पर्यावरण के विभिन्न घटक । पर्यावरण के विभिन्न रूप | Various components of the environment in Hindi | Different forms of the environment in Hindi
पर्यावरण के विभिन्न घटक । पर्यावरण के विभिन्न रूप | Various components of the environment in Hindi | Different forms of the environment in Hindi
पर्यावरण के विभिन्न घटक – पर्यावरण के अवयव या घटक क अन्तर्गत स्थलमण्डल जलमण्डल, वायुमण्डल एवं जैवमण्डल आते हैं। जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नवत है-
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स्थल मण्डल (Lithosphere)
पृथ्वी के ऊपर की वह ठोस परत, जो अनेक प्रकार की चट्टानों, मिट्टियों एवं अन्य ठोस पदार्थों से मिलकर बनी है, स्थल मण्डल के नाम से पुकारी जाती है। इसके ऊपर हमारे महाद्वीप एवं समुद्री भाग स्थित है। महाद्वीप क्षेत्रों में यह सर्वाधिक मोटा है, जहाँ इसकी अधिकतम ऊँचाई 10 से 12 किमी. तक हो सकती है। यह पृथ्वी के सम्पूर्ण आयतन का लगभग 1 प्रतिशत और उसके कुल द्रव्यमान का 0.4 प्रतिशत है।
यद्यपि स्थल मण्डल में तकनीकी दृष्टि से भूमि भाग और समुद्री तल दोनों को ही शामिल किया जाता है, फिर भी अक्सर इसका प्रयोग केवल भूमि तल दर्शाने के लिए ही किया जाता है। इस दृष्टि से स्थल मण्डल सम्पूर्ण पृथ्वी का केवल 3/10 भाग है, शेष 7/10 भाग समुद्र ने ले लिया है।
भूमि तल पर चट्टानी दृश्यांश वाले भागों को छोड़कर, शेष सम्पूर्ण भाग बालू या मृदा है। समस्त बालू और अधिकांश मृदा जो हमें आज दिखायी पड़ती है, वह प्राचीन चट्टानों से उत्पन्न हुई है। मूल रूप से स्वयं चट्टानें गलित मैग्मा से बनी थीं, जो पृथ्वी के भीतरी भाग से फुटकर निकला था। पृथ्वी की शक्तिशाली हलचलों में कुछेक चट्टानों को ऊपरी सतह तक उठा दिया, जहाँ उन पर जलवायवी प्रभाव पड़े। चट्टानों को टूटकर बालू बनने की जो प्रक्रिया है, भूविज्ञान में ‘अपक्षयण’ कहलाती है। चट्टान अपक्षयण में बहुत से घटक काम करते हैं, जिनमें स्वयं ‘जलवायु’ अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
जब सूर्य द्वारा अत्यधिक तप्त चट्टानें वर्षा से अचानक ठण्डी होती है, तो वे चटक कर टूट जाती है। जब यही प्रक्रिया हजारों वर्षों तक चलती रहती है, तब बड़ी-बड़ी चट्टानें चूर-चूर होकर बालू बन जाती है। इसी प्रकार पाला भी चट्टानों को तोड़ सकता है। चटकी चट्टानों की दरार में फंसा हुआ पानी सर्दी पड़ने पर हिम का रूप धारण कर लेता है और फैल जाता है। यह दबाव अक्सर चट्टानों को तोड़ देता है। इनके साथ अन्य संयोगों से मिलकर भूमि की उस रूप में रचना हुयी है, जिस रूप में आज हम देखते हैं।
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दृश्य भूमि की आकृतियाँ स्थल मण्डल की चट्टानी उप रचना में निर्धारित होती है। भूवैज्ञानिक दृष्टि से कहा जाय, तो वे सभी पदार्थ जिनसे पृथ्वी पटल का निर्माण हुआ है, चट्टानें कहलाती हैं, चाहे वे ग्रेनाइट गोलांश्म की हो, दाह्य कोयला की हों, चिकनी मिट्टी की हों या बालू कंकड़ के अदृढ़ खण्ड हों।
स्थल मण्डल को बाहरी जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया जाता है। हम जानते हैं कि पृथ्वी का ऊपरी भाग अर्थात् इसका दृश्य धरातल, विगत काल में आमूल-चूल परिवर्तनों का शिकार हुआ है। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि हजारों वर्षों के दौरान, पृथ्वी के शीतलन एवं संकुचन के परिणामस्वरूप इसमें इतने सारे परिवर्तन हुए हैं।
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जल मण्डल (Hydrosphere)
