शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा में यथार्थवाद | यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा में यथार्थवाद | यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य | यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा में यथार्थवाद

शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद, प्रकृतिवाद एवं प्रयोजनवाद के समान ही यथार्थवाद का भी प्रयोग हुआ है और इस दार्शनिक विचारधारा ने शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य, विधि, पाठ्यक्रम, अनुशासन, शिक्षक, शिक्षार्थी एवं शिक्षालय को अच्छी तरह प्रभावित किया है। फलस्वरूप आज हम शिक्षा दर्शन के अन्तर्गत “शिक्षा में यथार्थवाद” का अध्ययन करते हैं जिसमें उपयुक्त प्रसंगों का विवेचन किया जाता है। आधुनिक युग में विज्ञान के महान प्रभाव को देखकर हमें यह निश्चित हो जाता है कि यह यथार्थवाद की देन है। इसे हम यहाँ अध्ययन करेंगे।

यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य-

यथार्थवाद ने शिक्षा को आधुनिक युग के दृष्टिकोण से देखा है। इस विचार से यथार्थवाद के अनुसार “शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक और नैतिक विकास की प्रक्रिया है।” कुछ यथार्थवादी इतने से ही सन्तुष्ट न रहे और वे एक कदम आगे बढ़ गये तथा शिक्षा को स्वयं विकास ही कहा। वास्तव में यह आधुनिकतम दृष्टिकोण शिक्षा के प्रति है जिसे प्रयोजनवादियों ने भी स्वीकार किया है।

यथार्थवाद ने शिक्षा को सामाजिक संस्था के रूप में भी स्वीकार किया है जिसका लक्ष्य मनुष्य का निर्माण होता है, तथा सामाजिक जीवन का विकास होता है और जिससे मनुष्य अपनी आनुवंशिक देनों को सुरक्षित करना सीखता है। शिक्षा के द्वारा इस प्रकार से मनुष्य अपना और समाज का सुधार करता है और ऐसी दशा में यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा मनुष्य की एक सामाजिक आवश्यकता हो जाती है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य समाज में उचित ढंग से रहने के लिए एक प्रकार की ट्रेनिंग भी प्राप्त करता है।

यथार्थवाद शिक्षा के प्रति एक अन्य दृष्टिकोण भी रखता है। समाज का एक प्रमुख अंग राज्य माना जाता है। यथार्थवाद ने राज्य का कर्तव्य शिक्षा प्रदान करना स्वीकार किया है। “शिक्षा के द्वारा राज्य संगठित नागरिकों में एक ऐसा धर्म स्थापित करता है जिससे राष्ट्रीय एकता और नगरीय शान्ति बढ़ सकती है। यह धर्म मानव तथा संसार से संबन्धित होता है और व्यावहारिक होता है।”

आधुनिक समय में जनतन्त्र जैसी संस्था में शिक्षा प्रदान करना राज्य पर निर्भर करता है और प्रत्येक नागरिक इसे पाने का अधिकारी होता है। यह यथार्थवाद की देन है।

ऊपर के विचारों से हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि यथार्थवाद के अनुसार “शिक्षा का तात्पर्य है वह विकास की प्रक्रिया एवं सामाजिक संस्था जिससे मनुष्य वास्तविक परिस्थिति का बोध करता है और एक अच्छे नागरिक की तरह रहना और व्यवहार करना सीखता है।”

इस विचार को जॉन मिल्टन के शब्दों में हम पाते हैं-“मैं पूर्ण और उदार शिक्षा उसको कहता हूँ जो व्यक्ति को शान्ति तथा युद्ध दोनों समय में व्यक्तिगत सार्वजनिक कार्यों को न्यायोचित ढंग से, दक्षता और उदारता के साथ करना सिखाती है।”

