीच शहर में एक दुर्घटना घटी। नादिर के दिल्ली आने के पूर्व ही शहर में अशांति, अफवाह एवं घबड़ाहट फैल गई थी। यह अफवाह भी फैली कि नादिर को मृत्यु हो गई। फलस्वरूप ईरानी सैनिकों एवं नागरिकों में झड़प हो गई, जिसमें कुछ ईरानी सैनिक मारे गए। इस घटना से नादिर क्रुद्ध हो उठा। 11 मार्च, 1739 को सैनिकों को ‘कल्ल-ए-आम’ का हुक्म दे दिया। ईरानी सैनिक नागरिकों पर टूट पड़े हजारों निर्दोष व्यक्ति निर्ममतापूर्वक कत्ल कर दिए गए। शहर में लूट-खसोट का बाजार गर्म हो गया। चांदनी चौक और निकटवर्ती स्थान जलाकर राख के ढेर में बदल दिए गए। कत्ल-ए-आम सुबह आठ बजे से अपराह्न तीन बजे तक चला। नादिर ने दुकानों एवं आनज के गोदामों पर पहरा बैठा दिया तथा निकटवर्ती गाँवों को लूटने का आदेश दिया। अतः, जो जिंदा बचे भी थे उनकी स्थिति भी भोजन के अभाव में दयनीय हो गई। उस समय की स्थिति का वर्णन एक तत्कालीक इतिहासकार ने बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है। ईरानी सिपाहियों ने नागरिकों पर अमानुषिक अत्याचार कर उन्हें लूटा। एक अनुमान के अनुसार हत्या और लूट-पाट की अवधि के दौरन नागरिकों से करीब 3 करोड़ रुपए वसूले गए। नगर वासियों की स्थिति देखकर मुहम्मदशाह ने नादिर से खून-खरावा रोकने की विनती की। उसके अनुरोध पर नादिर ने हत्या और लूट-पाट बंद करवा दिया। नादिरशाह अगले एक महीने तक दिल्ली में ही रुका रहा। इस बीच दिल्ली का शासक वही रहा । उसके नाम खुतबा भी पढ़ा गया। 5 मई,1739 को वह दिल्ली छोड़कर अफगानिस्तान के लिए रवाना हो गया। जाने से पूर्व उसने दिल्ली का ताज पुनः मुहम्मदशाह को सौंप दिया। उसकी इस उदारता के बदले मुहम्मदशाह ने नादिर को सिंध नदी के पश्चिम का इलाका-कश्मीर से सिंघ तक तथा घट्टा और इसका निकटवर्ती बंदरगाह सौंप दिया।

नादिर के आक्रमण के प्रभाव- नादिर के आक्रमणों ने पतनोन्मुख मुगल साम्राज्य की जड़ों पर गहरा आघात किया । मुहम्मदशाह की पराजय के साथ ही विदेशियों में भी मुगलों की शक्ति और प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। मुगल साम्राज्य पर नादिर के आक्रमण का प्रतिकूल राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा पश्चिमोत्तर प्रांत में मुगलों की स्थिति और भी दुर्बल हो गई। ट्रांस-सिंधु क्षेत्र पर अफगानिस्तान का अधिकार हो गया। लाहौर पर भी नादिर का प्रभाव स्थापित हो गया। वहाँ के सूबेदार ने नादिर को प्रतिवर्ष 20 लाख रुपए देने का वचन दिया। नादिरशाह के आक्रमण ने साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी बुरा प्रभाव डाला । नादिर मुगल बादशाह और दिल्ली की जनता को लूट-खसोटकर ही वापस लौटा। वह अपने साथ कोहिनूर, मयूर सिंहासन, लगभग 15 करोड़ रुपए नकद, बहुमूल्य हीरे-जवाहरात, वस्त्र-आभूषण, हाथी-घोड़े, ऊंट और अन्य समान अपने साथ ले गया । नादिर के आघात को दिल्ली लंबे अरसे तक नहीं भूल सकी। शहर में राख और मुर्दो का ढेर लग गया। सड़ते मुर्दो के ढेर और उनसे उठने वाली दुर्गध ने बचे-खुचे लोगों का नगर में रहना दूभर कर दिया। अनेक लोग नगर छोड़कर भाग खड़े हुए। व्यापार और उद्योग नष्ट हो गए। प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट हो गई। जनता का नजर में मुगलिया सल्तनत की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई। अब उन्हें अपनी सुरक्षा की भी गारंटी नहीं रही। नादिर के आक्रमणों से प्रेरणा लेकर कुछ ही वर्षों बाद भारत पर अभगानों का दूसरा आक्रमण हुआ। इस प्रकार, नादिर के आक्रमण ने साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया को भी अधिक तीव्र कर दिया।

अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण (The Invasion of Ahmadshah Andali)

नादिरशाह के आक्रमण के कुछ वर्षों बाद ही अफगानों ने पुनः भारत पर आक्रमण किया। इस बार कारी अहमदशाह अब्दाली था। उसने अफगानिस्तान में अपनी शक्ति सुदृढ़ की एवं मुगल साम्राज्य की कमजोरी तथा पश्चिमोत्तर सीमा की असुरक्षा का लाभ उठाकर भारत पर अनेक आक्रमण किए। उसका उद्देश्य भारत में साम्राज्य की स्थापना करना नहीं था, बल्कि मुगल बादशाह को आंतकित कर उसे अपने प्रभाव में रखना और भारत से धन लूटना था। 1748-60 के बीच अहमदशाह ने भारत पर पांच बार आक्रमण किए । पाँचवें आक्रमण के दौरान उसे मराठों के साथ पानीपत का तृतीय युद्ध लड़ना पड़ा जिसका दुष्पभाव मराठों के साथ-साथ मुगल सामाज्य पर भी पड़ा। अहमदशाह के आक्रमण ने मुगल राज्य और इसके बादशाह की स्थिति और अधिक दयनीय बना दी। दिल्ली में इतनी अधिक अव्यवस्था फैली कि शाहआलम द्वितीय 1722 ई० में ही दिल्ली वापस आ सका। मुगल साम्राज्य नष्टप्राय हो गया। शाहआलम अंग्रेजों का पेंशनभोक्ता बन गया तथा दिल्ली पर वजीर का ही शासन रहा।

1760 ई० के बाद भी अहमदशाह ने भारत पर दो बार आक्रमण किए- 1764 और 1767 ई० में। दोनों ही बार पंजाब में सिखों की बढ़ती शक्ति को नियंत्रित करने के लिए उसे लाहौर तक आना पड़ा। इस समय तक मुगल नाममात्र के ही बादशाह रह गए थे। उनकी शक्ति और प्रतिष्ठा नष्ट हो चुकी थी।

(स) स्वतन्त्र राज्य की स्थापना (Establishment of Now states)

1707 ई० के पश्चात् मुगल सामाज्य का क्रमिक पतन और विघटन आरंभ हुआ। औरंगजेब की मृत्यु से उत्पन्न राजनीतिक अव्यवस्था, गद्दी पर अयोग्य एवं कमजोर मुगल बादशाहों के आने, मुगल दरबार की दलबंदी एवं षड्यंत्र का लाभ उठाकर अनेक क्षेत्रीय शक्तियों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना के लिए प्रयास आरंभ कर दिए। इस प्रक्रिया में दक्कन, अवध और बंगाल में नवीन मुस्लिम राज्यों की स्थापना हुई। इसके साथ-साथ मराठों, राजपूतों, सिखों और जाटों ने भी अपनी स्वतंत्रता स्थापित कर ली। मुगल बदाशाह साम्राज्य के विघटन की एक प्रक्रिया को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहे। इसी अवधि में कर्नाटक और में अंग्रेजों ने भी अपनी शक्ति की स्थापना कर ली। 1764 ई० तक मुगल बादशाह को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को सौंप देनी पड़ी और वह स्वयं ही कंपनी का पेंशनभोक्ता बन गया।

