जैव विविधता की परिभाषा

जैव विविधता की परिभाषा । जैव विविधता की आवश्यकता | Definition of biodiversity in Hindi | Biodiversity requirement in Hindi

जैव विविधता की परिभाषा । जैव विविधता की आवश्यकता | Definition of biodiversity in Hindi | Biodiversity requirement in Hindi

जैव विविधता की परिभाषा

सामान्य रूप से वैज्ञानिक भाषा में किसी भी स्थान प्रदेश या देश के प्राकृतिक परिवेश (स्थानीय, जलीय और वायुमण्डलीय) में पाये जाने वाले पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं की विभिन्न प्रजातियों को जैव-विविधता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पृथ्वी पर उपलब्ध जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों की लाखों-करोड़ जातियों, प्रजातियों, नदियों, झीलों, समुद्रों, वन क्षेत्रों सभी को मिलकर जैव-विविधता कहते हैं। जैव-विविधता एक प्राकृतिक संसाधन है जो हमें सुरक्षा प्रदान करती है। जैव-विविधता का अभिप्राय जीवन की उन विविध रचनाओं से है जो हमारे चारों ओर दिखाई देती हैं। अर्थात इसका अर्थ जीव-जन्तुओं, वनस्पत्तियों की विभिन्न प्रजातियों, विभिन्न स्रोतों, पारिस्थितिकीय जटिलताओं और पारित्रों की जीवित रचनाओं में विभिन्नता से है।

जैव-विविधता जीवन का आधार है और यही पर्यावरण में समय के साथ होने वाले धीमे और तीव्र परिवर्तनों के विरुद्ध लड़ने के लिए जैविक पदार्थ उपलब्ध कराती है। जैव-विविधता लम्बे समय से चली आ रही लगातार चलने वाली विकास की जैविक प्रक्रिया की देन है। पृथ्वी पर लगभग 335 लाख जीव प्रजातियाँ हैं जिनमें से लगभग 14 लाख प्रजातियों के विषय में ज्ञान उपलब्ध है। इनमें लगभग 41,000 रीढ़धारी, 7,50,000 कीड़े-मकोड़े और ढाई लाख पेड़-पौधे और शेष में शैवाल कवक व अन्य सूक्ष्मजीवी और बिना रीढ़ वाले जन्तु सम्मिलित हैं। इनमें जीवों की अपनी-अपनी जगह उपयोगिता है कोई भी जीव बेकार नहीं है। सभी की अपनी-अपनी अलग-अलग भूमिका होती है जो पृथ्वी को जीवन्त बनाए रखने में अपना योगदान देती है और प्रकृति को संतुलित रखती है। जितना महत्त्व सूक्ष्म जीवों (जैसे विषाणु, जीवाणु, कवक आदि) का है उतना ही महत्व बड़ी-बड़ी प्रजातियों का होता है। विविध प्रकार के जीवों के कारण ही पृथ्वी पर जीवन है जिसमें सभी जीवों का अपना-अपना योगदान है। विभिन्न प्रकार के खाद्यान्न; जैसे-गेहूँ, धान, दलहन, तिलहन, विभिन्न सब्जियाँ और फल कपड़ों के लिए रूई, घर, फर्नीचर और जलाने के लिए लकड़ी, दवाएँ, मांस, चमड़ा, दूध, घी, मक्खन, झण्डे आदि सब कुछ जैव-विविधता की ही देन है।

संसार में अन्य प्राकृतिक संसाधनों की तरह अनेक प्रजातियाँ भी असमान रूप में उपलब्ध हैं। यह पाया गया है कि ध्रूवों से भूमध्यरेखा की ओर आने पर प्रजातियों की संख्या में कई गुना वृद्धि पायी जाती है। गर्म प्रदेशों में  शुद्ध जल में पाए जाने वाले कीड़े-मकोड़ों की संख्या ठंडें प्रदेशों की अपेक्षा 3-6 गुना अधिक होती है। कम ऊँचाई वाले स्थानों पर पेड़-पौधों की अधिकतम प्रजातियाँ उपलब्ध होती हैं। गर्म स्थानों पर भी पेड़-पौधों की अधिक प्रजातियाँ पायी जाती है। गर्म प्रदेशों में स्तनधारियों की संख्या प्रति इकाई क्षेत्रफल अधिक होती है।

