भूगोल / Geography

सम्भववाद | सम्भववादी विचारधारा की आलोचना | सम्भववाद की संकल्पना के गुण-दोषों का परीक्षण

सम्भववाद | सम्भववादी विचारधारा की आलोचना | सम्भववाद की संकल्पना के गुण-दोषों का परीक्षण

सम्भववाद (Possibilism)

20वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही मानवीय क्रिया-कलापों का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ते रहने से मानव ने प्राकृतिक वातावरण पर निर्भरता को स्वीकारना कम कर दिया। इस सन्दर्भ में सर्वाधिक योगदान फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने दिया। फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने यह माना कि किसी प्रदेश या भूखण्ड के प्राकृतिक वातावरण में मानव के लिए कई प्रकार की सम्भावानाएँ छिपी हुई हैं। मानव अपनी बुद्धि तथा चातुर्य से सर्वोत्तम सम्भावनाओं का चुनाव कर लेता है। इस प्रकार प्रकृति की सत्ता सर्वशक्तिमान नहीं रह जाती है और मानवीय छाँट या चयन को महत्त्व प्रदान किया जाता है।

सम्भववादी विचारधारा के विकास में निश्चयवादी विचारधारा का कट्टरपन तथा पृथ्वी के कुछ भागों पर मानव की वैज्ञानिक प्रगति को प्रमुख रूप से उत्तरदायी माना जाता है। जिस प्रकार निश्चयवादी विचारधारा के समर्थकों ने प्राकृतिक वातावरण की सार्वभौमिक सत्ता को महत्त्व प्रदान किया, उसी प्रकार सम्भववादी विचारधारा के समर्थकों ने मानवीय क्रिया-कलापों तथा मानव द्वारा विकसित सांस्कृतिक भूदृश्य (Cultural Landscape) को महत्त्व प्रदान किया। सम्भववादी विचारधारा के समर्थकों ने मानव-वातावरण सम्बन्धों में ‘मानव द्वारा प्रकृति पर नियन्त्रण’ तथा ‘मानव द्वारा प्रकृति पर विजय’ के स्थान पर ‘मानव को सर्वत्र छाँट की सुविधा’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया।

सम्भववाद की विचारधारा का सर्वप्रथम प्रतिपादन फ्रांसीसी इतिहासकार लूसियन फेव्रे ने अपनी पुस्तक ‘Geographical Introduction to History’ में सन् 1925 में किया। बाद में ब्लांश, ब्रून्स, डिमांजिया जैसे फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं एवं ईसा बोमैन तथा कार्ल सावर जैसे अमेरिकन विद्वानों ने इस विचारधारा को विकसित किया।

फेव्रे एक अन्य स्थान पर लिखते हैं, मानव मात्र पशु न होकर एक भौगोलिक कारक है। वह पृथ्वी के बाह्य रूप में होने वाले परिवर्तनों में योगदान करता है जिसका अध्ययन करना भूगोल का एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है।”

फेव्रे महोदय ने मानवीय चयन को महत्त्व प्रदान करते हुए लिखा है- “प्रकृति मानव को किसी विशेष सड़क पर नहीं चलाती, अपितु प्रकृति मानव को कई सम्भावनाएँ प्रदान करती है; इन सम्भावानाओं के चयन के लिए मानव स्वतन्त्र होता है।”

फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता विडाल डी ला ब्लांश को भौगोलिक अध्ययनों में सम्भववादी विचारधारा का प्रतिपादक माना जाता है। ब्लांश ने एक ही प्रकार के प्राकृतिक वातावरण में विभिन्न संस्कृति स्तर वाले लोगों के रहन-सहन के उदाहरण प्रस्तुत किये तथा उन्होंने इस बात पर बल दिया कि समान वातावरण में विभिन्न मानवीय संस्कृति का मिलना मुख्य रूप से लोगों के दृष्टिकोणों, मूल्यों तथा आदतों की भिन्नताओं का परिणाम है। मानवीय दृष्टिकोण तथा आदतों में भिन्नताएँ मानवीय समुदाय के लिए अनेक सम्भावनाएँ प्रदान करती हैं जो सम्भववादी विचारधारा का मूल दर्शन है।

ब्लांश के शब्दों में, “प्रकृति सीमाएँ निर्धारित करती तथा मानवीय अधिवास हेतु सम्भावनाएँ प्रदान करती हैं, लेकिन दी गयी परिस्थितियों में मानव किस प्रकार प्रतिक्रिया करता है अथवा सामंजस्य स्थापित करता है, यह उसकी अपनी परम्परागत जीवन-शैली पर निर्भर करता है।”

इसी सन्दर्भ एक अन्य स्थान पर ब्लांश ने लिखा है, “प्राकृतिक वातावरण में अनेक सम्भावनाएँ विद्यमान रहती हैं तथा इन सम्भावनाओं का उपयोग पूर्णतया मानवीय चयन पर निर्भर करता है।”

मानव-वातावरण सम्बन्धों में प्रकृति की भूमिका का उल्लेख करते हुये ब्लांश लिखते हैं, “प्रकृति कभी सुझाव दे सकती है तो कभी प्रतिबन्ध लगा सकती है, लेकिन प्रकृति मानव के लिए कभी भी एक सलाहकार से अधिक नहीं रही।”

