रोपण कृषि की विशेषताएँ तथा कृषि के विकास में बाधाएँ

रोपण कृषि की विशेषताएँ तथा कृषि के विकास में बाधाएँ

रोपण कृषि की विशेषताएँ तथा कृषि के विकास में बाधाएँ

रोपण कृषि की विशेषताएँ

रोपण कृषि की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  1. बड़े आकार के बागान :

यह कृषि बड़े आकार के बागानों पर की जाती है। बागानों के आकार में बहुत अधिक क्षेत्रीय भिन्नताएँ पाई जाती हैं। उदाहरणत:, श्रीलंका में किसी बाग को कानूनी तौर पर रोपण कृषि की श्रेणी में आने के लिए कम-से-कम 10 एकड़ का होना चाहिए। हिन्देशिया के सारावाक द्वीप में 1000 एकड़ के बागान को रोपण कृषि की श्रेणी में रखा जाता है। मलेशिया में अधिकांश रबड़ के बागान 100 एकड़ के हैं। दूसरी ओर लाइबेरिया हरबल (Herbal) पर स्थित फायरस्टोन कम्पनी का रबड़ का बाग 136000 एकड़ पर विस्तृत है। भारत में किसी भी फसल के बागान अधिक बड़े नहीं हैं। चाय भारत की प्रमुख बागानी फसल है जिसके बागान 400 से 600 एकड़ तक पाए जाते हैं।

  1. एक फसल की कृषि :

रोपण कृषि के अन्तर्गत बड़े बागानों में केवल एक ही फसल उगाई जाती है। यद्यपि रोपण कृषि के क्षेत्रों की उष्ण व आर्द्र जलवायु चाय, कहवा, रबड़, नारियल, कोको, केला आदि फसलों के लिए अनुकूल होती है तथापि उनकी कृषि एक ही बाग में नहीं की जाती। एक ही प्रदेश में कई वस्तुओं के बागान साथ-साथ पाए जाते हैं। यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है जो रोपण कृषि को जीवन-निर्वाह कृषि से अलग करती है। एक प्रदेश में केवल एक ही फसल की रोपण कृषि भी होती है। मलेशिया में रबड, ब्राजील में कहवा तथा भारत की असम घाटी में चाय की कृषि ‘एक-फसली कृषि’ (Mono-Culture) के उदाहरण हैं।

कुछ स्थानों पर बागानों में काम करने वाले मजदूरों के भोजन के लिए खाद्यान्नों की कृषि भी की जाती है परन्तु यह कृषि गौण होती है। सामान्यतः यह कहा जाता ह कि रोपण कृषि विस्तार से भोज्य पदार्थों का उत्पादन कम हुआ है और स्थानीय जनसंख्या के लिए खाद्यान्नों का आयात करना पड़ता है।

  1. कृषि पद्धति :

रोपण कृषि की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी पद्धति है। इसमें फसलों को गेहूँ या चावल की भाँति बीज बोकर पैदा नहीं किया जाता है बल्कि उनका रोपण किया जाता है। रोपण कृषि भी दो प्रकार की होती है। एक तो वह रोपण कृषि है जिसमें फसलें पेड़ों से प्राप्त की जाती हैं। इनमें रबड़, कहवा, चाय, नारियल, आदि प्रमुख हैं। इन फसलों की उपज इनके रोपण के कई वर्षों बाद मिलना आरम्भ करती है परन्तु एक बार शुरू होने के पश्चात् कई वर्षों तक उपज प्राप्त होती रहती है। उदाहरणत:, चाय की झाड़ी से 3-4 वर्षों के बाद चाय की पत्ती प्राप्त होनी शुरू होती है परन्तु फिर 30-40 वर्षों तक पत्ती प्राप्त होती रहती है। दूसरी वह कृषि है जिसमें फसलों का रोपण बार-बार किया जाता है। इसमें कपास, गन्ना आदि प्रमुख हैं। परन्तु गन्ने जैसी फसल को यदि जड़ से न काटा जाए तो उन्हीं जड़ों से दूसरी व तीसरी फसल ली जा सकती है। बाद में ली जाने वाली फसलों को पेड़ी फसल (Ratoon) कहते हैं। अधिक उपजाऊ क्षेत्रों में तीन-चार पेडी फसलें भी ली जा सकती हैं। परन्तु हर पहली फसल के बाद पेड़ी फसलों की उपज तथा गुणवत्ता क्रमश: कम होती जाती है। सीमान्त क्षेत्रों में पेड़ी फसल लेना आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं होता और वहाँ पर प्रति वर्ष फसलों के रोपण की आवश्यकता होती है।

