भारत में वनों का वर्गीकरण – भौगोलिक आधार पर वर्गीकरण
भारत में वनों का वर्गीकरण – भौगोलिक आधार पर वर्गीकरण
भारत में 657.6 लाख हेक्टेयर भूमि (22.7%) पर वन पाये जाते हैं, जबकि भारतीय सुदूर संवेदन द्वारा लगाये गये नवीनतम अनुमानों के आधार पर देश में केवल 14% क्षेत्रफल पर ही वनों का विस्तार बताया गया है। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान समय में देश के भौगोलिक क्षेत्रफल के 19.39% भाग पर वनों का विस्तार पाया जाता है। सन् 1952 में निर्धारित ‘राष्ट्रीय वन नीति’ के अनुसार देश के 33.3% क्षेत्र पर वन होने चाहिए। वर्तमान समय में वृक्षारोपण एवं वन-महोत्सव आदि कार्यक्रम इसी दिशा में किये गये प्रयास हैं। देश में वनों का भौगोलिक वितरण बड़ा ही असमान है। भारत के पर्वतीय राज्यों एवं दक्षिणी पठारी राज्यों में वन-क्षेत्र अधिक पाये जाते हैं।
भौगोलिक आधार पर भारतीय वनों का वर्गीकरण
वनों के प्रकार प्राकृतिक पर्यावरण के तत्त्वं पर निर्भर करते हैं। वर्षा की मात्रा, मिट्टी के प्रकार, भूगर्भीय संरचना तथा भूमि की बनावट के आधार पर भारतीय वनों का विभाजन प्रस्तुत किया जा सकता है। भौगोलिक आधार पर वनों के प्रथम चार प्रकार वर्षा की मात्रा के आधार पर तथा शेष पाँच प्रकार वर्षा की मात्रा (जलवायु) के अतिरिक्त मिट्टी आदि अन्य तत्त्वों के आधार पर निर्धारित किये जा सकते हैं। इन वनों के वर्गीकरण का विवरण निम्नवत् है।
- उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन
- उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन या मानसूनी वन
- उष्ण कटिबन्धीय शुष्क वन
- मरुस्थलीय एवं अर्द्ध-मरुस्थलीय वन
- पर्वतीय वन
(1) पूर्वी हिमालय प्रदेश के वन
(2) पश्चिमी हिमालय प्रदेश के वन
- ज्वारीय वन
1. उष्ण कटिबन्यीय सदाबहार वन
इस प्रकार के वन उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 200 सेमी तथा औसत तापमान 24° सेग्रे के लगभग रहता है। पश्चिमी घाट पर 457 से 1,360 मीटर की ऊँचाई के मध्य तथा असोम में 1,067 मीटर की ऊँचाई तक इन वनों का विस्तार मिलता है।
अत्यधिक वर्षा के कारण ये वन सदैव हरे-भरे रहते हैं, परन्तु वर्षा की कमी के कारण अर्द्ध सदाहरित हो जाते हैं। इनके वृक्षों की ऊँचाई 30 से 50 मीटर तक होती है। इनमें कठोर लकड़ी के वृक्ष अत्यधिक होते हैं तथा इन्हें काटना भी कठिन होता है। विभिन्न प्रकार की लताओं, झाड़ियों तथा छोटे-छोटे पौधों की अधिकता के कारण ये वन दुर्गम हो गये हैं इन वनों में अधिकांशत: रबड़, महोगनी, एबोनी, जंगली आम, नाहर, गुरजन, तुलसर, अमलतास, तून, ताड़, बांस, सिनकोना, बेंत, रोजवुड आदि के वृक्ष महत्त्वपूर्ण होते हैं। असोम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, पूर्वी घाट, अण्डमान निकोबार द्वीप समूह आदि पर इस प्रकार के वनों का विस्तार पाया जाता है। ये वन आर्थिक दृष्टि से अनुपयोगी हैं।
2. उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन या मानसूनी वन
ये वन अधिकतर उन भागों में उगते हैं, जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 100 से 200 सेमी के मध्य रहता है। इन्हें ‘मानसूनी वन’ भी कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में इन वनों के वृक्ष अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं जिससे उनकी नमी नष्ट न हो सके। इन वनों के नीचे सघन झाड़-झंखाड़ आदि नहीं पाये जाते हैं, जिस कारण यहाँ बाँस अधिक पैदा होता है; परन्तु बेत, ताड़ तथा लताओं का अभाव रहता है। ये वन भारत के चार क्षेत्रों में मिलते हैं-
- उप-हिमालय प्रदेश में पंजाब से लेकर असोम हिमालय तक बाह्य एवं निचले ढालों पर;
- पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल में;
- दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाट के पूर्व से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल राज्यों में तथा
- दक्षिणी-पूर्वी घाट के ढालों पर।
ये वन व्यापारिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्व रखते हैं। इन वनों का लाख वर्ग किमी है। इन्हें सुरक्षित वनों की श्रेणी में रखा गया है। इन वनों में साल एवं सागौन के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं, जो महाराष्ट्र एवं कर्नाटक राज्यों में अधिक मिलते हैं। शीशम, चन्दन, पलास, हल्दू, ऑवला, शहतूत, बाँस, कत्था आदि अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। वार्निश, चमड़ा रॅगने आदि के उपयोगी पदार्थ भी इन्हीं वनों से प्राप्त होते हैं।