यहाँ यथार्थवाद के एक प्रतिनिधि मिल्टन का विचार शिक्षा के सम्बन्ध में ऊपर दिया गया है। दूसरे प्रतिनिधि कमीनियस हैं। इनका भी विचार यहाँ दिया जा रहा है। कमीनियस ने शिक्षा को सम्पूर्ण जीवन की एक प्रक्रिया माना है जिससे मनुष्य अपनी परिस्थितियों के साथ अगणित समायोजन करता है तथा व्यक्तिगत और सामाजिक विकास करता है और सभी प्रकार के ज्ञान प्राप्त करता है तथा संसार में रह कर परमात्मा के पास पहुँचने का प्रयत्न करता है। भारत में यथार्थवाद का कोई आधुनिक प्रतिनिधि नहीं है। यत्र-तत्र सभी शिक्षाशास्त्रियों के विचार में यथार्थवाद की झलक दिखाई देती है। यथार्थवादी दृश्य निश्चय ही आधुनिक भारतीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) में मिलता है जिसके अनुसार शिक्षा भौतिक उत्पादन, वैज्ञानिक प्रगति और सुखमय जीवन का साधन है।

यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य-

उपर्युक्त अर्थ में शिक्षा को स्वीकार करके यथार्थवाद ने शिक्षा के उद्देश्य का संकेत किया है। यथार्थवाद मनुष्य को सुखी बनाने का लक्ष्य रखता है और इसी आधार पर उसने शिक्षा के उद्देश्य भी निश्चित किये हैं। यथार्थवाद के अनुसार निम्नलिखित शिक्षा के उद्देश्य मिलते हैं-

(1) शारीरिक शक्तियों के विकास तथा इन्द्रियों के प्रशिक्षण का उद्देश्य- मनुष्य यह चाहता है कि वह एक अच्छा जीवन बिताये। इस विचार से यथार्थवादी विचारों ने शिक्षा का प्रथम उद्देश्य मनुष्य की शक्तियों का पूर्ण विकास करना माना है। शरीर के अंग उसकी इन्द्रियाँ भी हैं अतएव शरीर के विकास के साथ यथार्थवादी यह भी चाहते हैं कि शिक्षा के मारा मनुष्य की पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पाँचों कर्मेन्द्रियाँ भी प्रशिक्षित हो जावें तभी वह अच्छी तरह से जीवन बिताने में समर्थ हो सकता है।

(2) सुस्पष्ट ज्ञान यथा सुनियोजित कला के प्रतिपादन का उद्देश्य- इस उद्देश्य का समर्थन करते हुए प्रो० ब्राउडी ने लिखा है कि “यथार्थवादी शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के सुस्पष्ट ज्ञान तथा सुनियोजित कता का प्रतिपादन करना है। ऐसा करने से व्यक्ति जीवन की गूढ़तम परिस्थितियों का सामना कर सकता है। इसके ज्ञान से अच्छा जीवन प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा ज्ञान और कलाएँ वर्तमान जीवन के अनुकूल हों।”

(3) मानसिक शक्तियों के विकास का उद्देश्य- यथार्थवाद ज्ञान की प्राप्ति के लिये मानसिक शक्तियों के विकास के पक्ष में है। इसका कारण यह है कि वस्तुओं का सही- सही ज्ञान बिना मस्तिष्क की सहायता से नहीं हो सकता है। अतएव यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का यह उद्देश्य होना बताया जाता है।

(4) वास्तविक जीवन के लिये तैयारी का उद्देश्य- यथार्थवाद प्रगतिवाद के समान व्यक्ति की प्राकृतिक प्रवृत्तियों एवं क्रियाओं के स्वतन्त्र विकास के पक्ष में है परन्तु सामाजिक पर्यावरण का भी ध्यान रखते हुए। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन की वास्तविकता को बताते हुए मनुष्य को जीवन के लिए तैयार करना कहा गया है।

(5) सामाजिक एवं व्यावसायिक प्रगति का उद्देश्य- ऊपर शिक्षा को जीवन के सुख-शान्ति से सम्बन्धित होना बताया गया है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा का एक लक्ष्य समाज, उसके सदस्य, उसकी संस्थाओं, उसकी संस्कृति आदि का ज्ञान देना है, समाज के व्यवसाय के बारे में उसकी प्रगति के बारे में भी शिक्षा बताती है। अतएव शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य को सामाजिक एवं व्यावसायिक प्रगति का बोध कराना है तथा इसके प्रति क्रियाशील भी बनाना है।