ब्लांश के शिष्य जीन ब्रून्स ने भी मानव को एक ऐसा सक्रिय भौगोलिक कारक माना जो निरन्तर वातावरण में परिवर्तन करने में सक्रिय रहता है। ब्रून्स का विचार था कि यद्यपि मानव को अपने वातावरण में रहकर क्रियाशील रहना पड़ता है, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह प्रकृति का दास है। इस सन्दर्भ में ब्रून्स लिखते हैं, “मानव पूर्णतया अकर्मण्य तभी होता है। जब भौतिक विश्व उसे निष्प्राणित कर देता है। वास्तव में जब तक वह जीवित रहता है तब तक क्रियाएँ व प्रतिक्रियाएं करता रहता है।”

बून्स प्रकृति के भौतिक तथ्यों के साथ मानव के बुद्धिमत्तापूर्ण समायोजन के पक्षधर रहे। ब्रून्स मानवीय आदतों पर बल देते हुए लिखते हैं- “पृथ्वी की सतह पर मानव जाति के लिए सभी कुछ मानव की आदतों पर निर्भर करता है, जिसके द्वारा वह भौतिक तथ्यों को भली-भाँति समझकर उन भौतिक तथ्यों के साथ बुद्धिमत्तापूर्ण समायोजन स्थापित करता है।”

गोल्डन बीजर नामक फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता वातावरण एवं मानवीय संस्कृति के परस्पर सम्बन्धों की समीक्षा करते हुए यह बताया कि प्रकृति मानव के लिए संसाधन जुटाती है तथा मानव अपनी इच्छानुसार, उन संसाधनों का उपयोग कर अपनी संस्कृति का विकास करता है।

बीजर के अनुसार, मानवीय सभ्यता व संस्कृति के भवन निर्माण के लिए प्रकृति गारा व चूना प्रदान करती है। भवन निर्माण योजना मानव के मस्तिष्क द्वारा तैयार की जाती है। मानव अपनी आवश्यकतानुसार प्राकृतिक वातावरण के तथ्यों में परिवर्तन कर लेता है।” प्राकृतिक वातावरण के उपयोग में मानवीय इच्छाओं तथा आवश्यकताओं को महत्त्वपूर्ण मानते हुए बीजर लिखते हैं, “प्रकृति माानव को निर्मित नहीं करती है, वरन् मानव जिस प्रकार उपयुक्त समझता है, उसका उपयोग करता है।”

रसैल स्मिथ भी मानवीय क्रिया-कलापों को महत्त्व प्रदान करते हुए लिखते हैं, “मानव पृथ्वी का मात्र निवासी ही नहीं है, वरन् वह एक निर्माणकर्त्ता, भू-आकृतिकारक एवं पृथ्वी का निर्माण कारी भी है।

उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि ‘सम्भववादी’ विचारधारा के समर्थक विद्वान वातावरण शक्तियों की अपेक्षा मानवीय शक्तियों को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। सम्भववादी प्रकृति की पूर्ण अवहेलना नहीं करते। प्रकृति मानवीय कार्यों के लिए एक वृहद् क्षेत्र प्रदान करती है। इस क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर मानव अपनी इच्छा से कार्य करता है। जैसे-जैसे मानव विकास के मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है, प्रकृति की सीमाओं का बन्धन वैसे-वैसे ढीला होता चला जाता है।

सम्भववादी विचारधारा की आलोचना

सम्भववादी एक ओर तो मानवीय क्रियाओं को अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। साथ ही यह भी मानते हैं कि मानव प्राकृतिक वातावरण की पूर्ण अवहेलना नहीं कर सकता। सम्भववादियों के इन्हीं दोहरे वक्तव्यों के कारण सम्भववादी विचारधारा को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। सम्भववादी विचारधारा के समर्थक लूसियन फेव्रे ने स्वयं एक स्थान पर लिखा, “मानव चाहे जिस रूप में प्रयास कर ले, वह अपने वातावरण के नियन्त्रण से मुक्त नहीं हो सकता।”

मानव की स्वतन्त्रता की एक सीमा है। मानव अपनी इच्छा शक्ति एवं प्रयासों से कभी प्रकृति पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मानव चाहे विकास की अधिकतम सीढ़ियाँ क्या न चढ़ जाये, वह प्राकृतिक वातावरण के प्रतिबन्धों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। स्वयं बून्स एक स्थान पर लिखते हैं-“चूँकि मानव पृथ्वी पर निवास करता है, वह पृथ्वी पर निर्भर रहता है।”

बून्स ने प्राकृतिक एवं मानवीय शक्तियों की विवेचना करते हुए कहा, “मानव के पास  अपनी जो शक्तियाँ तथा साधन हैं, वे सामित हैं तथा प्रकृति ने ऐसी सीमाएं लगायी हैं जिन्हें मानव पार नहीं कर सकता। मानवीय क्रिया-कलाप निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत ही भिन्नता लिये मिल सकते हैं, लेकिन वह अपने वातावरण की अवहेलना नहीं कर सकते।”

बून्स ने एक अन्य स्थान पर मानवीय क्रिया-कलापों पर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा है, “मानवीय विजय सम्बन्धी क्रिया-कलाप जितने अधिक यशस्वी व प्रभावशाली होंगे, विरोधी प्राकृतिक शक्तियों का बदला उतना ही अधिक क्रूर होगा।”

अतः हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि मानव की स्वतन्त्रता की सीमाएँ प्रकृति द्वारा प्रतिबन्धित हैं तथा मानव इन सीमाओं के अन्तर्गत ही अपने क्रिया-कलाप कर सकता है। प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानव के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता। भारी कीमत अदा कर किसी प्राकृतिक अवरोध पर विजय प्राप्त करना बुद्धिमानी नहीं है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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