पृथ्वी के स्थल मण्डल के नीचे के भाग में स्थित जल से भरे भाग; जैसे-झील, सागर, महासागर आदि को जल मण्डल कहा जाता है। अनुमान है कि जल मण्डल में लगभग 1,460,000,000 घन किमी पानी है। इसमें से 97.3 प्रतिशत महासागरों और अन्तर्देशीय सागरों में है। शेष 2.7 प्रतिशत हिमनदों और बर्फ टोपों, मीठे जल की झीलों, नदियों और भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है।
महासागरीय जल और मीठे जल का कुल भण्डारण, भू-वैज्ञानिक इतिहास में हमेशा ही बिल्कुल स्थिर रहा है। लेकिन महासागरीय और मीठे जल का अनुपात, जलवायु की दशाओं के अनुसार हमेशा बदलता रहा है। जब जलवायु अत्यधिक शीत होती है, तो बहुत-सा समुद्री जल हिमनादियों और बर्फ टोपों द्वारा अवशोषित हो जाता है तथा समुद्री जल की कमी के कारण मीठे जल का परिमाण बढ़ जाता है। जब जलवायु गर्म हो जाती है, तो हिमनद और बर्फ टोपों के पिघलने से मीठे जल की कमी के कारण समुद्री जल की मात्रा बढ़ जाती है। पिछले 60 से 80 वर्षों के दौरान किये गये समुद्र स्तर पर प्रेक्षण यह दर्शाते हैं कि समुद्री जल धीरे-धीरे बढ़ रहा है। इसका अर्थ यह है कि जलवायु गर्म होती जा रही है।
महासागर पृथ्वी के कुल धरातल क्षेत्रफल के 70.8 प्रतिशत भाग को आच्छादित किये हुए हैं और इनमें 144.5 करोड़ धन किमी. पानी है।
सौर ताप महासागर के जल को गतिशील रखता है। भूमध्य रेखीय क्षेत्रों में सूर्य पानी को गर्म कर देता है, जिससे यह फैलकर कुछ इंच ऊपर उठ जाता है। भूमध्य रेखा में यह अतिरिक्त उठान पानी को नीचे उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों की ओर बहने के लिए प्रेरित करता है। चूँकि भूमध्य रेखा का गर्म पानी उत्तर और दक्षिण की ओर पहता है, अतः ध्रुवीय क्षेत्रों में ठण्डा पानी भारी (क्योंकि पानी में अत्यधिक संघनन होता है) गर्म जल के नीचे चला जाता है और तल के साथ-साथ धीरे धीरे भूमध्य रेखीय क्षेत्रों तक फैल जाता है।
इस अन्तः प्रवाह में पृथ्वी की घूमने की शक्ति के कारण उलझाव पैदा हो जाता है। चूँकि पृथ्वी पूर्व की ओर चक्कर लगाती है, इसलिए समुद्र का पानी पश्चिम की ओर आने के लिए प्रेरित होता है और वह उत्तरी गोलार्द्ध में थोड़ा दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में थोड़ा- सा बायीं ओर मुड़ जाता है। यह फ्रांसीसी गणितज्ञ के नाम पर ‘कोरि आलिस’ प्रभाव के रूप में जाना जाता है, जिसने एक सौ वर्ष पहले इसकी खोज की थी।
महाद्वीपों के विपरीत महोसागर एक-दूसरे में इतने स्वाभाविक रूप से विलीन हो जाते हैं कि उनके बीच की सीमा का निर्धारण करना कठिन हो जाता है। फिर भी भूगोलवेत्ताओं ने महासागरीय क्षेत्र को चार महासागरों-प्रशान्त महासागर, अटलांटिक महासागर, हिन्द महासागर और आर्कटिक महासागर में विभाजित किया है। परिभाषा के अनुसार इन महासागरों में सागर, उप-सागर, खाड़ियाँ तथा अन्य उनसे संलग्न महासागरीय प्रवेश द्वार भी शामिल है।
महासागरों में सबसे बड़ा आर सबसे पराना प्रशान्त महासागर हैं। पृथ्वी के क्षेत्रफल के 35.25 प्रतिशत भाग पर यह फैला है। इसकी सर्वाधिक चौड़ाई 16.880 किलोमीटर और सर्वाधिक गहराई 11,516 मीटर (मिडावाओं दीप) है । इसमें द्वीपों का सर्वाधिक संगुटीकरण है, जो मोटे तौर पर तीन समूहों में है-माइक्रोनेशिया, मेलानेशिया और पॉलीनेशिया।
अटलांटिक महासागर दूसरा सबसे बड़ा महासागर है, जो पृथ्वी के क्षेत्रफल के 20.9 प्रतिशत भाग को घेरे हैं। इसकी सर्वाधिक गहराई 8, 381 फीट (मिलवाकी दीप) है ।
हिन्द महासागर तीसरा सबसे बड़ा महासागर है, जो भारत में कन्याकुमारी से दक्षिणी ध्रुव एंटार्किटा तक फैला है। यह पृथ्वी के कुल धरातल क्षेत्र के 14.65 प्रतिशत भाग में है। इसकी सर्वाधिक गहराई 7,725 मीटर (प्लैनेट दीप) है।
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वायु मण्डल (Atmosphere)