हैदराबाद- दक्कन में हैदराबाद के स्वतन्त्र राज्य का संस्थापक चिनकिलिच खाँ निजाम-उल-मुल्क था। उसके पूर्वज समरकंद के निवासी थे। 17 वीं शताब्दी के मध्य में वे भारत आए। उसके पितामह ख्वाजा आबिद को औरंगजेब की सेवा में स्थान मिला। चिनकिलिच खाँ के चिता गाजीउद्दीन फिरोजजंग को भी औरंगजेब ने अपनी सेवा में ले लिया। अपने परिश्रम के बल पर वह लगातार उन्नति करता गया। गाजीउद्दीन के पुत्र कमरउद्दीन को उसकी सैनिक सेवाओं के बदले चिनकिलिचखा की उपाधि प्रदान की गई। जिस समय औरंगजेब की मृत्यु हुई चिनकिलिच खाँ बीजापुर का प्रशासक था। उसने उत्तराधिकारी के युद्ध में अपने आपको तटस्थ रखा । शासक बनने के बाद बहादुरशाह ने उसे बीजापुर से अवध भेज दिया। बादशाह फर्रुखशियर ने उसे पुन: 1713 ई० में दक्कन का प्रशासक नियुक्त किया। इसी समय उसे निजाम-उल-मुल्क की उपाधि भी प्रदान की गई। निजाम आरंभ से ही मराठों का विरोधी था। वह दक्षिण में मराठों के विस्तार को नियंत्रित करना चाहता था, परंतु मुगल दरबार से पर्याप्त सहायता नहीं मिलने के कारण वह अपने प्रयासों में सफल नहीं हो सका। फर्रुखशियर के समय में ही उसे दक्कन से हटा दिया गया। बाद में वह मालवा का सूबेदार बना। मालवा में रहते हुए निजाम ने अपनी शक्ति सुदृढ़ की । उसकी बढ़ती शक्ति को देखकर सैयदबंधुओं ने उसकी गतिविधियों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। उसे मालवा से हटाने की योजना बनाई गई, परंतु उसने षड्यंत्र कर दक्कन के सूबेदार और सैयदबंधुओं में से एक हुसैन अली की हत्या करवा दी। एक बार पुनः उसे दक्कन की सूबेदारी दी गई। 1722 ई० में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया। दिल्ली दरबार में अपने विरोधियों के षड्यंत्र और मुहम्मदशाह की निष्क्रियता से क्षुब्ध होकर वह बादशाह की अनुमति लिए बिना ही 1723 ई. में दक्कन वापस लौट गया। हैदराबाद के सूबेदार मुबारिज खां को निजाम के विरुद्ध कार्यवाई करने का आदेश दिया गया, लेकिन निजाम ने बरार में (शखर खेड़) अक्टूबर, 1724 में मुबारिज खाँ को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। उसने हैदराबाद और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित कर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। मुहम्मदशाह ने भी उसे मान्यता प्रदान कर दी। 1725 ई० में उसे आसफजाह की उपाधि और दक्कन की सूबेदारी दी गई, परंतु इस समय से वह एक स्वतंत्र शासक ही बन बैठा। इस प्रकार, मुहम्मदशाह को अकर्मण्यता से हैदराबाद राज्य का उदय हुआ।

