जल प्रदूषण के कारण । जल प्रदूषण के प्रभाव | Due to water pollution in Hindi | Effects of water pollution in Hindi
जल प्रदूषण के कारण । जल प्रदूषण के प्रभाव | Due to water pollution in Hindi | Effects of water pollution in Hindi
जल प्रदूषण के मुख्य कारण
(1) औद्योगिक रसायन (Industrial Chemical)- विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले जल में अनेकों प्रकार के कार्बनिक, अकार्बनिक रसायन हो सकते हैं। इनकी प्रकृति स्रोत पर निर्भर होती है।
(2) वाहित मल (Sewage)- नगरों से निकला मल मूत्र, कूड़ा करकट आदि की मात्रा जनसंख्या वृद्धि के कारण सतत् रूप से बढ़ रही है। ये सभी पदार्थ नाले, नालियों द्वारा तालाब या झील में आकर प्रदूषण फैलाते हैं। इनमें मुख्य रूप से कार्बनिक पदार्थ, नाइट्रोजन प्रदूषक, निलम्बित ठोस (suspended solids) भारी धातु, तेलीय पदार्थ आदि हो सकते हैं।
(3) घरेलू अपमार्जक (Household detergents)- घर में उपयोग किये जाने वाले अपमार्जक कपड़े धोने, बर्तन साफ करने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के साबुन, सर्फ, विम आदि अपमार्जक होते हैं। ये अपमार्जक घरों से नालियों, तालाबों तथा नदियों तक पहुँचकर प्रदूषण फैलाते हैं।
ये पदार्थ निम्न प्रकार के हो सकते हैं-धूल, कोयला, अम्ल, क्षार, फीनोल, साइनाइड, पारा, जिंक, कॉपर, फेरस लवण कागज, रबड़, रेशे, गरम पानी, तेल आदि। पारा, क्लोरीन तथा कास्टिक सोडा उद्योगों के जल से आता है। इसके कारण तंत्रिका तत्र (nervous system) पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। जापान के मिनामाटा खाड़ी में पारे (30-100) से प्रदूषित मछली खाने से अनेकों लोगों की जाने गईं । यह दुर्घटना बहुत प्रसिद्ध है।
लेड से मनुष्य का पाचन तंत्र, तंत्रिका तंत्र पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। कैडमियम, जिंक, क्रोमियम तथा कापर भी जीव जन्तुओं तथा पौधों पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं।
(4) ईधनों का जल में मिलना (Mixed of fuels in water)- कोयला, पेट्रोल, डीजल, तेल आदि के जलने से जो गैसें निकलती हैं वे वर्षा के जल में घुलकर नदी, तालाब, झीलों आदि को प्रदूषित करती हैं।
(5) कृषि उद्योग के प्रदूषक (Agricultural Pollutants)- कृषि की उपज बढ़ाने में उपयोगी शाकनाशी (herbicides), खरपतवारनाशी (Weedicides), कीटनाशी (insecticides), पेस्टीसाइड्स (pesticides) आदि का प्रयोग अधिक बढ़ गया है। ये खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मनुष्यों तक सतत् रूप से पहुंच रहे है। इनका कुप्रभाव मनुष्य तथा पौधो पर निरन्तर पड़ रहा है जिससे जीवों, पौधों के जीवन को हानि होने की सम्भावना रहती है।
(6) रेडियोधर्मी पदार्थ (Radioactive substances)- नाभिकीय विस्फोट तथा नाभिकीय ऊर्जा प्रक्रम से निकलने वाले विकिरण जल में घुलकर प्रदूषण फैलाते हैं।
(7) जल शोधन में (Purification of Water)- अशुद्ध जल को शुद्ध करने में विभिन्न प्रकार के रसायन उपयोग में लाये जाते हैं। अधिक मात्रा में इनके प्रयोग से जल प्रदूषण की सम्भावना रहती है।
जल प्रदूषण का जनजीवन पर प्रभाव