जन्तुओं और वनस्पतियों में अन्तःनिर्भरता होती है यदि एक का हलास होता है तो दूसरे पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और उसका अस्तित्व भी खरते में पड़ जाता है। हमारे चारों ओर पाये जाने वाली सभी प्राणी (जन्तु एवं पेड़-पौधे) पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखते हैं। जिसके फलस्वरूप सृष्टि में सृजन कार्य चलता रहता है। जन्तओं के लिए पेड़-पौधे और पेड़-पौधों के लिए जन्तु आवस्यक होते हैं यहाँ तक कि जीवन के लिए जन्तओं के लिए दूसर जन्तु और वनस्पतियों के लिए दूसरे पेड़ पौधे आवश्यक होते हैं। इस प्रकार सभी पारिस्थितिकी संतुलन बनाये रखने में अपनी-अपनी भूमिका निभाते है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि सृष्टि को उचित ढंग से बनाये रखने के लिए अनेक प्रकार के जीवों और वनस्पतियों का अस्तित्व में रहना बहुत आवश्यक है अर्थात जैव-विविधता हमारे लिए अनिवार्य आवश्यकता है।

परिभाषा

“जैव-विविधता एक समूहवाची शब्द है जिसमें पृथ्वी के सभी प्रकार के सजीव प्राणी, पेड़-पौधे, सूक्ष्म जीव समाहित हैं। वस्तुतः इनमें प्रजातियों के अन्दर, प्रजातियों के बीच, तथा पारितंत्र की विविधताएँ सम्मिलित हैं।”

“जैव-विविधता से तात्पर्य समस्त स्रोतों, भूमि, समद्र, जलीय पारितंत्र व पारितंत्र समूहों में उपलब्ध प्राणी वर्ग की उस पारस्परिक क्रियाशीलता से है जिसके वह अंग हैं, इसमें प्रजातियों में अन्दर ही अन्दर, प्रजाति और पारितंत्र के मध्य विविधता सम्मिलित है।

“जैव-विविधता” का अर्थ है जीवधारियों (जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों व वनस्पतियों की) में विभिन्नता अर्थात् उनके विभिन्न प्रकार ।

“किसी विशेष स्थान एवं परिवेश में पाये जाने वाले जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों की प्रजातियों को सामूहिक रूप से उस स्थान विशेष की जैव-विविधता और जैविक पर्यावरण का बोध होता है। जीवों की विषमता का अर्थ है उनकी शारीरिक रचना, भौतिक पारिस्थिति एवं अनुवांशिक विशेषताएँ। जीवों का जीवनरूप और उनका क्षेत्र उनकी जैविक परिभाषा को प्रकट करता है।”

ये विविधता अनायास ही उत्पन्न नहीं हो जाती। इसके निर्माण में लाखों-करोड़ों वर्षों का समय लगता है। भारत एक विशाल देश है इसमें अत्यधिक जैव- विविधता पायी जाती है और भारत का विश्व के बारह अत्यधिक जैव-विविधता वाले देशों में महत्वपूर्ण स्थान है।

जैव-विविधता की आवश्यकता (Need of Biodiversity)

जैव-विविधता प्रकृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। इससे पृथ्वी पर जीवों के जन्म और विकास का बोध होता है और उनकी जैविक प्रक्रिया के वैज्ञानिक आधार का पता चलता है। जैव-विविधता को अनेक कारक प्रभावित करते हैं । किसी स्थान के जीवधारी के स्वास्थ्य और जीवन-यापन का बोध जैव-विविधता से होता है।

जैव-विविधता पारिस्थितिकी विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसकी आवश्यकता निम्नलिखित क्षेत्रों में होती है-

