सांस्कृतिक कारक के सम्बन्ध में सोरोकिन के विचार

सांस्कृतिक कारक के सम्बन्ध में सोरोकिन के विचार | सामाजिक, सांस्कृतिक तथा औद्योगिक गतिशीलता

सांस्कृतिक कारक के सम्बन्ध में सोरोकिन के विचार | सामाजिक, सांस्कृतिक तथा औद्योगिक गतिशीलता | Sorokin’s views regarding cultural factor in Hindi | Social, cultural and industrial experts in Hindi

सांस्कृतिक कारक के सम्बन्ध में सोरोकिन के विचार

(Sorokin Views Regarding Cultural Factors)

सोरोकिन ने अपनी पुस्तक “Social & Cultural Dynamics” सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उन्होंने मार्क्स, पेरेटों, वेबलिन तथा स्पेंगलर के सिद्धान्तों की आलोचना की और कहा कि सामाजिक परिवर्तन न तो चक्रीय ढंग से होता है और न ही समाज के निरन्तर एक दिशा में विकसित होने से अथवा रेखीय क्रम में होता है। उनका मत है कि सामाजिक परिवर्तन विकसित होने से अथवा रेखीय क्रम में होता हैं, उनका मत है कि सामाजिक परिवर्तन के उतार-चढ़ाव के रूप में घड़ी का पेण्डुलम की भाँति एक स्थिति से दूसरी स्थिति के बीच होता रहता है। सारोकिन ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करने में गहन अध्ययन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि समाज और संस्कृति की कोई प्रगति नहीं हुई है, जो कुछ भी हुआ है वह केवल मात्र संस्कृति के बुनियादी स्वरूपों का उतार-चढ़ाव है, शक्ति के केन्द्रीकरण का उतार-चढ़ाव है तथा आर्थिक अवस्थाओं का उतार-चढ़ाव मात्र है, इस प्रकार सोरोकिन के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का रहस्य विभिन्न प्रकार की संस्कृतियों के उतार-चढ़ाव में निहित है। उन्होंने प्रमुख रूप से दो संस्कृतियों, चेतनात्मक एवं भावनात्मक का उल्लेख किया है। प्रत्येक समाज संस्कृति की इन दो धुरियों के बीच घूमता रहता है अर्थात् चेतनात्मक से भावनात्मक की ओर तथा भावनात्मक से चेतनात्मक की ओर आता जाता रहता है। एक स्थिति से दूसरी स्थिति की ओर जाने के दौरान मध्य में एक स्थिति ऐसी भी होती है जिसमें चेतनात्मक और भावनात्मक संस्कृति का मिश्रण होता हैं ऐसे सोरोकिन आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं विभिन्न संस्कृतियों के दौरान से गुजारने पर समाज में भी परिवर्तन आता है। अर्थात् समाज के विज्ञान धर्म, दर्शन, कला, नैतिकता, साहित्य, अर्थव्यवस्था, राजनीति तथा सामाजिक सम्बन्ध भी बदल जाते है। सोरोकिन चेतनात्मक संस्कृति को भावनात्मक की अपेक्षा अधिक जटिल मानते है। सोरोकिन के आध्ययन का विषय संस्कृति क्या है। इसे ज्ञात करना नहीं वरन यह रहा है कि सांस्कृतिक परिवर्तन पर उनकी प्रकृति किस प्रकार है, उनकी दिशा तथा भविष्य में उनका रूप क्या हो सकता है। सोरोकिन के सांस्कृतिक परिवर्तन के सिद्धान्त को समझने के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत संस्कृति के तीन रूपों चेतनात्मक, भावनात्मक तथा आदर्शात्मक की विशेषताओं को समझना होगा।

(1) चेतनात्मक संस्कृति (Sensate Culture)- चेतनात्मक संस्कृति को हम भौतिक संस्कृति भी कहते है। इस संस्कृति का सम्बन्ध मानव चेतना तथा इन्द्रियों से होता है। अर्थात् चेतनात्मक संस्कृति के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं का ज्ञान उन्हें देखकर, सूंघकर, छूकर सुनकर या स्वाद लेकर कर सकते है।

(2) भावनात्मक संस्कृति (Ideational Culture)- यह चेतनात्मक संस्कृति के बिल्कुल विपरीत होती है। इसका सम्बन्ध शारीरिक, भौतिक और इन्द्रिय सुखों में वृद्धि करने से नहीं होता है वरन् भावना ईश्वर, धर्म, आत्मा विचार और नैतिकता से होता है। इसमें भौतिक प्रगति के स्थान पर मानसिक और आध्यात्मिक प्रगति का अधिक आध्यात्मिक संस्कृति भी कह सकते है। इस संस्कृति में सभी वस्तुओं को ईश्वर कृपा का फल माना जाता है।

