सामाजिक असमानता विनिमय का अर्थ

सामाजिक असमानता विनिमय का अर्थ | आर्थिक असमानता | आर्थिक असमानता को दूर करने के उपाय | सामाजिक असमानता दूर करने के उपाय

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सामाजिक असमानता विनिमय का अर्थ

समाज की अपनी एक सामाजिक व्यवस्था होती है। इस व्यवस्था के सभी घटक या अंग समान नहीं होते हैं, बल्कि उनमें कुछ असमानतायें पायी जाती है। सामाजिक व्यवस्था में पायी जाने वाली असमानता को ही हम सामाजिक असमानता कहते हैं। सामाजिक असमानता सामाजिक संरचना का एक महत्वपूर्ण पक्ष या पहलू हैं। प्राचीनकाल में भारतीय जातीय व्यवस्था इस अवधारणा पर आधारित थी कि सामाजिक असमानता ईश्वरीय देन है। अर्थात् ईश्वर ने किसी को उच्च बनाया है। तो किसी को निम्न किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा ने यह सिद्ध कर दिया है कि सामाजिक असमानता किसी दैवी शक्ति द्वारा प्रदत्त वरदान अर्थवा अभिशाप नहीं है, बल्कि यह असमानता स्वयं मानव द्वारा स्थापित को गई है। आधुनिक युग में सामाजिक असमानतायें, जैसे छुआछूत, जातीय आधार पर ऊँच नीच का भेदभाव आदि अप्रासंगिक हो चले हैं। सामाजिक असमानता से तात्पर्य समाज में पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर बनी हुई समूह व्यवस्था में व्याप्त असमानता से है।

सामाजिक असमानता की समस्या का सम्बन्ध मुख्य रूप से एक विशेष तरह के सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था से होता हैं। जिन समाजों में सामाजिक स्तरीकरण की प्रकृति खुली हुई होती है, उनमें सभी लोगों को तुलनात्मक रूप से विकास के समान अवसर मिलते रहते हैं। दूसरी ओर बन्द स्तरीकरण वाले समाजों में जन्म, वंश, लिंग आयु जाति अथवा प्रजाति के आधार पर विभिन्न समूहों को मिलने वाले अधिकार और जीवन अक्सर एक दूसरे से भिन्न होते हैं। साधारणतया व्यक्ति प्रस्थिति के निर्धारण में उसकी योग्यता और कुशलता को महत्व नहीं मिल पाता। यही वह मूल कारण है जिसके प्रभाव से परम्परागत समाजों में सामाजिक असमानतायें संस्थागत विषमता का रूप ले लेती हैं। संस्थागत विषमता एक ऐसी दशा हे जिसमें कुछ विशेष सामाजिक नियमों, मानदण्डों और मूल्यों के अनुसार कुछ व्यक्तियों दा समूहों को दूसरे की तुलना में अधिक या कम अधिकार प्राप्त होते हैं। भारतीय समाज संस्थागत, धार्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों का निर्धारण जाति पर आधरित सामाजिक संरचना के अनुसार होता रहा तथा इन असमानताओं को स्मृतियों में वर्णित धार्मिक नियमों का संरक्षण मिलता रहा। यहाँ तक कि ऊँची और नीची जातियों, स्त्री और पुरुष मालिक और नौकर तथा राजा और प्रजा के विभेद को बनाये रखने के लिए भी व्यवहार के स्पष्ट नियम निर्धारित किए गए। इन दशाओं के संदर्भ में जब लुई ड्यूमा ने अपने पुस्तक ‘होमो हाइरारकिकस’ में भारतीय समाज को मौलिक रूप से एक असमानताकारी और स्तरीय समाज का नाम दिया तो भारतीय समाजशास्त्री भी सामाजिक विषमताओं के अध्ययन को एक प्रमुख सामाजिक समस्या के रूप में देखने लगे। इस पर आंद्रे वितई, योगेन्द्र सिंह, एम. एन. श्रीनिवास, एस.सी.दूबे, नीरा देसाई तथा वी.आर. नन्दा ने महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किये हैं।