3. उष्ण कटिबन्धीय शुष्क वन
इस प्रकार के वन उन भागों में उगते हैं जिन भागों में वर्षा का औसत 50 से 100 सेमी तक रहता है। जल के अभाव के कारण ये वृक्ष न तो अधिक ऊँचे ही हो पाते हैं एवं न ही हरे-भरे रहते हैं। इन वृक्षों की ऊँचाई केवल 6 से 9 मीटर तक होती है। इन वृक्षों की जड़ें लम्बी एवं मोटी होती हैं जिससे वे भूगर्भ में अधिक गहराई से जल खींच सकें तथा अपने अन्दर संचित रख सकें। इन वनों में अधिकतर नागफनी, रामबाँस, खेजड़ी, बबूल (कीकर), खैर, रीठा, कुमटा, खजूर आदि वृक्ष मुख्य हैं।
उत्तरी भारत में ये वन पूर्वी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कम उपजाऊ भूमि पर उगते हैं। दक्षिणी भारत के शुष्क भागों में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, महाराष्ट्र में भी ऐसे ही वन मिलते हैं।
4. मरुस्थलीय एवं अर्द्ध- मरुस्थलीय वन
ये वन उन भागों में उगते हैं, जहाँ वार्षिक वर्षा 50 सेमी से कम होती है। इनके वृक्ष छोटी-छोटी झाड़ियों के रूप में होते हैं जिनकी जड़ें लम्बी होती हैं। बबूल यहाँ का प्रमुख वृक्ष है। खेजड़ी, खैर, खजूर, रामबॉस, नागफनी आदि प्रमुख वृक्ष हैं। दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात तथा कर्नाटक के वृष्टि-छाया प्रदेश में इन वनों का विस्तार है।
5. पर्वतीय वन
ऊंचाई एवं वर्षा के अनुसार यह 1 विभिन्नता लिए होते हैं पश्चिमी हिमालय क्षेत्र की अपेक्षा पूर्वी हिमालय प्रदेश में वर्षा अधिक होती है। अत: यहाँ वनों में भी भिन्नता पाया जाना स्वाभाविक है। इस प्रदेश के वनों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
- पूर्वी हिमालय प्रदेश के वन
भारत के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में पहाड़ी ढालों पर इन वनों का विस्तार मिलता है। इन क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी तक रहता है। ऊँचाई के अनुसार वनस्पति में भी भिन्नता मिलती है, परन्तु यह वनस्पति सदाबहार वनों की होती है। इस प्रदेश में 1,200 से 2,400 मीटर ऊँचाई पर उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार के वन मिलते हैं। इन वनों में साल, ओक, लॉरेल, दाल-चीनी, चन्दन, शीशम, खैर एवं सेमल के वृक्ष मिलते हैं। कहीं-कहीं बाँस भी उग आता है। शीतोष्ण सदाबहार की वनस्पति 2,400 से 3,600 मीटर की ऊँचाई पर मिलती है। यहाँ पर कम ऊँचाई वाले कोणधारी वृक्ष उगते हैं। प्रमुख वृक्षों में ओक, मैपिल, बर्च, एल्डर, लॉरेल, सिल्वर-फर, पाइन, स्प्रूस, जूनीपर प्रमुख हैं।
- पश्चिमी हिमालय प्रदेश के वन
पश्चिमी हिमालय प्रदेश में वर्षा का प्रभाव वृक्षों के प्रकार पर पड़ता है। यहाँ ऊँचाई के साथ-साथ प्राकृतिक वनस्पति में भी भिन्नता पायी जाती है। इस प्रदेश में 900 मीटर की ऊँचाई तक अर्द्ध- मरुस्थलीय वनस्पति पायी जाती है जो छोटे-छोटे वृक्ष एवं झाड़ियों के रूप में होती है। 900 से 1,800 मीटर की ऊँचाई तक चीड़, साल, सेमल, ढाक, शीशम, जामुन एवं बेर के वृक्ष उगते हैं। इन वृक्षों पर कम वर्षा एवं निम्न तापमान का प्रभाव पड़ता है। 1,800 से 3,000 मीटर की ऊँचाई तक सम-शीतोष्ण कोणधारी वन पाये जाते हैं। 2,500 मीटर की ऊँचाई तक चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित वन मिलते है। इनमें चीड़ देवदार, नीला-पाइन, एल्डर, पोपलर, बर्च, एल्म आदि के वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं। 2,500 मीटर से अधिक ऊँचाई पर सिल्वर-फर एवं येलो-पाइन मुख्य वृक्ष हैं।
हिमालय पर्वतीय प्रदेश में 2400 मीटर से अधिक ऊँचाई पर ‘अल्पाइन वन’ मिलते हैं। इन्हें कोणधारी वन कहा जा सकता है। ये वन 3,600 मीटर की ऊँचाई तक अधिक मिलते हैं।
6. ज्वारीय वन
नदियों के डेल्टाई क्षेत्रों में एक विशेष प्रकार की वनस्पति उगती है जिनमें मैनग्रोव एवं सुन्दरी वृक्षों की प्रधानता होती है। ये वन सदाबहारी होते हैं। सागरीय जल की लवणता का प्रभाव इन वना पर अधिक पड़ता है, क्योंकि इनकी छाल नमकीन एवं लकड़ी कठोर होती है जिसकी नावें बनायी जाती हैं तथा छाल का उपयोग चमड़ा रॅगने में किया जाता है। ताड़, नारियल, फोनिक्स, गोरेन, नीपा एवं केसूरिना (झाऊ) अन्य प्रमुख वृक्ष हैं। भारत में ये वन गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, गोदावरी, कृष्णा आदि नदियों के डेल्टाओं में उगते हैं।
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