समाज शास्‍त्र / Sociology

सामाजिक परिवर्तन के घटक कौन कौन से हैं? (Factors Affecting Social Change in hindi)

सामाजिक परिवर्तन के घटक कौन कौन से हैं? (Factors Affecting Social Change in hindi)

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 सामाजिक परिवर्तन का अर्थ है किसी समाज की अपनी संरचना , उसके अपने व्यवहार प्रतिमान और उसकी अपनी कार्य विधियों में परिवर्तन।

प्रत्येक समाज में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है। किसी समाज में सामाजिक परिवर्तन किस गति और किस दिशा में होता है, यह अनेक तत्त्वों (कारकों, घटकों) पर निर्भर करता है। इन घटकों को समाजशास्त्रियों ने दो वर्गों में विभाजित किया है- प्राकृतिक घटक और सांस्कृतिक घटका। प्राकृतिक घटकों में इन्होंने भौगोलिक तथा जैविकीय घटकों को रक्खा है और सांस्कृतिक घटकों में अभौतिक एवं भौतिक संस्कृति को। हमारी अपनी समझ में सामाजिक परिवर्तन के कारक तत्त्वों को केवल इन वर्गों में विभाजित करना उपयुक्त नहीं है। आज संस्कृति का अर्थ पहले से कुछ भिन्न लिया जाने लगा है। आज किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उस समाज की रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार-प्रतिमानों, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, आदर्श-विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से लिया जाता है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। और जिसे समाजशास्त्री भौतिक संस्कृति कहते हैं उसे अब सभ्यता कहते हैं और उसका स्वरूप सब समाजों में समान होता है। फिर वर्तमान में सामाजिक परिवर्तन में शासनतन्त्र, अर्थतन्त्र और विज्ञान की भी भूमिका होती है। यहाँ सामाजिक परिवर्तन के इन सब घटकों का वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है। (सामाजिक परिवर्तन के घटक कौन कौन से हैं?)

  1. भौगोलिक स्थिति –

प्रत्येक समाज की अपनी एक भौगोलिक सीमा होती है। इसमें स्थान विशेष की भूमि, जंगल, जलवायु, जल के स्रोत, खनिज पदार्थ आदि आते हैं। यह देखा गया है कि समाज की भौगोलिक स्थिति में परिवर्तन होने पर उसके सामाजिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए यदि किसी स्थान पर बाढ़ या तूफान से भारी क्षति हो जाती है तो वहाँ के लोग अपने आपसी भेद-भावों को भुलाकर एक-दूसरे के सहयोग से उस मुसीबत का सामना करते हैं। इसके विपरीत यदि किसी क्षेत्र में खनिज पदार्थों की खान निकल आए तो वहाँ के लोगों में संघर्ष का श्रीगणेश हो जाता है।

  1. जैविकीय विशेषताएँ –

इसके अन्तर्गत मनुष्य की प्रजाति, नस्ल, स्कन्ध, जनसंख्या, लिंग भेद आदि तत्त्व आते हैं। भिन्न-भिन्न प्रजातियों और नस्लों के लोगों की शारीरिक रचना भिन्न-भिन्न होती है जिसके कारण इन लोगों के व्यवहारों में भी भिन्नता होती है। अब जब एक प्रजाति एवं नस्ल के लोग दूसरी प्रजाति एवं नस्ल के लोगों से मिलते हैं तो उनके सामाजिक सम्बन्धों में अन्तर आता है। इसी प्रकार यदि किसी समाज की जनसंख्या तेजी से बढ़ती है तो उसमें भौतिक विकास तेजी से होता है और लोगों में द्वेष और ईर्ष्या की भावना बढ़ती है। इसके विपरीत जब किसी समाज की जनसंख्या किसी कारण एकदम कम होती है तो लोग एक दूसरे के निकट आते हैं और उनमें प्रेम और सहयोग की भावना बढ़ती है। लिंग भेद भी सामाजिक परिवर्तन का मुख्य कारक होता है। यदि किसी समाज में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या बढ़ जाती है तो उस समाज में पुरुषों के प्रति स्त्रियों के व्यवहार में अन्तर आ जाता है।

  1. सांस्कृतिक विशेषताएँ –

समाजशास्त्रियों के अनुसार संस्कृति में मनुष्य द्वारा जो कुछ भी अच्छा निर्मित है, चाहे वे विचार हों और चाहे वस्तुएँ, सभी कुछ आता है परन्तु हमारी दृष्टि से किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उसकी रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों व्यवहार प्रतिमानों, कला-कौशल, संगीत नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से है जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते गई। हम जानते है कि किसी समाज की संस्कृति में आसानी से कोई परिवर्तन नहीं होता परन्तु यदि होता है तो उसके कारण सामाजिक परिवर्तन निश्चित रूप से होते हैं। इतिहास के पन्नों पर इस प्रकार के परिवर्तनों की लम्बी कहानी अंकित है। हमारे देश में बौद्ध दर्शन एवं धर्म के प्रचार से एक बार जाति बन्धन ढीले पड़ गये थे और लोग स्वयं के मोक्ष की चिन्ता छोड़ समाज के कल्याण की बात सोचने लगे थे। यह उस समय एक क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन हुआ था।