  1. पारिस्थिकी संतुलन बनाये रखते के लिए संचयीकरण तथा भंडारण के लिए।
  2. राष्ट्रीय अनुवांशिकता को बनाये रखने के लिए।
  3. व्यक्तियों की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए।
  4. व्यक्तियों की आवश्यकता पूर्ति के लिए आपस में आन्तरिक सम्बन्ध बनाये रखने के लिए।

जैव-विविधता की आवश्यकता का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-

  1. सभी जीवधारियों (मानव, जीव-जन्तु पेड़-पौधों) में निकट का पारस्परिक सम्बन्ध एवं निर्भरता है जिससे पारिस्थितिकी संतुलन बना रहता है। जब पारस्परिक सम्बन्ध कम होने लगता है तब पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ने लगता है। प्रत्येक जीवधारी का अपना स्थान, कर्त्तव्य व विशिष्ट महत्व है। सभी जीवों में आन्तरिक निर्भरता होती है और इस संवेदनशील संबंधों के लिए मानव एक महत्वपूर्ण कड़ी होता है जब यह कड़ी टूटने लगती है तो स्वयं मनुष्य के लिए समस्या उत्पन्न होने लगती है इसलिए कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकी संतुलन बनाये रखने के लिए जैव-विविधता की आवश्यकता होती है।
  2. मनुष्य तथा सभी जीवधारी विकास प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं इसलिए मनुष्य को विकास प्रक्रिया तथा जीव-विज्ञान की परिस्थितिकी तंत्र का ज्ञान होना चाहिए। जैव-विविधता का ज्ञान विकास प्रक्रिया को समझने में सहायक होता है। जीवन की रक्षा और विकास की प्रक्रिया के लिए जैव-विविधता का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
  3. प्रत्येक जीवधारी का पारस्थितिकी तंत्र में अपना स्थान होता है जिससे उसके स्तर का अनुरक्षण होता है। जीवधारियों के सम्बन्धों में परिवर्तन होने से पारिस्थितिकी तंत्र बदल जाता है और मानव का पर्यावरण भी बदल जाता है और मानव-जीवन को प्रभावित करता है जिसका अनुभव कभी-कभी वह नहीं कर पाता है।
  4. उच्च-कोटि की फसल के लिए उत्तम प्रकार का बीज व खाद की आवश्यकता होती है। नवीन प्रकार की फसल के सृजन के लिए आनुवांशिक विषमता की आवश्यकता होती है। नवीन फसल का सृजन ओर उच्चकोटि की फसल उत्पादकता भी पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर करती है, उसी के अनुसार फसल का चयन करना चाहिए।
  5. पर्यावरण की भौतिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों (वायुमण्डल, जलमण्डल और भूमण्डल) के विकास और अनुरक्षण के लिए जैव-विविधता की सहायता की आवश्यकता होती है।
  6. जैव-विविधता का सीधा सम्बन्ध जीवन की गुणवत्ता से होता है।
  7. हवा, पानी और भूमि की गुणवत्ता में किसी प्रकार के परिवर्तन के कारण जीवधारियों के व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है जिसका संकेत कुछ जीवधारी देते हैं। पारितंत्र के परिवर्तन से समुदाय के स्वरूप और कायों में परिवर्तन होने लगता है जो मानवीय, आर्थिक, मनोरंजन और सौन्दर्यानुभूति की दृष्टि से जैविक विषमता की अधिक आवश्यकता होती है।
  8. सांस्कृतिक, आर्थिक, मनोरंजन और सौन्दर्यानुभूति की दृष्टि से जैविक विषमता की अधिक आवश्यकता होती है।
  9. पर्यावरण के घटकों में एवं राष्ट्रों के सम्बन्धों को सशक्त करने में तथा मानवीय शान्ति के लिए जैव-विविधता की आवश्यकता होती है।
  10. पर्यावरण के आर्थिक और सामाजिक लाभ की दृष्टि से जैव-विविधता की आवश्यकता होती है।

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