अवध- मुगल साम्राज्य के अवशेषों पर उत्तरी भारत में अवध के स्वतंत्र राज्य की भी स्थापना हुई। इस राज्य का संस्थापक सादत खाँ बुरहान-उल-मुल्क था। वह खुरासान से आकर भारत में बस गया था तथा दिल्ली दरबार में ईरानो दल का प्रमुख सरदार बन बैठा था। 1719-1720 में वह हिन्दान और बयाना का फौजदार, 1722 ई० में आगरा का तथा 1724 ई० में अवध का सूबेदार नियुक्त किया गया। आगरा के सूवेदार के रूप में वह जाटों के विद्रोह को नियंत्रित करने में असफल रहा। इसलिए, मुहम्मदशाह ने आगरा को सूबेदारी राजा जयसिंह कछवाहा को दो तथा सादत खाँ को अवध का सूबेदार बनाया गया। उसने अवध में अपनी स्थिति सुदृढ़ करनी आरंभ कर दी। उसने मराठों के प्रभाव को भी नियंत्रित करने का प्रयास किया। नादिरशाह के आक्रमण के समय उसे दिल्ली बुलाया गया। नादिरशाह की विजय के पश्चात् सादत खाँ ने आत्महत्या कर ली। 1739 ई० में सादत खां के बाद सफदरजंग को अवध की सूबेदारी दी गई। इसने भी मुगल और तत्कालीन भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1748 ई० में मुगल बादशाह ने उसे अपना वजीर भी बनाया। इन दोनों सूबेदारों के समग में अवध की स्थिति एक स्वतंत्र राज्य की हो गई। मुगल राजनीति पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा। अक्षम् मुगल बादशाह इनके प्रभाव को नहीं रोक सके। शाह- आलम द्वितीय के समय में अवध के नए सूबेदार शुजाउद्दौला को पुनः वजीर नियुक्त किया गया। उसने शाहआलम के साथ बक्सर का युद्ध लड़ा और पराजित हुआ, परंतु उसकी स्वतंत्रता पर आँच नहीं आई। अवध मुगल साम्राज्य के नियंत्रण से व्यावहारिक तौर पर पूर्ण स्वतंत्र हो गया। 1816 ई. में गाजीउद्दीन हैदर ने अवध के नवाब की उपाधि धारण कर अपनी पूर्ण स्वंत्रता की घोषणा कर दी।

बंगाल- पूर्वी भारत में मुगल साम्राज्य से स्वतंत्र होने वाला सूबा बंगाल था। औरंगजेब की मृत्यु के समय बंगल और उड़ीसा का नायब नाजिम और दीवाना मुर्शिदकुली खाँ था। बंगाल से सूबेदार शाहजादा अजीमुशान की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसने अपनी शक्ति बढ़ानी आरंभ कर दी। उसने राज्य की अर्थव्यवस्था में सुधार किया, स्थानीय जमींदारों पर नियंत्रण स्थापित किया तथा अंग्रेज व्यापारियों द्वारा ‘दस्तक’ के दुरुपयोग को बंद करने का प्रयास किया। प्रशासनिक सुविधा के लिए उसने बंगाल की राजधानी ढाका के स्थान पर मुर्शिदाबाद में स्थापित की। 1713 ई० में उसे बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया तथा 1719 ई० में उड़ीसा भी उसे सुपुर्द कर दिया गया। 1727 ई० में मुर्शिदकुली खाँ के स्थान पर शुजाउद्दीन खां सूबेदार बना। 1733 ई० में बिहार भी बंगाल सूबा से जोड़ दिया गया तथा अलीवर्दी खाँ को नायब नाजिम के रूप में नियुक्त किया गया। अलीवर्दी ने बंगाल के नवाब सरफराज खाँ की 1740 ई० में हत्या करा दी। और स्वयं वहाँ का नवाव बन बैठा। वह मुहम्मदशाह से बंगाल के मसनद की स्वीकृति पाने में भी सफल हुआ। अलीवर्दी खाँ बंगाल पर एक स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन करने लगा। उसने दृढ़तापूर्वक आंतरिक व्यवस्था सुव्यवस्थित की, अंग्रेज व्यापारियों की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाया तथा मराठों के प्रति होने वाले आक्रमणों से बचने के लिए उनसे संधि कर (1751 ई०) उन्हें 12 लाख रुपए प्रतिवर्ष चौथ देना स्वीकार किया तथा उड़ीसा के राजस्व का एक भाग भी दे दिया। 1756 ई० में अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के पश्चात् उसका नाती सिराजुद्दौला बंगाल का नया नवाब बना। 1757 ई० में प्लासी के युद्ध में उसे परास्त कर अंग्रेजों ने बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

