समाज शास्‍त्र / Sociology

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा, सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार

 सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा, सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार

(Meaning and Definition of Social Stratification, Types of Social Stratification)

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सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ एवं परिभाषा

प्रत्येक समाज में किसी व्यक्ति अथवा समूह को उसकी जाति, आयु, लिंग, व्यवसाय, पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्व आदि के आधार पर उच्च अथवा निम्न स्तर प्रदान किया जाता है। उदाहरण के लिए अपने हिन्दू समाज को ही लीजिए। इसमें कभी ब्राह्मणों को उच्च स्तर पर और शूद्रों को निम्न स्तर प्रदान जाता था। समाजशास्त्रीय भाषा में इस प्रक्रिया को सामाजिक स्तरीकरण कहते हैं। समाजशास्त्री जिस्बर्ट ने इसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है-

सामाजिक स्तरीकरण का अर्थ समाज को कुछ ऐसे स्थायी समूहों और श्रेणियों में विभक्त कर देने की व्यवस्था से है जिसके अन्तर्गत सभी समूह और श्रेणियाँ उच्चता और अधीनता के सम्बन्धों द्वारा एक दूसरे से बंधे हों।

Social stratification is the division of society in permanent groups or categories linked with each other by the relatinoship of superiority and subordination. -Gisbert

मूरे ने इस प्रक्रिया को थोड़े संक्षिप्त रूप में परिभाषित किया है। उनके शब्दों में–

स्तरीकरण समाज का वह क्रमबद्ध विभाजन है जिसमें सम्पूर्ण समाज को कुछ उच्च अथवा निम्न सामाजिक इकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है।

(Stratification is a horizontal division of society into higher and lower social units. -Murey)

सदरलैंड और वुडवर्ड ने इसे विभेदीकरण की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उनके शब्दों में –

स्तरीकरण केवल विभेदीकरण की प्रक्रिया है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे व्यक्तियों की तुलना मैं उच्च स्थिति प्राप्त होती है।

(Stratification is simply a process of interaction of differentiation whereby some people come to higher rank than others. -SutherlandSutherland and Woodward)

सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार (Types of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है- जातिगत और वर्गगत। जाति के आधार पर व्यक्ति अथवा समूह का सामाजिक स्तर निश्चित करना जातिगत स्तरीकरण कहा जाता है; जैसे – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र। इसके विपरीत व्यक्तियों को उनकी योग्यता, कुशलता, पद, अधिकार और कर्तव्य आदि के आधार पर उन्हें उच्च अथवा निम्न वर्ग में विभाजित करना वर्गगत स्तरीकरण कहा जाता है; जैसे – पद के आधार पर आई ० पी ० एस ० ऑफिसरों का उच्चतम और सिपाहियों को निम्नतम स्तर पर रखना।

सामाजिक स्तरीकरण के आधार (Bases of Social Stratification)

सामाजिक स्तरीकरण के अनेक आधार होते हैं, जैसे- जाति, आयु, लिंग, व्यवसाय, आर्थिक स्थिति, पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्व, योग्यता, कुशलता और शिक्षा। प्रत्येक समाज अपने सामाजिक मूल्यों, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार इनमें से किन्हीं विशेष आधारों पर ही सामाजिक स्तरीकरण करता है। उदाहरण के लिए बन्द (रुढीवादी) समाजों में व्यक्ति की स्थिति प्रायः जाति, लिंग और व्यवसाय के आधार पर निश्चित की जाती है और खुले (प्रगतिशील) समाजों में शिक्षा, योग्यता, कुशलता, पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर की जाती है। यहाँ सामाजिक स्तरीकरण के कुछ मुख्य आधारों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-

  1. जाति (caste)

कुछ समाज ऐसे हैं जिनमें व्यक्ति अथवा समूह की सामाजिक स्थिति उनकी जाति अर्थात् जन्म के आधार पर निश्चित की जाती है। प्राचीन भारत में पूरा समाज चार वर्गों में बँटा था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तब ब्राह्मण की स्थिति में जन्में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति उच्चतम और शूद्र जाति में जन्में व्यक्ति की स्थिति निम्नतम होती थी। परन्तु तब भी वर्ण विशेष के अन्दर व्यक्ति की स्थिति उसकी आयु, योग्यता एवं सफलता के आधार पर निश्चित होती थी।

