शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा के मूल्य | मूल्य का तात्पर्य | मूल्य, मूल्यों और मूल्यांकन

शिक्षा के मूल्य | मूल्य का तात्पर्य | मूल्य, मूल्यों और मूल्यांकन

शिक्षा के मूल्य

मनुष्य को ईश्वर से दो महान तत्व मिले हैं। पहला तत्व है शरीर और दूसरा तत्व है आत्मा और मन। इन दो तत्वों की सहायता से वह अपने चारों ओर की चीजों पर विचार, चिन्तन, और अनुभूति करता है। इसी गुण के कारण मनुष्य को पशु से भिन्न कहा जाता है। मनुष्य का प्रयत्न होता है कि जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में वह जिन वस्तुओं, जीवों और उनकी दशाओं का अवबोधन करता है उस अवबोधन को अभिव्यक्त करे। यह अभिव्यक्ति ही वस्तुओं, जीवों, क्रियाओं और दशाओं का ‘मूल्य’ बताती है। उदाहरण के लिये मनुष्य कहीं जा रहा है, रास्ते में धूप तेज हो गई तो उसे छाया ढूँढ़ना पड़ता है और यदि कोई सघन वृक्ष दिखाई दे जावे तो मनुष्य उसी के नीचे रुक कर धूप से रक्षा कर लेता है। इस पर सघन वृक्ष का मनुष्य के जीवन में मूल्य हो जाता है। विद्यार्थी विद्यालय में क्यों आता है? जब हम इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश करते हैं तो हमें मालूम होता है कि विद्यालय विद्यार्थी को विभिन्न विषयों की शिक्षा देता है और कम से उसकी ज्ञान की भूख एवं पिपासा को सन्तुष्ट करता है। इस विचार से विद्यार्थी के लिये विद्यालय का मूल्य होता है। मनुष्य और पशु भोजन ढूँढ़ते हैं, यह उनकी मूल प्रवृत्ति है। ऐसा वे क्यों करते हैं ? इसका ज्ञान सबको रहता है और यही उत्तर मिलता है कि वे अपने आप को जीवित रखना चाहते हैं या उन्हें जीवन की इच्छा होती है। यहाँ पर भोजन जैसी वस्तु और उसके ढूँढने में जो क्रिया की जाती है उसका जीवन में मूल्य कितना अधिक है, यह हम सभी को ज्ञात है। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में मूल्य का क्या महत्व है, उसकी क्या आवश्यकता है ? इन सबके सन्दर्भ में हम जीवन के मूल्यों (Values of Life) पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।

मूल्य का तात्पर्य

मूल्यों के बारे में जानकारी करने के समय हमें सबसे पहले जिस प्रश्न का सामना करना पड़ता है वह है मनुष्य का तात्पर्य ? इस विचार से हमें इस प्रश्न का उत्तर देना जरूरी होता है। शुरू में हमने यह संकेत किया कि मनुष्य एक विचारवान प्राणी है अतएव जीवन की हरेक इच्छा और आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में वह कुछ मूल्य अवश्य पाता है। इस दृष्टि से मूल्य का तात्पर्य वस्तु या क्रिया के उस गुण से होता है जिसके द्वारा हमें सन्तुष्टि मिलती है या मिलने की आशा होती है।

मूल्य इस प्रकार से एक गुण है परन्तु यह गुण केवल वस्तु या क्रिया में ही नहीं अभिनिहित होता है, यह गुण मनुष्य में भी मिलता है। वस्तुतः मनुष्य के द्वारा ही वस्तु या क्रिया में मूल्य देखा जाता है। उदाहरण के लिए किसी पाठ्यपुस्तक का मूल्य विद्यार्थी के लिए अधिक है जबकि एक दूकान वाले के लिए कुछ नहीं है क्योंकि वह उसे फाड़ कर अपना काम करता है। इस विचार से मूल “वस्तुओं को चुनने की योग्यता” भी कही जाती है। ऐसा विचार प्रो० एच० एस० ब्राउडी का है।

मूल्य का एक अर्थ और भी दार्शनिकों के द्वारा बताया गया है जो निर्णय या मानक के रूप में पाया जाता है। मनुष्य किसी चीज या क्रिया को अपनाने के पूर्व यह निर्णय करता है कि उसे अपनाया जावे या नहीं, क्या अपनाने में अथवा त्यागने में इसका मूल्य जीवन में है ? अतएव मूल्य यहाँ पर एक मानक के रूप में, एक मानदण्ड के रूप में प्रकट होता है। इस सम्बन्ध में प्रो० स्टेनली ने लिखा है कि “यह बात सत्य है कि व्यक्ति की रुचि सभी चीजों से नहीं होती है, वह केवल उसी चीज की रुचि और इच्छा भी करेगा जिसमें कोई मूल्य होगा अथवा जिसकी कोई मान्यता होती है या जिसको कोई मानदण्ड पर रख कर मूल्यवान बताया गया है। अतः मूल्य इस अर्थ में मूल्यकरण या मूल्यांकन भी होता है और एक प्रकार का मानक होता है।”