राजपूत राज्यों की स्वतंत्रता- मुगल साम्राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर राजपूताना में राजपूतों ने भी अपनी स्वतंत्र सुत्ता स्थापित करने का प्रयास किया। ऐसे राज्यों में प्रमुख थे-मेवाड, मरवाड़ और अंबर। औरंगजेब की नीतियों से ये राज्य मुगलों से क्षुब्य थे। अत: मौका पाते हो इन राज्यों ने मुगलों से स्वतंत्रता प्राप्त करने का अभियान आरंभ कर दिया। शासक बनने के बाद बहादुरशाह ने उन्हें अपनी सत्ता स्वीकार करने को बाध्य किया, लेकिन शीघ्र ही तीनों ने मुगलों के विरुद्ध एक त्रिगुट तैयार कर लिया। बहादुरशाह ने किसी प्रकार उनके साथ अच्छा संबंध बनाए रखा। उसकी मृत्यु के पश्चात् जोधपुर के अजीत सिंह ने पुनः विद्रोह किया, लेकिन सैयद हुसैन अली के प्रभाव में आकर उससे संधि कर ली। जोधपुर और जयपुर के शासक मुगल राजनीतिक में प्रभावशाली भूमिका निभाने लगे। अजीत सिंह को अजमेर और गुजरात तथा जयसिंह द्वितीय को सूरत और आगरा की सूबेदारी दी गई। राजपूतों ने मराठों के साथ कभी मैत्रीपूर्ण व्यवहार किया तो कभी उनका विरोध भी। पानीपत के तृतीय युद्ध में राजपूतों ने मराठों की सहायता नहीं की, बल्कि तटस्थ रहे । उनकी तटस्थता मराठों के लिए महंगी पड़ी।

सिख- औरंगजेब के समय से ही सिख पंजाब की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहते आ रहे थे। गुरुगोविन्द सिंह की मृत्यु के पश्चात् सिखों का नेतृत्व बंदा के हाथों में आया। उसने मुगल फौजदार की हत्या कर सरहिंद पर अधिकार कर लिया। उसने यमुना और सतलज नदियों के बीच के क्षेत्रों पर अपना अधिकार कायम कर लिया। बहादुरशाह ने उसे पकड़ने का प्रयास किया, परन्तु विफल रहा। फर्रुखशियर उसे पकड़ने और उसकी हत्या करने में सफल हुआ। बंदा की हत्या के बाद भी सिखों ने हार नहीं मानी । वे अपने आपको संगठित करते रहे। नादिरशाह और अहमदशाह के आक्रमणों से उत्पन्न अव्यवस्था का लाभ उठाकर सिखों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

नोट- जाट राजपूतों और सिखों की तरह जाटों ने भी भरतपुर में अपनी स्वतंत्र राज्य स्थापित की। इन जाटों का प्रमुख नेता चूड़ामन था। औरंगजेब के अन्तिम दिनों में जाटों को संगठित कर उसने दिल्ली और आगरा के निकटवर्ती इलाकों में अव्यवस्था फैला दी। फर्रुखशियर ने उन पर नियंत्रण स्थापित किया, लेकिन उन्हें हमेशा के लिये नियंत्रित नहीं किया जा सका। चूडामन के पुत्र बदन सिंह आगरा और मथुरा में स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। अब्दाली के आक्रमण के समय जाट भी तटस्थ रहे। मराठों के पतन के बाद उत्तरी भारत में उनकी शक्ति और अधिक बढ़ गई।

माराठे- मराठों का राजनैतिक उत्कर्ष औरंगजेब के शासनकाल में हुआ। शिवाजी ने स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना की। उनकी मृत्यु के पश्चात् क्रमशः शंभा जी, राजाराम, ताराबाई एवं छत्रपति शाहू ने मुगलों से संघर्ष कर दक्कन, मध्य भारत और उत्तरी भारत में अपनी सत्ता का विस्तार किया। पेशवा बालाजी विश्वनाथा, बाजीराव प्रथम एवं बालाजी बाजीराव ने मराठा शक्ति के विकास को चरमसीमा पर पहुंचा दिया। मुगल बादशाह उनकी शक्ति को रोकने में विफल रहे। पेशवा माधवराव ने पुनः मराठों की शक्ति को संगठित किया।

इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के साथ मुगल साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। नई शक्तियों का राजनीति में उदय हुआ। 1858 ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुगलों की  सत्ता समाप्त कर दी।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: sarkariguider.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- sarkariguider@gmail.com

About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!