  1. श्रम की व्यवस्था :

रोपण कृषि में श्रम का बहुत ही अधिक महत्व है। वनों को साफ करने, बागानों को तैयार करने, फसलों को रोपण करने, उन्हें खाद देने, उनकी देखभाल करने तथा उन्हें एकत्रित करने के लिए पर्याप्त श्रम की आवश्यकता होती है। स्थानीय परिवहन के लिए भी श्रम की आवश्यकता पड़ती है। आज यद्यपि अनेक मशीनों का आविष्कार हो चुका है तथापि श्रम के महत्व में कोई विशेष कमी नहीं आई। आज भी रोपण करने, कपास एवं चाय को चुनने, कहवा के बीजों को एकत्रित करने, गन्ना काटने तथा रबड़ के वृक्षों से दूध निकालने के लिए कुशल मशीनों का आविष्कार नहीं हो पाया और ये सभी कार्य मानवीय श्रम द्वारा ही किए जाते हैं। आज भी रोपण कृषि में उत्पादन के कुल मूल्य का 50-70 प्रतिशत मजदूरी पर व्यय होता है। अत: सस्ते श्रम की उपलब्धि रोपण कृषि के वितरण को प्रभावित करती है।

जैसा कि पहले बताया गया है, रोपण कृषि शीतोष्ण कटिबन्ध में रहने वाली यूरोपीय जातियों द्वारा उनके उष्ण व उपोष्ण कटिबन्ध में स्थित उपनिवेशों में शुरू की गई थी। परन्तु श्रम की आवश्यकता की पूर्ति स्थानीय मजदूरों द्वारा ही की जाती थी। आज भी अधिकांश बागानों में स्थानीय मजदूर ही काम करते हैं जो उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों के निवासी हैं। जिन प्रदेशों में जनसंख्या की कमी के कारण पर्याप्त संख्या में मजदूर ठपलब्ध नहीं होते थे वहाँ पर अन्य क्षेत्रों से मजदूर आयात किए जाते थे। पहले यूरोपीय लोगों द्वारा बनाए गए उष्ण कटिबन्धीय इलाकों में रहने वाले बन्दी और बाद में विभिन्न उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों से आयात आरम्भ हुआ। यही से कृषि में दास प्रथा का आरम्भ हुआ। इसके अन्तर्गत यूरोपीय जातियों के लोग अफ्रीकी जातियों के 15 से 35 बर्ष की आयु के लोगों को दास बनाकर उनसे कृषि-कार्य में मजदूरी करवाया करते थे। सन् 1700 से 1800 तक दास प्रथा अपनी चरम सीमा पर थी। दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका की ‘कपास मेखला’ में दासत्व का ज्वलन्त उदाहरण मिलता है। दास प्रथा के समाप्त होने पर ठेके पर मजदूरी की स्थापना हुई। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से अब तक अधिकांश उपनिवेश स्वतन्त्रता प्राप्त कर चुके हैं और अब इन देशों में श्रम की उपलब्धि मजदूरों की इच्छा पर निर्भर है।

मजदूरों को प्राप्त करने के प्रमुख प्रदेश भारत तथा अफ्रीकी देश थे। आज भी मारीशस, नेपाल, फीजी, ब्रिटिश, गायना तथा क्यूबा में अधिकांश मजदूर भारतीय मूल के हैं। श्रीलंका और मलय के क्रमश: चाय तथा रबड़ के बागानों में भी मुख्यत: भारतीय तमिल मजदूर ही काम कर रहे हैं। सामोआ एवं बोर्नियो में चीनी तथा हवाई द्वीप समूह में जापानी एवं फिलिपीनी मजदूर अधिक संख्या में हैं।

