समाज शास्‍त्र / Sociology

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त (Theories of Social Change in hindi)

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त (Theories of Social Change in hindi)

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 सामाजिक परिवर्तन की दिशा की व्याख्या करने के लिए समाजशास्त्रियों ने कई सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। यहाँ तीन मुख्य सिद्धान्त प्रस्तुत हैं।

  1. रेखीय सिद्धान्त (Linear Theory) –

इस सिद्धान्त के अनुसार कोई भी समाज सदैव उन्नति की दिशा में अग्रसर होता है, उच्च से उच्चतर की ओर बढ़ता है, यह जहाँ से प्रारम्भ होता है, वहीं से निरन्तर आगे बढ़ता है, कभी पीछे नहीं लौटता। हरबर्ट स्पेन्सर (Herbert Spencer) ने समाज को एक जीव (Living being) के रूप में देखा और कहा कि जिस प्रकार एक जीव निम्न से उच्च और उच्च से उच्चतर की ओर विकास करता है ठीक उसी प्रकार मानव समाज धीरे-धीरे उच्च से उच्चतर की ओर बढ़ता है, विकास करता है, प्रगति करता है।

रूसी समाजशास्त्रीय निकोलई के० मिखेलोवस्की (Nikolai K. Mikhailovasky) के अनुसार कोई भी मानव समाज तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता है- एक वस्तुपरक मानव केन्द्रित (Objective Anthropocentric), दूसरी समकेन्द्रित (Eccentric) और तीसरी आत्मपरक मानव केन्द्रित (Subjective Anthropocentric)। प्रथम अवस्था में मनुष्य स्वयं को विश्व का केन्द्र समझता है और पराभौतिक और रहस्यवादी विश्वासों में तल्लीन रहता है। दूसरी अवस्था में मनुष्य अमूर्तीकरण में विश्वास करने लगता है, वह अमूर्त को मूर्त की अपेक्षा अधिक वास्तविक समझता है। और तीसरी अवस्था में मनुष्य आनुभविक (Post Priori) ज्ञान पर विश्वास करने लगता है जिसके द्वारा वह स्वलाभ हेतु प्रकृति पर अधिक से अधिक नियन्त्रण करता है। ये वे अवस्थाएँ हैं जो निम्न से उच्च और उच्च से उच्चतर की ओर अग्रसर है। मिखेलोवस्की के अनुसार प्रत्येक समाज इन तीन अवस्थाओं (निम्न से उच्च और उच्च से उच्चतर) के रूप में विकास करता है।

समालोचना

इस सिद्धान्त के विषय में हमारा प्रथम निवेदन यह है कि यह सिद्धान्त प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन को सामाजिक उन्नयन की ओर उन्मुख मानता है जबकि कुछ सामाजिक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनसे समाज का उत्थान होता है और कुछ सामाजिक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिनसे समाज का पतन होता है। और दूसरा निवेदन यह है कि समाज के उत्थान-पतन का निर्णय समाज विशेष के तत्कालीन मूल्यों द्वारा होता है, किसी व्यक्ति द्वारा नहीं। समाज की जिस स्थिति को मिखेलोवसकी ने निम्नतम स्थिति माना है, उसे हमारे भारतीय ऋषियों ने सत्युग (समाज की श्रेष्ठतम स्थिति) माना है और जिसे उसने उच्चतम स्थिति माना है उसे हमारे भारतीय ऋषियों ने कलयुग (समाज की निकृष्टतम स्थिति) माना है।

  1. चक्रिक सिद्धान्त (Cyclic Theory) –

प्रकृति में दिन के बाद रात और रात के बाद दिन और प्राकृतिक ऋतुओं में बसन्त के बाद ग्रीष्म, ग्रीष्म के बाद वर्षा, वर्षा के बाद शरद, शरद के बाद हेमन्त, हेमन्त के बाद शिशिर और शिशिर के बाद पुनः बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर के चक्रिक परिवर्तन के आधार पर स्पेंगलर (Spanglar) आदि कुछ समाजशास्त्रियों ने समाज में होने वाले परिवर्तन में चक्रिक क्रम की कल्पना की। स्पेंगलर ने संसार की आठ बड़ी और उच्च सभ्यताओं (मिश्र, यूनान एवं रोमन आदि) का अध्ययन किया और इस अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि सभी समाज जन्म, विकास और पतन के चक्र से गुजरते हैं। हिन्दू पुराणों में जो सत्युग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलयुग और कलयुग के बाद पुनः सत्युग आने की बात कही गई है, वह चक्रिक सिद्धान्त के आधार पर ही कही गई है। हमें इस सिद्धान्त में सत्यता नज़र आती है। वर्तमान मानव समाज ने पाषाण युग से बढ़ते-बढ़ते यह अवस्था प्राप्त की है, परन्तु तमास सुख – साधनों के विकास साथ-साथ उसने मानव विनाश के साधनों का भी विकास किया है। अग्नेआस्त्रों का खतरा अब पूरे संसार पर मंडरा रहा है, मानव विनाश की कगार पर खड़ा है और जब यह समाप्त होगा तो हम पुनः आदि युग में पहुँच जाएँगे और मानव पुनः विकास करेगा।