जीवन में इस प्रकार से सभी चीजें. सभी क्रियाएँ और सभी दशाएँ मूल्य रखती है तभी मनुष्य इन्हें विभिन्न तरीकों से, विभिन्न परिस्थितियों में उपयोग करने का प्रयत्न करता है। जीवन की सार्थकता इन्हें विधायक के रूप से काम में लाने में होती है। इस दृष्टि से मूल्य का अर्थ विधायक ही होता है। इसीलिए तो “अच्छाई”, “सौंदर्य”, “सत्य” को लोग जीवन में मूल्यवान मानकर धारण करते हैं। इसी प्रकार से जीवन में नैतिकता, धार्मिकता, सामाजिकता, राष्ट्रीयता, जातीयता आदि सभी मूल्य हैं।

जीवन में संघर्ष एक आवश्यकता है ऐसी स्थिति में मनुष्य को प्रतियोगिता करनी पड़ती है। विभिन्न चीजों के लिए एक साथ इच्छाएँ उठा करती हैं और मनुष्य का विवेक यह निश्चित करता है कि क्या वास्तव में होना चाहिए। अतएव सभी संघर्षों इच्छाओं के बीच एक चुनाव का परिणाम भी निकलता है और इसे भी मूल्य समझा जाता है। इस सम्बन्ध में हमें प्रो० जार्ज जीगर के शब्द ध्यान में रखना चाहिए। इन्होंने लिखा है कि “मानवीय प्रतियोगी इच्छाओं के बीच मानवीय चुनावों के परिणाम मूल्य होते हैं।”

ऊपर कई विचार मुद्रा का तात्पर्य बताते हुए मिलते हैं। इन सबको समन्वय रूप में हमें स्वीकार करना चाहिए। वस्तुतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि “मूल्य वस्तु, क्रिया, दशा और मनुष्य का वह युग है जिसके कारण उसकी उपयोगिता होती है और उसे एक मानक के रूप में स्वीकार किया जाता है और प्रयोग किया जाता है।”

जीवन के मूल्य का सामान्य अर्थ जानने के बाद पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोण से इसका अर्थ समझा जावे । पाश्चात्य दृष्टिकोण से जीवन के मूल्यों का तात्पर्य मनुष्य के आन्तरिक और बाह्य, शारीरिक और भौतिक, उपयोगी गुणों और विशेषताओं का संगठन होता है। ऐसा विचार हमें प्रो० एस० एलेक्जेण्डर का मिलता है। इर में हमें उपयोगितावादी दृष्टिकोण मिलता है।

भारतीय दृष्टिकोण से जीवन के मूल्यों का तात्पर्य मनुष्य के आन्तरिक, समाज के लिए आदर्श स्थापित करने वाले, नैतिक-धार्मिक-आध्यात्मिक आचरण सम्बन्धी गुणों का संगठन होता है। वास्तव में भारतीय दृष्टिकोण से जीवन के मूल्यों का अर्थ होता है जीवन के विभिन्न पक्षों में विभिन्न मान्यताओं का संगठन जो जीवन को आगे ले जाता है।

पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोण से जीवन के मूल्यों में कुछ स्पष्ट अन्तर मालूम होता है। पाश्चात्य जीवन के मूल्य वास्तविक, साधन रूप, भौतिक और उपयोगी व रोचकतापूर्ण माने जा सकते हैं। भारतीय जीवन के. मूल्य इसके विपरीत आदर्शवादी, अभौतिक, अपने आप में उपयोगी और विश्वास-धारणा के अंग रूप में माने जा सकते हैं। उदाहरण के लिए सहिष्णुता और उदारता जैसे मूल्य सहायता एवं दान रूप में भारतीय जीवन के अंग हैं। पाश्चात्य जीवन में उदारता का कोई उपयोगी पक्ष भी दिखाई देगा। दूसरे शब्दों में भारतीय जीवन के मूल्य आध्यात्मिक और आन्तरिक अधिक हैं जबकि पाश्चात्य जीवन के मूल्य वस्तुनिष्ठ या । वस्तुपरक एवं बाह्य अधिक हैं। भारतीय जीवन के मूल्य साधन रूप न होकर साध्य रूप होते हैं जबकि पाश्चात्य जीवन के मूल्य साधारण माने जाते हैं।