भूमण्डल का तीसरा मण्डल वायु मण्डल है। स्थल मण्डल एवं जल मण्डल के चारों ओर गैस जैसे पदार्थों का एक आवरण है, जिसमें नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन डाइ-ऑक्साइड एवं अन्य गैसे, मिट्टी के कण, पानी की भाप एवं अन्य अनेक पदार्थ मिले हुए हैं। इन सभी पदार्थों के मिश्रण से बने आवरण को वायु मण्डल के नाम से पुकारा जाता है। स्थल मण्डल एवं जल मण्डल दोनों ही वायु मण्डल से आच्छादित रहते हैं।
वायु मण्डल पृथ्वी की रक्षा करने वाला रोधी आवरण है। यह सूर्य के गहन प्रकाश और ताप को कम करता है। इसकी ओजोन (0,) परत सूर्य से आने वाली अत्यधिक हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अधिकांश सोख लेती है और इस प्रकार जीवों की विनाश से रक्षा करती है।
वायु मण्डल गुरुत्व द्वारा पृथ्वी से बँधा हुआ है। चन्द्रमा जैसा उपग्रह जिसकी गुरुत्व शक्ति बहुत कम होती है, यह वायु मण्डल को धारण नहीं कर सकता।
वायु दबाव का सीधा और सरल अर्थ है-किसी दिये बिन्दु पर सम्पूर्ण वायु का भार पड़ना। निश्चय ही हवा का भार बहुत कम होता है। एक घन लीटर का एक साथ हवा का भार लगभग 1.3 ग्राम होता है। समुद्र तल पर हवा का दबाव 1033.6 वर्ग सेमी. होता है।
वायु मण्डल में विभिन्न गैसे और जलवाष्प होती है और अपने सर्वाधिक ऊपरी भाग में यह परमाण्विक कण्णों से आवेशित होते हैं। पृथ्वी से 50 किलोमीटर की दूरी तक वायु मण्डल में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन (0,) और निम्न प्रतिशत में आर्गन, कार्वन-डाइई-ऑक्साइड, निऑन, हीलियम और मीथेन इसी क्रम में विद्यमान है। तीस मील से ऊपर वायुमण्डल परमाण्वीय ऑक्सीजन (O,), ओजोन (O,) हीलियम और हाइड्रोजन से बना हुआ है।
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जैव मण्डल (Biosphere)
जैव मण्डल की सर्वप्रथम संकल्पना लगभग एक सौ साल पहले आस्टियन भू-वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने की थी। उस समय इस धारणा को विशेष महत्व नहीं दिया गया, परन्तु आज जैव मण्डल मानव के सम्मुख सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्या बन गया है।
जैव मण्डल का विशिष्ट अभिलक्षण यह है कि यह जीवन को आधार प्रदान करता है। अनुमान है कि जैव मण्डल में शैवाल, फंगस और काइयों से लेकर उच्चतर किस्म के पौधों की साढ़े तीन लाख जातियाँ हैं तथा एक कोशिकीय प्राणी प्रोटोजोआ से लेकर मनुष्य तक एक करोड़ दस लाख प्रकार की प्राणि-जातियाँ इसमें सम्मिलित हैं। जैव मण्डल इन सभी के लिए आवश्यक सामग्री; जैसे-प्रकाश, ताप, पानी, भोजन तथा आवास की व्यवस्था करता है।
जैव मण्डल या पारिस्थितिकी व्यवस्था, जैसे कि यह सामान्यतयाः जानी जाती है, एक विकासात्मक प्रणाली है। इसमें अनेक प्रकार के जैविक और भौतिक घटकों का सन्तुलन बहुत पहले से ही क्रियाशील रहा है। जीवन की इस निरन्तरता के मूल में अन्योन्याश्रित सम्बन्धों का एक सुघटित तन्त्र काम करता है। वायु, जल, मनुष्य, जीव-जन्तु, वनस्पति, प्लवक, मिट्टी और जीवाणु ये सभी जीवन-धारण प्रणाली में अदृश्य रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और यहीं व्यवस्था पर्यावरण कहलाती है। पारिस्थितिकी तन्त्र या पर्यावरण की अपनी लय और गति होती है, जो नाजुक रूप से सन्तुलित आवर्तनों के सम्पूर्ण सेट पर आधारित है। सभी जीवाणु, पेड़-पौधे, पशु वर्ग और मनुष्य, ये सभी पर्यावरण के साथ स्वयं अपना समायोजन करके और उसकी लय के साथ अपने जीवन को सुव्यवस्थित करने के कारण आज तक जीवित है। इसलिए यह नितान्त आवश्यक है कि इन आवर्तनों को अक्षुण्ण बनाये रखा जाय।
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