विलफ्रडो पैरोटो (Vilfredo Pareto) के अनुसार प्रत्येक समाज राजनैतिक शक्ति के उत्थान एवं पतन के काल से गुजरता है जिसकी चक्रिक रूप में पुनरावृत्ति होती है। उसने स्पष्ट किया कि किसी भी समाज में दो प्रकार के लोग रहते हैं- एक वे जो पारम्परिक ढंगों का अनुशरण करते हैं और दूसरे वे जो अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते है। राजैतिक परिवर्तन शक्तिशालीन कुलीन वर्ग के प्रत्याशियों द्वारा आरम्भ किया जाता है, जिसकी शक्ति में जब ह्रास होता है तो पराधीन लोगों के वर्ग के प्रत्याशी शासक बनने के लिए सर उठाते हैं और पुराने को उखाड़ फेंकते हैं और शासक बन जाते हैं। इसके बाद कुलीन वर्ग शक्ति का संग्रह करता है और पुनः शासक बन जाता है और यह चक्र निरन्तर चलता रहता है।

एफ० स्टुअर्ट चेपिन (F. Stuart Chapin) ने इस सिद्धान्त की व्याख्या सांस्कृतिक परिवर्तन के आधार पर की है। उसके अनुसार संस्कृति के विभिन्न अंग (Factors) विकास, उत्कर्ष और पतन के चक्र से गुजरते हैं। उसने स्पष्ट किया कि यदि किसी संस्कृति के अंगों का चक्र एक समय में समकालिक होता है तो सम्पूर्ण संस्कृति समेकित स्थिति में होती है और यदि समकालिक नहीं हो तो संस्कृति में विघटन होता है। उसके अनुसार विकास और उत्थान का यह चक्र सांस्कृतिक स्वरूपों पर उतना ही अपरिहार्य है जितना जीवों पर।

समालोचना

संसार का इतिहास बताा है कि संसार की सभी सभ्यताएँ (समाज) उत्थान-पतन के मार्ग से गुजरी हैं परन्तु उत्थान के बाद पतन और पतन के बाद उत्थान कुछ निश्चित नियमों के अनुसार होता है, यह बात अपने में सही नहीं है। हर समाज के उत्थान-पतन की गति अलग-अलग होती है।

  1. विकास का सिद्धान्त (Evolution Theory) –

कुछ समाजशास्त्रियों ने जीव विज्ञान के विकास के सिद्धान्त को मानव समाज के विकास पर लागू किया और कहा कि मानव समाज का विकास भी एक पौधे की वृद्धि की तरह होता है। जिस प्रकार पौधे के विकास में सर्वप्रथम तना विकसित होता है, उसके बाद तने से कई शाखाएँ निकलती हैं जो भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाती हैं, इन शाखाओं से फिर कई शाखाएँ निकलती हैं जो भिन्न-भिन्न दिशाओं में जाती हैं और पौधा पेड़ का रूप धारण करता है, ठीक इसी प्रकार समाज का विकास होता है।

हरबर्ट स्पेन्सर ने मानव समाज के विकास के विषय में निम्नलिखित चार तथ्य उजागर किए-

(1) सामाजिक विकास सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के विकास (Cosmic Evolution) के परिवर्तन के नियम का मानवीय पहलू है।

(2) सामाजिक विकास उसी प्रकार होता है जिस प्रकार प्राकृतिक विकास होता है।

(3) सामाजिक विकास क्रमिक रूप में होता है।

(4) सामाजिक विकास में समाज में विजातिया बढ़ती है अर्थात् नई – नई समितियाँ , समुदाय और संस्थाएँ बढ़ती हैं।

उदाहरण के लिए आप एक महानगर के विकास को लीजिए। प्रारम्भ में जब यह गाँव था तो इसमें केवल एक ग्राम समिति थी, जब यह धीरे-धीरे बड़ा हुआ अर्थात् इसकी जनसंख्या बढ़ी तो तो यह टाउन एरिया हुआ और इसमें अनेक समितियों का निर्माण हुआ, जब इसने नगर का रूप धारण किया तो इसमें समितियों की संख्या बढ़ी और आज जब यह महानगर के रूप में विकसित है तो इसमें और अधिक समितियाँ बनी हैं- कोई नगर में सफाई की व्यवस्था देखती है, कोई नगर में पानी का प्रबन्ध करती है, कोई नगर में बिजली की व्यवस्था करती है, कोई नगर में शिक्षा की व्यवस्था करती है, कोई नगर में सड़कों की देखभाल करती है और कोई नगर में टेक्स वसूल करती है, आदि। इस प्रकार नगर के विकास के साथ भिन्नता बढ़ी और जब इस भिन्नता में समन्वय की आवश्यकता बढ़ी तो एक समन्वय समिति अथवा अधिकारी की नियुक्ति की गई। समाजशास्त्रियों का मानना है कि भिन्नता एवं समन्वय की इस दोहरी प्रक्रिया से समाज की कुशलता बढ़ती है , उसका विकास होता है।

समाजशास्त्री मैक आईवर ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। उसने स्पष्ट किया कि सामाजिक विकास विभेदीकरण और एकीकरण की ऐसी प्रक्रिया है जिससे समाज में संख्यात्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन होता है और समाज की आन्तरिक विशेषताएँ प्रकट होकर भिन्न और स्पष्ट हो जाती हैं और समाज प्रगति करता है।

समालोचना

इसमें दो मत नहीं है कि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है परन्तु हर परिवर्तन से समाज का विकास होता है, यह अपने में सही नहीं है। जिस प्रकार परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है उसी प्रकार उत्थान और पतन भी प्रकृति का शाश्वत नियम है।

उपसंहार

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त तीनों सिद्धान्त सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक विकास की प्रक्रिया की सही व्याख्या नहीं करते; सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक विकास की प्रक्रिया कुछ इतनी संशलिष्ट एवं जटिल है कि उसे सिद्धान्तों में बाँधना बहुत कठिन है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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