संघों के केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति | संघों में केन्द्रीयकरण के कारण
संघों के केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति | संघों में केन्द्रीयकरण के कारण
संघों के केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति
(Growing Trend of Centralisation in Federations)
वर्तमान समय में विश्व के प्रायः सभी संघ-राज्यों में केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में अनवरत वृद्धि हो रही है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैण्ड आदि पुराने संघ-राज्यों में भी आधुनिक प्रवृत्ति केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि करने की है। आज राजनीतिक क्षेत्रों में यह कहा जाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में एक केन्द्रीभूत प्रजातन्त्र (Centralised Democracy) स्थापित हो गया है। स्विस-संविधान ने परिसंघ को वास्तव में ऐसा रूप दे दिया है। भारतीय संघ के विषय में यह धारणा परिपक्व होती जा रही है कि 1967 से 1971 तक शक्ति सन्तुलन राज्यों की ओर झुका हुआ था, अन्यथा इससे पूर्व और बाद में वह केन्द्राभिमुख ही है। आधुनिक समाज में लगभग सभी प्रवृत्तियाँ केन्द्रीकरण की दिशा में संगठित हो रही हैं। लिओनार्ड (Leonard) ने तो यहाँ तक कह दिया है कि “भविष्य की चौथाई शताब्दी में राज्य खोखले बन जायेंगे और वे मुख्यतः संघीय विभागों के ग्रामीण जिलों के रूप में कार्य करेंगे तथा अपने भरण-पोषण के लिए संघीय कोष पर निर्भर रहेंगे।”
संघों में केन्द्रीयकरण के कारण
इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- युद्ध- केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति के विकास में युद्धों ने विशेष सहयोग दिया है। युद्धकाल में जिस संगठित शक्ति और निश्चित नेतृत्व की प्रबल आवश्यकता होती है वह संघीय सरकार द्वारा ही सम्भव है। युद्धकाल में राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।
- मौलिक विकास- संघात्मक संविधान लिखित होते हुए भी परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप सदैव विकसित होते रहते हैं।
- आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तन- आजकल व्यापारिक निगमों की स्थापना, श्रमिक संघों के विस्तार आदि के कारण श्रम, उत्पादन, वितरण आदि सभी केन्द्रीय विषय बन गए हैं। प्रान्तीय सरकारों की तुलना में हर प्रकार से अधिक सक्षम होने के कारण इन विषयों से केन्द्रीय सरकार ही भली प्रकार निपट सकती है। जनसंख्या की वृद्धि तथा आर्थिक एवं सामाजिक संगठनों की जटिलताएँ केन्द्रीय सरकार की शक्ति में विकास के लिए अधिकाधिक उत्तरदायी बनती जा रही हैं। राष्ट्रीय उद्योगों तथा विभिन्न आर्थिक संकटों को सुलझाना राज्य सरकारों के वश की बात नहीं रही है; अतः केन्द्र इनसे सम्बन्धित शक्तियों को अपने हाथ में लेता जा रहा है। परिवर्तित आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में लोग यह अनुभव करने लगे हैं कि भारत या अमेरिका जैसे विशाल क्षेत्र और जनसंख्या वाले देशों के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार का होना नितान्त आवश्यक है।
- संवैधानिक संशोधन- सांविधानिक संशोधनों ने लगभग सभी संघीय सरकारों की शक्ति के विकास में पर्याप्त सहयोग दिया है। इसके द्वारा केन्द्र सरकार को अधिक शक्ति प्रदान की गयी है।
- न्यायपालिका द्वारा संविधान की उदार व्याख्या- संघीय व्यवस्था में केन्द्र की शक्ति में वृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण न्यायपालिका द्वारा संविधान की उदार व्याख्या तथा वे निर्णय हैं जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर दिये जाते हैं।
- केन्द्र द्वारा वित्तीय सहायता- संघीय इकाइयों के पास शासन चलाने और अपने क्षेत्र की समुचित आर्थिक उन्नति करने के पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं होते। अतः केन्द्रीय सरकार द्वारा इकाई सरकारों को सशर्त सहायता अनुदान दिये जाते हैं जिसका स्वाभाविक परिणाम केन्द्रीय सरकार की शक्ति में वृद्धि होता है। वस्तुत: ज्यों-ज्यों केन्द्रीय सहायता का क्षेत्र बढ़ रहा है, राज्य किसी न किसी रूप में अपनी स्वतन्त्रता खोते जा रहे हैं और वे केन्द्र द्वारा अधिकाधिक नियन्त्रित होते जा रहे हैं।
- व्यवस्थापिका के कानूनी और न्यायिक कार्य- संघीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि का एक अन्य कारण संघीय व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित वे बहुसंख्यक विधियाँ हैं जिन्हें देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रोत्साहन मिला है। न्यायालयों के निर्णय भी अधिकांशतः संघ के पक्ष में रहे और इस प्रकार संघीय केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को बल मिलता रहा है।
- संघ-राज्य-सहकारिता- आज विभिन्न क्षेत्रों में संघ और राज्य सरकारों में निरन्तर सहयोग की वृद्धि हो रही है। इसका परिणाम है—केन्द्र की शक्ति में वृद्धि । राज्य सरकारें धीरे- धीरे अनेक क्षेत्रों में एक सहयोगी संस्था मात्र रह गई हैं।
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