वर्तमान युग की एक विडम्बना यह है कि लोकतांत्रिक और समाजवादी व्यवस्था में सामाजिक समानता को सबसे बड़े लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन इन दोनों तरह की राजनीतिक व्यवस्था वाले समाजों में आज भी सामाजिक असमानतायें कम नहीं हो सकी। समय के अनुसार भी सामाजिक असमानताओं के रूप में कुछ परिवर्तन जरूर हुआ है लेकिन सामंतवादी मानसिकता आज भी सामाजिक संरचना में उपयोगी परिवर्तन लाने में बाधक है। भारतीय संविधान में जाति लिंग और धर्म पर आधारित असमानताओं के पूर्ण उन्मूलन का उल्लेख है लेकिन कानून द्वारा सस्पृश्यता और जाति सम्बन्धी नियोग्यताओं को दूर कर देने के बाद भी जानिगत असमानतायें नये रूप में सामने आने लगी हैं। परिवार, विवाह, सम्पत्ति, शिक्षा और व्यवसाय के क्षेत्र में कानूनों द्वारा स्त्रियों और पुरुषों के विभेद को दूर कर दिया है लेकिन व्यवहारिक रूप से लिंग पर आधारित असमानतायें आज भी हमारी एक प्रमुख समस्या है।

आर्थिक असमानता-

अर्थ का तात्पर्य आय एवं सम्पत्ति से है। अतः आय और सम्पत्ति के वितरण में पायी जाने वाली असमानता को हम आर्थिक असमानता कहते हैं। उत्पादन एवं वितरण, मांग और आपूर्ति के साधनों वस्तुओं के गुणों, मूल्यों तथा मात्राओं में पाये जाने वाली असमानता, आर्थिक असमानता के उदाहरण हैं। प्रत्येक देश में सम्पत्ति एवं आय वितरण की अपनी एक व्यवस्था होती है। जिसका वहाँ के सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। चूँकि व्यक्तियों के गुणों, क्षमताओं, रुचियों और आवश्यकताओं में असमानता पाई जाती है। इसीलिए वितरण और उत्पादन के क्षेत्र में समानता पाया जाना सम्भव प्रतीत नहीं होता है। उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं कि कोई कुशल या विशेषज्ञ व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता के अनुरूप कार्य करने को तभी तैयार होगा जबकि उसे अतिरिक्त आय के रूप में प्रेरणा मिलेगी। इसी प्रकार लोगों को विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त करने के लिए आर्थिक समानता का होना आवश्यक भी है और वांछनीय भी है। यहाँ यह बात भी स्पष्ट है कि सामाजिक कल्याण या लाभ के लिए एक सीमा तक ही आर्थिक असमानता को न्यायसंगत कहा जा सकता है। सीमा के उल्लंघन से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की जटिल समस्यायें जन्म लेने लगती हैं, जो कालान्तर में विस्फोटक सिद्ध होती है। बहुत बड़ी आर्थिक असमानताओं से समाज में तनाव, द्वेष, ईष्यालु, प्रतिद्वन्द्विता और वर्ग संघर्ष पनपता है। जिसकी परिणति देश में स्थिरता और न्यायावस्था का भंग हो जाने के रूप में होती है। आर्थिक असमानता से समाज में अर्थव्यवस्था और शोषण को बढ़ावा मिलता है। तथा विकास के लिए सभी को समान अवसर नहीं मिल पाते है।

आर्थिक असमानता को दूर करने के उपाय-

आर्थिक असमानता को दूर करने के निम्नलिखित उपाय है-

(1) आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए प्रभावशाली प्रतिबन्धात्मक अधिनियम लागू किए जाने चाहिए।

(2) परिवार नियोजन एवं कल्याण के कार्यक्रम चलाकर जनसंख्या पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।

(3) आर्थिक विषमताओं को हटाने के लिए निम्नवर्गों के लिए आवश्यक वस्तुये कम कीमत पर उपलब्ध कराई जायें।

(4) रोजगार के अवसर में वृद्धि की जानी चाहिए।

(5) प्राथमिकता के आधार पर पिछड़े क्षेत्रों का विकास किया जाना चाहिए ताकि केन्द्रीय असमानतायें कम हो सकें

(6) कराधान की नीति इस प्रकार बनाई जाये ताकि मध्यम और निर्धन वर्ग पर परोक्ष करों का भार कम पड़े।

(7) श्रमिकों के लिए निःशुल्क शिक्षा एवं चिकित्सा तथा रियायती दरों पर आवास आदि उपलब्ध कराया जाना चाहिए।

(8)‌ राष्ट्रीय मजदूर नीति की घोषणा करके न्यूनतम मजदूरी की गारंटी मिलनी चाहिए।

(9) भूमि सुधारो का प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वयन किया जाना चाहिए।

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