मूल्य, मूल्यों और मूल्यांकन

जीवन एक ऐसा सम्बद्ध संगठन है जहाँ हमें मूल्य, एवं मूल्यांकन का महत्व मिलता है। प्रो० डी० डब्लू० प्राल ने मूल्य के बारे में अपना विचार इन शब्दों में दिया है “मूल्य सूक्ष्म रूप में सामान्य प्रयोग में उन वस्तुओं के लिए अनुप्रयुक्त पद है जो ‘पसन्द’ नामक सम्बन्ध के बाहरी सिरे पर होता है, जिसका अन्दर का सिरा मानव मन होता है जो उसे पसन्द करता है।”

इसी प्रकार से मूल्य के बारे में प्रो० पेरी ने लिखा है-“वह जो रुचि की एक वस्तु होती है अपने आप में मूल्य रखती है। कोई वस्तु को मूल्य प्राप्त होता है जबकि उसमें कोई रुचि ली जाती है; जैसे कोई भी वस्तु एक लक्ष्य हो जाता है जब कोई भी उसकी ओर निशाना लगता है।”

उपर्युक्त कथनों से दो बातें ज्ञात होती हैं-(1) मूल्य एक आन्तरिक गुण है जिससे व्यक्ति किसी वस्तु को पसंद करता है, और (2) मूल्य मनुष्य के लिए एक लक्ष्य आदर्श अथवा मानव स्वरूप होता है जिसे मनुष्य प्राप्त करना चाहता है और प्राप्त करता भी है।

मूल्य का तात्पर्य जानने के बाद हमें मूल्यों की ओर भी ध्यान देना चाहिए। मूल्यों के सम्बन्ध में प्रो० डीवी ने लिखा है-“मूल्यों का सम्बन्ध आन्तरिक रूप से पसन्द के साथ होता है, फिर भी हरेक पसन्द के साथ नहीं होता बल्कि केवल उनके साथ होता है जिसे निर्णय की मान्यता मिली होती है। यह सम्बन्ध की उस परीक्षा के बाद होता है जिस पर पसन्द की गई वस्तु आश्रित होती है।”

मूल्यों के सम्बन्ध में प्रो० डब्लू० एच० किल्पैट्रिक ने भी कुछ विचार दिये हैं जिन्होंने मूल्यों का नक्शा (Map of Values) ही कहा है। ऐसे नक्शे में उन्होंने मनुष्य की आशाओं, लक्ष्यों, आदर्शों को रखा है जिनक मनुष्य आलोचना करता है और निर्देशन के लिए प्रयोग करता है।

‘मूल्यों’ को मूल्य का बहुवचन नहीं माना जाता है बल्कि इससे कहीं आगे एक मूल्यात्मक संगठन कहा जा सकता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के गुण, आदर्श, लक्ष्य, विशेषता आदि एक साथ जुड़े पाये जाते हैं। इसमें बाह्य और आन्तरिक सभी प्रकार के गुण एक साथ पाये जाते हैं। प्रो० एस० एलेक्जेण्डर ने लिखा है कि हम अपने सामने सम्पूर्ण ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञात को शामिल करते हुए पूरी परिस्थिति के सम्बन्ध में मूल्यों या साधारण गुणों को रखते हैं।

अब हमें मूल्यांकन पर विचार करना चाहिए। इसका सीधा-साधा अर्थ है मूल्य की जाँच या निर्णय (Judgment of Value)| मूल्यांकन का सम्बन्ध मूल्य से इस प्रकार काफी घनिष्ठ होता है। मूल्यांकन के द्वारा ही मूल्य प्रगट होता है। इसलिए दोनों एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते फिर भी दोनों के अन्तर को स्पष्ट करना आवश्यक होता है। मूल्यांकन का तात्पर्य इस दृष्टि से किसी वस्तु से किसी वस्तु की कीमत लगाना और उसकी उपयोगिता समझना है। उदाहरण के लिए एक पुस्तक का मूल्य आठ रुपया है, अथवा एक दूकानदार का आचरण अच्छा या बुरा है अथवा भोजन का मूत्य स्वास्थ्य के लिए क्या है, इत्यादि । अतएव मूल्यांकन एक प्रकार से मूल्य का विश्लेषण एवं एक निश्चित रूप तथा स्थान देने में होता है। मूल्यांकन वस्तु, व्यक्ति या क्रिया के बारे में एक विचारात्मक निर्णय एवं निरूपण कहा जाता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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