संस्कृतिकरण की समस्याएँ

संस्कृतिकरण की समस्याएँ | संस्कृतिकरण की समस्याओं के निवारण के उपाय

संस्कृतिकरण की समस्याएँ | संस्कृतिकरण की समस्याओं के निवारण के उपाय | Problems of Sanskritisation in Hindi | Ways to solve the problem of culture in Hindi

संस्कृतिकरण की समस्याएँ

(Problem of Saskritization)-

संस्कृतिकरण का प्रभाव समाज के हर क्षेत्र पर पड़ा है। इससे सबसे अधिक ग्रामीण एवं जनजातीय समाज प्रभावित हुआ है, इसका प्रभाव कहीं सकारात्मक एवं कहीं नकारात्मक हैं। इस संस्कृतिकरण ने अनेक जटिलताओं, विषमताओं तथा समस्याओं को जन्म दिया है। जिनका निराकरण कर सकना काफी मुश्किल काम है। संस्कृतिकरण के फलस्वरूप भारतीय समाज में निम्नलिखित समस्याएं उत्पन्न हुई है।

(1) धर्म परिवर्तन (Change of Religion)-

जब केवल सांस्कृतिक परिवर्तन अथवा विशिष्ट संस्कृति से प्राप्त होने वाले लाभ के कारण धर्म परिवर्तन होते हैं तो वे समस्यामूलक सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए एक औसत हिंदू, शूद्र, यह जानता है कि अस्पृश्यता के मापदंड एवं कठोर वैवाहिक निषेध इस्लाम तथा ईसाई धर्म में नहीं होते, अतः वह हित व सामाजिक स्थिति में उच्चता प्राप्त करने के लिये यदि धर्म परिवर्तन करता है तो वह इसे केवल धन मानता है लक्ष्य नहीं। यही कारण है कि ऐसे धर्म परिवर्तनों के बाद व्यक्ति का केवल धार्मिक स्थल, (मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर) परिवर्तित होता है। उसकी मान्यताओं, संस्कारों में रंच मात्र भी अंतर नहीं आता। मुसलमान व ईसाई बनकर वहीं हिंदू अपने आपको उच्च समझने लगता है तथा जब शूद्र हिंदुओं की स्थिति उसकी दृष्टि में वहीं होती है जो सवर्ण हिंदुओं की दृष्टि में पायी जाती है। एक और विडंबना यह भी है कि परसंस्कृतिग्रहण की इस प्रक्रिया को कुछ समूह सुविधानुसार ही अपनाते हैं। यदि उनको कठिनाइयों का समाधान हो जाता है तो वे पुनः धर्म परिवर्तन करने में कोई संकोच नहीं करते। मीनाक्षीपुरम की धर्म परिवर्तन की घटना इसका साक्षात प्रमाण है कि आस्था परिवर्तन के कारण नहीं बल्कि सवर्ण हिंदुओं की अस्पृश्यता संबंधी प्रताड़नाओं से बचने के लिये वह सामूहिक धर्म परिवर्तन हुआ था।

(2) अनुकूलन की समस्या (Problem of Adjustment)-

संस्कृतिकरण के कारण निम्न जातियाँ एक ओर तो अपनी मूल परंपराएं आदते तथा मान्यताएँ छोड़ने लगती है तो दूसरी ओर क्योंकि वे अपना मूल रूप समाप्त करके उच्च जातियों में परिवर्तित (Convert) नहीं हो पाती है इसी कारण अनुकूलन की क्षमता लुप्त सी हो जाती है। न तो वह अपने मूल समाज में व्यवस्थित रह पाते हैं न तो तात्कालिक परिवर्तन के कारण दूसरी संस्कृति से अनुकूलन कर पाते हैं। अतः एक समय वह आता है जब ये निम्न एवं पिछड़ी जातियाँ किसी तरफ की नहीं रह पाती है।

जबकि स्वयं उसका ही प्रशासनिक ढाँचा आधुनिक मानदंडों के अनुरूप नहीं था। सन् 1857 की क्रांति के बाद जब ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासन को प्रत्यक्षतः अपने हाथों में ले लिया। तब कंपनी सरकार द्वारा तैयार किये गये प्रशासनिक ढाँचे में उत्तरोत्तर सुधारात्मक परिवर्तन हो गया। 1857 से लेकर 1947 तक भारत के प्रशासनिक ढाँचे में उत्तरोत्तर सुधारक परिवर्तन होते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय समाज में योग्यता के आधार पर निर्मित अधिकारी तंत्र/नौकरशाही (Bureaucracy) का निर्माण किया गया।

(3) राजनीतिक जागरूकता (Polical Awareness)-

भारत में प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था के ही कारण मतदान होने से विभिन्न राजनैतिक दलों की स्थापना हो सकी, जिन्होंने देश की जनता में ‘राजनैतिक अभिरूचियों का उत्पन्न करने, उनको विकसित करते तथा राजनीतिक क्षेत्र में सहभागिता हेतु प्रेरणा प्रदान की है। इसके कारण ही समाज में जनता द्वारा बढ़-चढ़कर राजनीति में सक्रिया भाग लेना प्रारंभ हुआ। सत्ताधारी दल एवं विरोधी दलों की अपनी खींचातानी एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के फलस्वरूप समाज के सदस्यों में राजनीतिक चेतना एवं जागरूकता की वृद्धि होती गयी।

(4) आर्थिक प्रभाव (Economic Inpact )-

भारत समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के परिणामतः जो भी परिवर्तन हुए, उनके द्वारा विभिन्न कारणों में समाज की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई। भारतीय समाज पर आधुनिकीकरण के प्रमुख आर्थिक प्रभाव निम्नवत् प्रस्तुत है।