रोपण कृषि में मजूदरी की माँग सदा एक जैसी नहीं रहती। रोपण तथा फसल को एकत्रित करने के समय अपेक्षाकृत अधिक मजदूरों की आवश्यकता होती है। इन समयावधियों में श्रम उपलब्धि रोपण कृषि की सफलता को बहुत प्रभावित करती है। यह समस्या उन फसलों के लिए और भी गम्भीर है जिसके लिए रोपण प्रति वर्ष अथवा दो-तीन वर्ष के बाद करना पड़ता है। ऐसी फसलों में कपास, तम्बाकू तथा कहीँ-कहीं पर गन्ना प्रमुख हैं।

सस्ते श्रम के अभाव के कारण बहुत से क्षेत्रों में अनेक फसला की कृषि छोटे-छोटे खेतों पर होने लगी है और रोपण कृषि पद्धति कम होती जा रही है। अब बहुत से देशों में कपास, गन्ना तथा तम्बाकू की उपज रोपण कृषि द्वारा नहीं होती।

  1. रोपण कृषि में विदेशी प्रबन्ध तथा पूँजी :

रोपण कृषि शौतोष्ण कटिबन्ध में स्थित यूरोपीय देशों द्वारा उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्ध में स्थित उनके उपनिवेशीय देशों में आरम्भ की गई थी। भारत, घाना व नाइजीरिया में ब्रिटेन के बागान, पश्चिमी द्वीप समूह में स्पेन के बागान तथा पूर्वी द्वीप समूह में डच लोगों के बागान इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इन यूरोपीय लोगों के पास कृषि के प्रबन्ध की कुशलता तथा पर्याप्त पूँजी थी। उन्होंने अपनी प्रबन्ध-कुशलता और पूँजी का उपयोग अपने उपनिवेशों में उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय आ्द्र तथा उष्ण जलवायु का लाभ ठठाने के लिए किया। रोपण कृषि शुरू करने से इन्हें वे वस्तुएं उपलब्ध होने लगीं जो यूरोप की ठण्डी जलवायु में पैदा नहीं हो सकती थी। इसके अतिरिक्त, बागानों को स्थापित करने तथा चलाने के लिए पर्याप्त पूँजी की आवश्यकता थी जो स्थानोय लोगों के पास नहीं थी। बागान लगाने के तुरन्त बाद लाभ नहीं होता और प्रतीक्षा करनी पड़ती है। रबड़ के बागानों में 6 वर्ष, कोको में 5 वर्ष, चाय के बागानों में 3-4 वर्ष तथा नारियल में 3 वर्ष तक फसल प्राप्त नहीं होती। अब अधिकांश उपनिवेशी देश स्वतन्त्र हो गए हैं और स्वदेशी प्रबन्ध तथा पूँजी का प्रयोग होने लगा है। परन्तु नाइजीरिया जैसे अब भी कुछ ऐसे देश हैं जहाँ स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भी विदेशी पूँजी लगाई जाती है।

  1. रोपण कृषि में औद्योगिक प्रक्रिया :

रोपण कृषि की अधिकांश फसलें उसी रूप में बाजारों में नहीं भेजी जाती जिस रूप में वे बागानों में पैदा को जाती हैं। बागान से बाजार तक उनका औद्योगिक संशोधन अनिवार्य है। बहुत-सी वस्तुओं का स्थानान्वरण काल में नष्ट होने का भय रहता है। इनमें हरी चाय, रबड़ का दूध, गन्ना तथा तम्बाकू प्रमुख हैं। साथ हो औद्योगिक प्रक्रिया में वस्तुओं का भार भी कम हो जाता है। अत: बागानों के निकट रोपण कृषि की उपजों का संशोधन करने के लिए कारखानों का होना अति आवश्यक है। इन कारखानां में काम करने वाले कुशल शमिक विदेशों से आते थे जबकि अर्धकुशल अथवा अकुशल श्रमिक स्थानीय होते थे। परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् स्थिति में परिवर्तन आया है और अब कुशल श्रमिक भी स्थानीय रूप में मिलने लगे हैं।