  1. आयु (Age)

प्रायः सभी समाजों में बच्चों की अपेक्षा युवकों को, युवकों की अपेक्षा प्रौढ़ों को और प्रौढ़ों की अपेक्षा वृद्धों को अधिक अनुभवी एवं योग्य समझा जाता है और आयु में जो जितना अधिक होता है उसे समाज में उतना ही ऊँचा स्थान दिया जाता है। हमारे यहाँ आज भी जातीय समाजों में वृद्धों को उच्च सामाजिक स्तर प्राप्त होता है।

  1. लिंग (Sex)

कुछ समाजों में लिंग के आधार पर भी सामाजिक स्तरीकरण किया जाता है। परन्तु इस आधार पर तो समाज में केवल दो वर्ग भर बनते हैं। किसी भी पुरुष अथवा स्त्री की समाज में स्थिति तो उसकी जाति, आयु, योग्यता, कुशलता, व्यवसाय व सम्पन्नता आदि के आधार पर ही निश्चित होती है।

  1. व्यवसाय (Occupation)

कुछ समाजों में कुछ व्यवसाय उच्च माने जाते हैं और कुछ निम्न उदाहरण के लिए हमारे भारतीय समाज में आज भी जूते बनाने, बाल काटने व पान बेचने आदि व्यवसायों को निम्न माना जाता है और जेवरात व कपड़ों का व्यापार करने, बड़ी-बड़ी फैक्ट्री चलाने को उच्च माना जाता। यही कारण है कि यहाँ उच्च व्यवसायों में लगे व्यक्तियों को समाज में उच्च स्थान दिया जाता है और निम्न व्यवसायों में लगे व्यक्तियों को निम्न।

  1. आर्थिक स्तर (Economic Status)

आज प्रायः सभी समाजों में सिद्धान्त रूप में कुछ भी हो परन्तु व्यवहार में यह देखने में आता है कि उनमें किसी व्यक्ति अथवा समूह का सामाजिक स्तर उसकी आर्थिक स्थिति के आधार पर निश्चित होता है। धनी व्यक्तियों की न कोई जाति पूछता है और न व्यवसाय।

  1. पद, अधिकार एवं उत्तरदायित्व (Post, Rights and Duties)

शक्ति की तो सदैव से पूजा होती आ रही है। समाज में जिस व्यक्ति अथवा समूह के हाथ में जितनी अधिक शक्ति होती है उसे उतना ही उच्च स्थान प्राप्त होता है। समाज में जो व्यक्ति जितने ऊँचे पद पर होता है, उसे जितने अधिक अधिकार प्राप्त होते हैं और वह जितने अधिक उत्तरदायित्वों से लदा होता है, उसे समाज में उतना ही ऊँचा स्थान दिया जाता है।

  1. ज्ञान एवं योग्यता (Knowledge and Competency)

वर्तमान युग विज्ञान का युग है, विशेषज्ञों का युग है। आज संसार के प्रगतिशील समाजों में किसी व्यक्ति का सामाजिक स्तर उसके ज्ञान, योग्यता, कुशलता और क्षेत्र विशेष में उसकी विशेषता के आधार पर निश्चित किया जाता है। खुले समाजों में वैज्ञानिक आविष्कार करने, अपने-अपने क्षेत्रों में नई-नई खोज करने और प्रशासन में ऊँचे-ऊँचे पदों पर जिम्मेदारी पूर्ण कार्य करने वालों को उच्चतम स्थान प्राप्त होता है।

  1. शिक्षा (Education)

प्रायः सभी समाजों में दो वर्ग होते हैं- शिक्षित और अशिक्षित और हर समाज में अशिक्षित की अपेक्षा शिक्षित लोगों को उच्च स्थान दिया जाता है, और शिक्षितों में भी जो जितना अधिक शिक्षित होता है उसे समाज में उतना ही ऊँचा स्थान दिया जाता है। और दूसरी बात इस सन्दर्भ में यह है कि उचित शिक्षा द्वारा ही मनुष्य अपनी योग्यता बढ़ाता है, कुशलता बढ़ाता है, ऊँचे-ऊँचे पद प्राप्त करता है। तब कहना न होगा कि शिक्षा सामाजिक स्तरीकरण का मूल आधार होती है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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