(6) नैतिक एवं धार्मिक विकास का उद्देश्य- कुछ यथार्थवादी इस विचार के हैं कि यथार्थवादी शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य के भीतर नैतिक एवं धार्मिक भावना जागृत और विकसित करे जिससे वह अपने उत्तरदायित्वों की अनुभूति करे और तदनुकूल अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन एवं समायोजन करने में सफल भी हो।

(7) पूर्ण मानव के निर्माण का उद्देश्य- बहुत से यथार्थवादी शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि जगत का वास्तविक ज्ञान मनुष्य को इस प्रयोजन से दिया जावे कि पूरे मनुष्य का निर्माण हो सके। एक ओर वह साहित्य, कला, विज्ञान आदि का ज्ञाता हो, दूसरी ओर वह उद्योग, व्यापार, काम-काज में पूर्ण कुशल हो और तीसरी ओर वह जीवन को व्यावहारिक ढंग से सुखमय बनाने में सफल रहे। चौथी ओर वह नैतिक, धार्मिक उन्नति भी कर सके। शिक्षा का उद्देश्य इस प्रकार मनुष्य का भौतिक और अभौतिक दोनों प्रकार की उन्नति करना होता है।

(8) दोषों को दूर करने तथा अच्छा जीवन का उद्देश्य- मनुष्य शिक्षा पा कर अपने आप में तथा समाज में पाये जाने वाले दोषों को दूर करता है यह मनुष्य का धर्म है। प्रो० गुड ने लिखा है “शिक्षा मनुष्य जाति को दोषों से दूर रखने का साधन है जिससे जीवन मूल्यहीन एवं असहनीय बनता है।” (Education is the means to reclaim mankind from evils which make life worthless and unbearable)| इस आधार पर शिक्षा का एक उद्देश्य मनुष्य जाति के दोषों को दूर करना है। (To remove evils of mankind)।

प्रो० ब्राउडी ने यथार्थवादी शिक्षा का उद्देश्य “अच्छा जीवन’ बताया है। ‘अच्छा’ शब्द सापेक्षिक अर्थ रखता है। पाश्चात्य दृष्टिकोण से अच्छा जीवन सुख-वैभवपूर्ण होता है। भारतीय दृष्टिकोण से केवल शान्त व नैतिक जीवन अच्छा होता है। समाज में इन दोनों प्रकार के जीवन की अपेक्षा होती है। अतएव यथार्थवाद के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य अच्छा जीवन होता है जिसमें पूर्णता, सुख, विकास, वैभव, आराम आदि सभी पाया जाता है। ऐसा ही जीवन आज के युग में वांछनीय होता है। इस आधार पर ऐसा उद्देश्य सही कहा जा सकता है।

कमीनियस एक पाश्चात्य यथार्थवादी प्रतिनिधि है। इसके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य हैं:-सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति, भौतिक समृद्धि की प्राप्ति, ईश्वर-प्राप्ति या आत्मबोध, नैतिक, पवित्र, सद्गुणी जीवन की प्राप्ति, गुणज्ञान-क्रिया की समरसता तथा सफल जीवन व्यतीत करना। भारतीय परिप्रेक्ष्य में हम कोठारी शिक्षा आयोग के द्वारा दिये गये शिक्षा के उद्देश्यों को यथार्थवादी दृष्टि से देख सकते हैं जो कमीनियस के उद्देश्यों से मिलते-जुलते हैं:-

(क) व्यावसायिक, वैज्ञानिक एवं उत्पादनात्मक विकास ।

(ख) सामाजिक एवं राष्ट्रीय भावना का विकास तथा राष्ट्रीय एकता की स्थापना।

(ग) जनतांत्रिक जीवन एवं व्यवस्था का स्थायित्व ।

(घ) अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास तथा आधुनिक ज्ञान और उपकरण की उपलब्धि।

(ङ) चरित्र का निर्माण तथा सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को धारण करना।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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