सामाजिक परिवर्तन उस स्थिति में और तेजी से होता है जब कोई समाज दूसरे समाज की संस्कृति को अपना लेता है। इसे परसंस्कृतिग्रहण कहते हैं। उदाहरण के लिए अपने देश के मूल निवासी ईसाइयों को लिया जा सकता है। उन्होंने जैसे ही ईसाई धर्प (संस्कृति) को स्वीकार किया उनके सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन आ गया, उनमें से वर्ग भेद समाप्त हो गया। वे किसी भी वर्ग अथवा समुदाय से आए थे, उनमें आपस में प्रेम और सहयोग की भावना बढ़ गई।

  1. राज्य और शासनतन्त्र –

यूँ समाजशास्त्रियों ने राज्य और शासनतन्त्र को सामाजिक परिवर्तनों के कारक तत्त्वों में स्थान नहीं दिया है परन्तु वास्तविकता यह है कि यह प्रारम्भ से ही सामाजिक परिवर्तन का एक मुख्य कारक तत्त्व रहा है। कभी हमारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा था और उनमें एकतन्त्र शासन प्रणालियाँ थीं। तब सभी राज्यों में लोगों के सामाजिक सम्बन्ध उन शासकों के द्वारा निश्चित व्यवहार मानदण्डों पर आधारित होते थे। अंग्रेजों के शासन काल में जो कार्य समाज सुधारक नहीं कर पाए वे कार्य राज्य के कानूनों ने किए: जैसे – सती प्रथा एवं बाल-विवाह पर रोक। आज हमारे देश में लोकतन्त्र शासन प्रणाली है, पूरे देश की जनता के लिए समान कानून हैं। कुछ कानूनों ने तो बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन किए हैं; जैसे – छुआछूत विरोधी कानून के द्वारा छुआछूत का अन्त। इस लोकतन्त्र में जाति बन्धन ढीले पड़े हैं और अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ा है। बालिग लड़के-लड़कियों को अपनी इच्छा से विवाह करने की कानूनी स्वीकृति से प्रेम-विवाह का प्रचलन बढ़ा है और इससे जाति एवं धर्म के बन्धन ढीले पड़े हैं। ये सब सामाजिक परिवर्तन ही तो हैं।

  1. अर्थतन्त्र –

अर्थतन्त्र भी सामाजिक परिवर्तनों का एक प्रभावी कारक तत्त्व है। कभी हमारे समाज में कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था थी, उस समय हमारे देश में कृषि को उच्च व्यवसाय माना जाता था और तदनुकूल कृषकों का समाज में उच्च स्थान था। आज हमारे कदम औद्योगीकरण की ओर बढ़ रहे हैं। परिणाम यह है कि समाज में उद्योगपतियों को उच्च स्थान प्राप्त है। आर्थिक स्थिति भी सामाजिक परिवर्तन का कारक तत्त्व होती है। उच्च आर्थिक स्थिति के लोग प्रायः जाति व धर्म के बन्धन तोड़ अपने बराबर के आर्थिक स्तर के परिवारों में शादी सम्बन्ध करते हैं। उनका अनुकरण कर अब मध्यम आर्थिक स्तर के लोग भी ऐसा करने लगे हैं। समान व्यवसाय से जुड़े लोग भी अन्तर्जातीय विवाह में हिचक नहीं करते और ये सब सामाजिक परिवर्तन हैं।

  1. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी –

इस युग में सामाजिक परिवर्तनों का सबसे मुख्य कारण विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाले विकास हैं। कल तक हमारे परिवारों में जो अतिथि आता था हम उसकी कुशल क्षेम पूछते थे। आज हम उसे आते ही टेलीविजन के सामने बैठा देते हैं और यदि समय मिलता है तो अपनी-अपनी उपलब्धियों की चर्चा! इस युग में मशीनों के आविष्कार से कुटीर उद्योग धन्धों के स्थान पर भारी उद्योगों का विकास हुआ है। परिणामतः बेरोजगारी बढ़ी है। इससे धनी और अधिक धनी हो रहा है और निर्धन और अधिक निर्धन हो रहा है। इस स्थिति में एक नया वर्ग संघर्ष शुरू हुआ है- धनी और निर्धन का। मिल मालिकों और मजदूरों के बीच द्वेष और असहयोग की भावना बराबर बढ़ती जा रही है। प्रेम और सहयोग के आधार पर बने समाजों में द्वेष और असहयोग बढ़ रहा है। कितना बड़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है! कहाँ तक कहें, विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने तो हमारे समाज का स्वरूप ही बदल दिया है।

  1. शिक्षा –

इसमें कोई सन्देह नहीं कि उपर्युक्त सभी घटक सामाजिक परिवर्तन के मुख्य घटक हैं परन्तु इस सन्दर्भ में हमारे कुछ प्रश्न हैं। पहला यह कि प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ-साथ समाज में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें निश्चित दिशा कौन देता है? दूसरा यह कि सांस्कृतिक परिवर्तनों का मूल आधार क्या है। और तीसरा यह कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास किसकी सहायता से किया जाता है। सम्भवतः समाजशास्त्रियों ने इन प्रश्नों के उत्तर नहीं खोजे हैं। यह कार्य शिक्षा समाजशास्त्रियों ने किया और यह बताया कि यह सब कार्य शिक्षा द्वारा किया जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का मूल साधन है। अतः यहाँ शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन के सम्बन्ध में अलग से लिखना आवश्यक है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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