(5) औद्योगिकरण (Industrialization)-

यूरोप में हुयी औद्योगिकी क्रान्ति के कदम कालान्तर में भारत भूमि पर भी पड़े। भारतीय समाज में औद्योगिकीकरण का प्रक्रिया के कारण बड़ी तीव्रगति से औद्योगिकरण की प्रक्रिया गतिशील हुई, क्योंकि ब्रिटिश सरकार भारत जैसे उपनिवेश से अधिकाधिक धन को खींचना चाहती थी।। तीव्रगति से हुए औद्योगिकरण के फलस्वरूप उत्पादन की दर में वृद्धि होती गयी। उत्पादन की दर में वृद्धि होने से समाज में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई। अधिक आय ने भारतीयों के जीवन स्तर का सुधार किया और प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के उद्देश्यवश अधिकाधि धनोत्पार्जन में जुट गया। औद्योगिकरण की प्रक्रिया में मात्र नगरीय क्षेत्रों को ही बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों को भी लाभान्वित किया। आधुनिकीकरण से ही देश की कृषि व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव आये तथा हरित क्रांति जैसा स्वप्न भी साकार हुआ।

(6) कृषि व्यवस्था में सुधार (Reforms on Agriculture)-

कृषि की प्रारंभ से लेकर आज तक भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही हैं भारत की लगभग 78 प्रतिशत जनसंख्या आज की ग्रामीण क्षेत्र में निवास करते हुए खेती संबंधी कार्य करती हैं विभिन्न बड़े और छोटे उद्योग की स्थापना और बड़े कृषि यंत्रों/उपकरणों के निर्माण के प्रारंभ होने से कृषि के औजारों तथा यंत्रों में भी परिवर्तन हुआ। जहाँ पहले जैविक ऊर्जा अर्थात् हल बैल के द्वारा कृषि कार्य किया जाता था, वहाँ धीरे-धीरे जैविक ऊर्जा के स्थान पर अजैविक अर्थात् जड़ ऊर्जा का प्रयोग प्रारंभ हो गया। ट्रैक्टर एवं सिंचाई की मशीनों के कारण कृषि से संबंधित उत्पादन में तेजी से वृद्धि होने लगी। उत्तम किस्म के बीजों एवं रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से फसले सुरक्षित होने लगी। कृषि क्षेत्र में जैसे-जैसे इनका प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे, ग्रामीण समुदायों में परंपरागत जजमानी व्यवस्था/ प्रथा टूटती गयी। समाज में परंपरागत व्यक्तियों का प्रचलन उत्तरोत्तर कमजोर होता गया। यांत्रिकता के अधिक प्रयोग से उत्पन्न आर्थिक संकट में सुरक्षा हेतु ग्रामीण क्षेत्रों में गतिशीलता का स्तर भी उच्च होता गया।

(7) निर्बाध/अप्रतिबंधित व्यवसाय (Unrestricted Occupation)-

परंपरागत भारतीय समाज में जाति व्यवस्था में अंतर्गत प्रत्येक जाति के लोगों के कार्य पूर्वनिश्चित होते थे। इसके कारण उनके निर्बाध व्यवसाय के चयन का मार्ग पूर्णतया अवरुद्ध था। प्रत्येक जाति अपने पैतृक व्यवसाय को ही चुनने की अधिकारिणी थी। इस संदर्भ में डॉ0 जी.एस. घुरिये ने कहा भी कहा है कि जाति व्यवस्था कुछ जाति के लोगों को ही ऐच्छिक व्यवसाय करने कर एकाधिकार प्रदान करती थी, जबकि कुछ सीमित व्यवसायों में ही प्रतिबंधित कर देती थी। भारतीय समाज में औद्योगिकरण एवं नगरीकरण के कारण विभिन्न व्यवसायिक जातियों के परंपरागत व्यवसाय समाप्त होते गये। नगरों के बाजपेयी शू-कंपनी, सिसोदिया पान भंडार, अग्रवाल शिक्षा संस्थान और कश्यप चाट हाउस से बोर्ड इसकी पुष्टि भी करते हैं। औद्योगिकरण एवं नगरीकरण समाजों के ही कारण भारतीय समाज के जातिगत पहचान भी कम होती गयी जुलाहे, चर्मकार, कुंभकार, तुहार, माली, नाई, धोबी एवं अन्यान्य कार्मिक जातियों ने अपनी-अपनी इच्छा और सुविधानुसार नये-नये व्यवसायों का चयनक्षकरना प्रारंभ किया, जिससे जातीय गतिशीलता में पर्याप्त बढ़ोत्तरी संभव हुई।

(8) शैक्षणिक / शैक्षिक प्रभाव (Educational Impact )-

आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव शिक्षा के क्षेत्र में दृष्टव्य है। भारतीय समाज में आधुनिकीकरण के साथ-साथ शिक्षा को भी आधुनिकीकृत होने का अवसर प्राप्त हुआ। धार्मिक संस्थाओं में सीमित नैतिक शिक्षा  का स्थान वैज्ञानिक शिक्षा ने ले लिया। शिक्षा से संबंधित मूल्य मानदंड की तेजी से बदलने लगे है। शिक्षा के आधार पर रोजगार प्राप्त होने के कारण शिक्षा का उद्देश्य रोजगारोन्मुखी होता गया। मानदंडों में होने वाले परिवर्तनों के प्रौकों एवं महिलाओं की शिक्षा का कार्य भी प्रारंभ किया गया, स्त्री-शिक्षा ने समाज में महिलाओं की स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव उत्पन्न किये, जिसका प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है।

अंत में इस प्रकार कहा जा सकता है कि आधुनिकीकरण ने भारतीय समाज को लगभग सभी क्षेत्रों में प्रभावित किया है।

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