  1. रोपण कृषि में आवास तथा अन्य सुविधाएँ :

कार्य-कुशलता के लिए रोपण कृषि में कार्यरत श्रमिकों तथा प्रबन्धकों के लिए आवास की व्यवस्था बागानों में हो को जाती है। परन्तु प्रबन्धकों के बड़े-बड़े बंगलों तथा श्रमिकों के छोटे-छोटे क्वार्टरों अथवा झोपड़ियों में काफी अन्तर होता है। प्रबन्धकों के बंगलों में सभी आधुनिक सुविधाएँ होती हैं। इसके साथ ही स्कूलों, अस्पातालों आदि का प्रबन्ध भी वहीं पर किया जाता है।

8. रोपण कृषि तथा बाजार :

रोपण कृषि को आरम्भ करने का मुख्य ध्येय युरोप तथ्था उत्तरी अमेरिका के बाजारों को वे वस्तुएं उपलब्ध कराना था जो शीतोध्य कटिबन्ध की ठन्डी जलवायु में पैदा नहीं होती थी। अत: रोपण कृषि की अधिकांश उपजें इन्हीं क्षेत्रों को भेजी जाने लगीं। इन वस्तुओं को यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के बाजारों में किसी प्रकार की प्रतिस्पद्धा का सामना भी नहीं करना पड़ा इसलिए इन वस्तुओं के व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। बीसवीं शताब्दी में लगभग सभी उपनिवेश स्वतन्त्र हो गए परन्तु इस राजनैतिक परिवर्तन का रोपण कृषि के बाजार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। इसको कारण यह है कि इन देशों की अर्थव्यवस्था इस प्रकार की है कि कृषि उपजों का निर्यात ही उनके लिए विदेशी मुद्रा का स्तरोत है। भारत में चाय की कृषि अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई थी और अब भी ब्रिटेन हमारी चाय का सबसे बड़ा ग्राहक है।

  1. परिवहन का महत्व :

रोपण कृषि की उपजों का प्रयोग दूर स्थित प्रदेशों में होता है जिसके लिए सस्ते तथा कुशल परिवहन का होना आवश्यक है। यही कारण है कि अधिकांश बागान समुद्र तट के निकट ही स्थापित किए जाते हैं। बागान प्राय: बड़े आकार के होते हैं जो सैंकड़ों हेक्टेयर भूमि पर फैले हुए होते हैं। इतने बड़े बागानों से कृषि फसलों को एक स्थान पर एकत्रित करने के लिए रेलों तथा सड़कों की व्यवस्था की जाती है। कई बागान तो इतने बड़े हैं कि उनकी निजी रेलें व सड़कें हैं। इन रेलों व सड़कों द्वारा फसलों को कारखानों तक लाया जाता है और फिर संशोधित माल को बन्दरगाहों तक ले जाया जाता है। वहाँ से इन्हें यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के बाजारों को निर्यात कर दिया जाता है।

रोपण कृषि के विकास में बाधाएँ

रोपण कृषि के विकास में कई बाधाएँ आती हैं, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:

  1. उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों की जलवायु उष्ण तथा आर्द्र है जिसमें यूरोप के श्वेत लोग नहीं रह सकते।
  2. यहाँ पर वन बहुत ही घने होते हैं, जिनको साफ करना एक कठिन कार्य है।
  3. इन प्रदेशों में कीड़े-मकोड़े, मच्छर-मक्खियाँ आदि बड़ी संख्या में पाए जाते हैं जिससे मलेरिया तथा अन्य कई बीमारियाँ फैल जाती हैं। अत: मजदूर अस्वस्थ तथा अकुशल हो जाते हैं।
  4. अधिक वर्षा के कारण मिट्टी के अधिकांश उपजाऊ तत्व घुलकर नीचे चले जाते हैं और मिट्टी बेकार हो जाती है।
  5. उष्ण व आर्रे जलवायु में फसलों को कई प्रकार के रोग लग जाते हैं।

 

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