इस शताब्दी में जनसंख्या में तेजी से वृद्धि तथा औद्योगीकरण से नदी, झीलों व सागरों के जल में धीरे-धीरे ऐसे पदार्थों की मात्रा बढ़ती जा रही है जिनसे मनुष्य, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पति पर घातक प्रभाव पड़ता है ये पदार्थ मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये विशेष रूप से हानिकारक होते हैं। पिछली दो या तीन शताब्दियों में कितने ही जीव-जन्तु लुप्त हो गये हैं।
- नगरों में मकानों से निकला मल-मूत्र व कूड़ा-करकट भूमिगत नालियों द्वारा नदियों व झीलों आदि में गिराया जाता है। इसी प्रकार कारखानों द्वारा उत्पन्न विसर्जित पदार्थ भी नदियों के जल में मिलते रहते हैं। इस प्रकार नदियों का जल दूषित हो जाता है। मूत्र में यूरिया होता है जिसके अपघटन से अमोनिया उत्पन्न होती है। अन्य कार्बनिक पदार्थों के अपघटन से नाइट्रोजिनस पदार्थ बनते हैं। इससे जल दूषित हो जाता है और पीने के योग्य नहीं रह जाता। इस जल को पीने या उससे नहाने धोने से अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं।
वाहित मल में कार्बनिक पदार्थ प्रचुर मात्रा में होते हैं। जीवाणुओं द्वारा कार्बनिक पदार्थों के विघटन के लिए ऑक्सीजन की माँग (Biochemical Oxygen Demand, B.O.D.) बढ़ जाती है। अतः जीवाणुओं द्वारा अपघटन के लिए ऑक्सीजन की आवश्यक मात्रा है। घरों से निकले गन्दे पदार्थों वाले जल की बी ओ डी 200-400 पी पी एम जलाशय में डाला जाता है। जो जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। इसका कारण यह है कि जीवाणु वाहित मल में उपस्थित पदार्थों का ऑक्सीकरण करते हैं जिसमें ऑक्सीजन उपयोग होती है और जल में दुर्गन्ध उत्पन्न हो जाती है। इससे संक्रामक राग फैलने की सम्भावना भी बढ़ जाती है।
पानी में वाहित मल की अत्यधिक मात्रा का उसमें रहने वाले जीवों पर भी प्रभाव पड़ता है। वाहित मल व कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण से जल में घुली ऑक्सीजन काम आती है जिससे जल में इसका अभाव हो जाता है और जलीय जीव मर जाते हैं।
- आजकल घरों व मकानों की सफाई एवं रसोई के बर्तन साफ करने तथा नहाने-धोने में अपमार्जकों का प्रयोग तेजी से बढ़ रहा है। इनमें विम, अनेक प्रार के साबुन इत्यादि शामिल हैं। ये पद्यर्थ नालियों द्वारा नदियों, तालाबों व झीलों इत्यादि में जाकर उनके पानी को दृषित कर रहे हैं। इसके फलस्वरूप एल्किल बेंजीन सल्फोनेट (alkyl benzene sulphurated) फॉस्फेट, नाइट्रेट आदि पदार्थ जल में एकत्रित हो जाते हैं। एल्किल बेंजीन सल्फोनेट का निर्नीकरण नहीं होता तथा जल में इसकी अधिक मात्रा होने पर यह जीवधारियों को प्रभावित करता है।
फॉस्फोरस और नाइट्रोजन की अधिक मात्रा से शैवालों की अत्यधिक वृद्धि होती है। और ये पानी की सतह पर फैल जाते हैं। इसकी वॉटर ब्लूम (Water bloom) कहते हैं। इन शैवालों की मृत्यु होने कार्बनिक पदार्थों का अपघटन होता है जिससे ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। इसके फलस्वरूप जलीय प्राणियों की मृत्यु होने लगती है। इस प्रकार जलाशय में कार्बनिक पदार्थ अधिक और जल कम होता रहता है। इसे सुपोषण कहते हैं।