(3) आदर्शात्मक संस्कृति (Idealistic Culture)- यह संस्कृति चेतनात्मक एवं भावनात्मक दोनों का मिश्रण होती है, अतः इसमें दोनों संस्कृतियों की विशेषताएँ पायी जाती हैं सोरोकिन का मत है कि जब कोई सांस्कृतिक व्यवस्था चेतनात्मक से भावनात्मक की ओर अथवा भावनात्मक से चेतनात्मक की ओर जाती है तो इसे ही आदर्शात्मक संस्कृति कहा जाता है।

समालोचना- सोरोकिन अपने सिद्धान्त को वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया है। फिर भी उसमें कई कमियाँ है, जैसे (1) संस्कृति को एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुँचाने में इतना लम्बा समय लग जाता है कि इस आधार पर सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति को प्रकट करना कठिन है। (2) ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इस बात को सिद्ध करना सम्भव नहीं है। कि सभी समाज पर एक प्रकार की संस्कृति से दूसरे प्रकार की संस्कृति के बीच परिवर्तन के दौर गुजरते हैं। (3) सोरोकिन सांस्कृतिक परिवर्तन के कारकों को भी स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं। यह कह देना कि परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से होता है एक वैज्ञानिक के लिए पर्याप्त नहीं है।

सामाजिक, सांस्कृतिक तथा औद्योगिक गतिशीलता

सामाजिक गतिशीलता (Social Mobiltiy) सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती हैं। सामाजिक गतिशीलता दो प्रकार की होती है।

  1. क्षैतिज गतिशीलता (Horizontal Mobility)
  2. लम्बवत् गतिशीलता (Vertical Mobility)

आधुनिकीकरण के लिए भी यह आवश्यक है कि सामाजिक गतिशीलता की मात्रा में वृद्धि हो। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी सामाजिक विकास में सहायक होती है। भारतवर्ष में जहाँ केवल क्षैतिज गतिशीलता पायी जाती थी। अब लम्बवत् गतिशीलता भी देखने को मिल रही है। लोग अपने अर्जित गुणों में वृद्धि करके उच्च अर्जित प्रस्थिति (Higher Achieved Status) प्राप्त कर रहे हैं, जिसके कारण लम्बवत् गतिशीलता स्वाभाविक है। व्यावसायिक गतिशीलता भी सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देती है। जिससे सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।

औद्योगिक गतिशीलता-

सामाजिक विकास के लिए औद्योगीकरण एक आवश्यक दशा है। यही कारण है कि आज सभी राष्ट्र औद्योगीकरण के लिए प्रयत्नशील है। विकसित समाजों में राष्ट्रीय आय में वृद्धि का मूल कारण औद्योगीकरण बताया जाता है। यही कारण है कि अब विकासशील देश भी औद्योगीकरण की प्रक्रिया को तेज करने में लगे हुए है। किसी भी समाज में औद्योगीकरण को अपनाने का कारण औद्योगिकरण के उद्देश्यों को प्राप्ति होता है।

औद्योगीकरण का कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् है।

(1) उत्पादन की मात्रा को बढ़ाना

(2) राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि

(3) रहन-सहन के स्तर को ऊंचा करना

(4) समाज से गरीबी तथा अन्य ऐसी समस्याओं को दूर करना

(5) समाज के परम्परागत रूढ़िगत विचारों तथा अन्धविश्वासों को दूर करना इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भारतवर्ष में भी 1956 ई. से ही औद्योगीकरण की प्रक्रिया को तेज करने का प्रयास किया जा रहा है।

सांस्कृतिक गतिशीलता-

भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को परिणामतः परम्परागत भारतीय संस्कृति पर भी विभिन्न प्रभाव पड़े। इन प्रभावों के ही कारण मूल्य व्यवस्था में परिवर्तन आये। समाज में धर्मान्धता और धार्मिक कट्टरता की अपेक्षा धर्मनिरपेक्षता या जैविकतावादी विचारों का प्रसारण और प्रचलन हुआ। समाज की संस्कृति एवं धार्मिक संस्थाओं का स्वरूप भी बदलने लगा। विभिन्न परम्परागत विश्वास एवं व्यर्थ की प्रथाओं को त्याग दिया गया। मध्यम वर्ग के उदय के सांस्कृतिक मूल्यों में भारी परिवर्तन कर डाला। उपरोक्त विवेचन के आधार पर अन्त में यह कहा जा सकता है कि आधुनिकीकरण भारतीय संस्कृति को भी प्रभावित किया है।

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