- कारखानों से निकले अपशिष्ट पदार्थ नालों व नदियों के बहते जल में छोड़ दिए जाते हैं। इनमें धूल, कोयला, विभिन्न प्रकार के अम्ल, क्षार, फेनोल, साइनाइड्स, पारा, लेंड कॉपर व जिंक सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त फॉस्फेट्स, सल्फाइड, सल्फेट व फैरस लवण भी कारखानों से निकले अपशिष्ट पदार्थों में होते हैं। कागज, चीनी, रबड़, रेयन, चर्मशोधक व तेल शोधक कारखानों से निकलने वाले असंख्य पदार्थ आदि से नदियों का जल इतना अधिक संदूषित हो जाता है कि यह न तो पीने के उपयुक्त रहता है और न ही खेती के ऐसे जल में उगने वाले पौधे और जन्तु मर जाते हैं।
- कीटनाशी पदार्थों के उपयोग से भी पानी प्रदूषित हो जाता है। वर्षा के पानी में घुलकर ये पदार्थ नदियों, झीलों व तालाबों के पानी में पहुँच जाते हैं जिससे हर प्रकार के जीवों पर इनका घातक प्रभाव पड़ता है। मुम्बई में जल-प्रदूषण के कारण हर चौथा व्यक्ति पोलियो, हैजा या इओसिनोफिलिया से ग्रस्त है।
- ताप व आण्विक बिजलीघर में उपकरणों को ठण्डा करने के लिए पानी की बहुत अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है। इस पानी के नदियों में वापस पहुँचने पर वहाँ का ताप बढ़ जाता है। जिससे जलीय पौधे व जन्तुओं की वृद्धि रुक जाती है और कभी-कभी उनकी मृत्यु तक हो जाती है। हमें 70 प्रतिशत से अधिक ऑक्सीजन सागरों में उगने वाले पादप प्लवकों से प्राप्त होती है। सागरों में पादप-प्लवकों का विपुल भण्डार है। इनके द्वारा निर्मित ऑक्सीजन पर ही सागर में रहने वाली मछलियाँ व अन्य जीव-जन्तु जीवित रहते हैं। नदियों का प्रदूषित जल तेजी से सागरों को भी प्रदषित कर रहा है। समुद्र में बड़े-बड़े तेल वाहक चलते हैं। कभी-कभी इनसे तेल बहकर मीलों तक समुद्र की सतह पर फैल जाता है। इससे सागर में ऑँक्सीजन की कमी हो जाती है जिससे समुद्री जीव नष्ट हो जाते हैं। समुद्र के प्रदूषण के कारण अब तक लगभग 1000 प्रकार के जीव-जन्तु लुप्त हो चुके हैं।
- पारा क्लोरीन-कॉस्टिक सोडा के कारखानों से जल में आता है और जलीय प्राणियों से खाद्य श्रृंखला के द्वारा मनुष्य के शरीर में पहुँचता है। इसके कारण तंत्रिका में विकास विकसित हो जाते हैं और पागलपन उत्पन्न हो जाता है।
- लेड प्राणियों के ऊतकों में एकत्रित होकर उन्हें हानि पहुँचाता है। कापर और जिंक मौलस्का वर्ग के प्राणियों में होकर उनकी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। कैडिमियन व क्रोमियन समुद्री प्राणियों के शरीर में पहुँचकर उनकी मृत्यु का कारण बनते हैं।
- डब्ल्यू. एच. ओ. (W. H. O.) द्वारा किए गए एक सर्वक्षण के अनुसार विकासशील देशों में कीटनाशी पदार्थों के प्रयोग करने से प्रतिवर्ष लगभग 50,000 मनुष्य प्रभावित होते हैं जिनमें से 5.000 की मृत्यु हो जाती है। भारत में प्रतिवर्ष 35,000-40,000 टन कीटनाशी पदार्थों का प्रयोग होता है।
- मुम्बई, दिल्ली लखनऊ, पूना, बंगलौर चेन्नई एवं कोलकाता आदि नगरों में फलों, सब्जी, दूध एवं अण्डों के सेम्पर्लों का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि इनमें DDT. dicldrin. aldrin आदि की मात्रा मनुष्य की सहनीय क्षमता से कहीं अधिक है।
- 3 दिसम्बर, 1984 के दिन भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड के कीटनाशी रसायन बनाने के कारखाने में काम आने वाले मिथाइल आइसोसाइनेट के रिसने से लगभग 2500 व्यक्तियों की तुरन्त मृत्यु हो गई। इस गैस का प्रभाव वहाँ के लोगों के श्वसन तन्त्र, फेफड़ों तथा आँखों पर अभी तक देखा जा सकता है।
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