विकास का मिश्रित मार्ग

विकास का मिश्रित मार्ग | विकास का गाँधीवादी मार्ग

विकास का मिश्रित मार्ग | विकास का गाँधीवादी मार्ग | Mixed path of development in Hindi | Gandhian path of development in Hindi

विकास का मिश्रित मार्ग

तीसरी दुनिया के गरीब और अविकसित देशों में से ज्यादातर का औपनिवेशिक इतिहास रहा है। ये देश द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक-एक करके स्वतन्त्र हुए। इनके समक्ष आर्थिक विकास के दो मार्ग थे -पहला पूँजीवादी और दूसरा समाजवादी। आर्थिक विकास के दोनों ही मार्ग क्रमशः पहली और दूसरी दुनिया में प्रचलन में थे। थे देश सैद्धान्तिक रूप में प्रतिनिधिक लोकतन्त्र और सामान्य जन की दशा में सुधार के लिए प्रतिबद्ध थे। उन्होंने अपनी मौजूदा सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दशाओं के अनुरूप अर्थव्यवस्था का चयन किया था। भारत सहित कुछ देशों ने अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक और निजी उद्यमियों की भागीदारी की योजना बनाई। पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने आर्थिक विकास के एक ऐसे मार्ग पर चलने का निश्चय किया जो कि पूंजीवादी और समाजवादी दोनों ही व्यवस्थाओं का मिश्रण था। इस मार्ग का चयन ब्रिटिश राज की लगभग 250 सालों की अधीनता से उपजी समाजिक, आर्थिक दशाओं को ध्यान में रखते हुए किया गया । इसे ही मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम से जाना जाता है। इस आर्थिक प्रणाली में औद्योगिक उत्पादन के कुछ निश्चित क्षेत्र और सेवाएं सीधे राज्य के नियन्त्रण के अधीन होती हैं तथा अन्य क्षेत्र निजी निवेशकों द्वारा संयुक्त रुप से नियन्त्रित किए जाते हैं।

विकास का गाँधीवादी मार्ग

विकास के गांधीवादी परिप्रेक्ष्य की व्याख्या के लिए, इसे मानवतावादी और नैतिकतावादी सामाजिक दर्शन के सामान्य सैद्धान्तिक ढाँचे में देखने की जरूरत है, जिसके बारे में गाँधी न सिर्फ कहा कते थे बल्कि उसका व्यवहार भी करते थे। उनका दृष्टिकोण सत्य और अहिंसा के प्रति उनके विश्वास से बहुत गहराई से जुड़ा है। आर्थिक विकास सम्बन्धी गाँधी के दृष्टिकोण पर विचार करने से पहले हमें कुछ तथ्यों पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।

देश के विकास का मॉडल प्रस्तुत करते समय गाँधी एक राष्ट्रवादी जोश पैदा करने की भावना से भरे हुए थे। अतः विकास के प्रति उनका दृष्टिकोण विशुद्ध आर्थिक की बजाय राष्ट्रवादी और मानवतावादी अधिक था। अतः जिनके मस्तिष्क में सिर्फ विवेक सम्मत आर्थिक नियम हैं, वे गाँधी के इस दृष्टिकोण से निराश भी हो सकते हैं।

गाँधी ने औद्योगिक सभ्यता को नापसन्द किया तथा हस्तशिल्प सभ्यता का पक्ष लिया। उनके अनुसार वास्तविक भारतीय सभ्यता भारत के गाँवों में है। औद्योगिक सभ्यता यूरोप एवं अमेरिका तथा भारत के कुछ शहरों की सभ्यता है। यह सभ्यता बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकती मात्र हस्तशिल्प सभ्यता ही समय की कसौटी पर खरा उतर सकती है। गाँधी ने गाँवों के पुनरुद्धार की कल्पना की। उन्होंने 1936 में कहा कि गाँवों का पुनरुद्धार तभी सम्भव है जब इनका और अधिक शोषण बन्द हों। बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण से प्रतिस्पर्धा और विपणन से जुड़ी समस्याएं पैदा होंगी। इससे हर हाल में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ग्रामीणों का शोषण बढ़ेगा। इसलिए हमें गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने पर ध्यान देना होगा। वह हस्तशिल्प में आधुनिक मशीनों के इस्तेमाल के खिलाफ नहीं थे, लेकिन मात्र तभी तक जब तक कि ग्रामीण इनका भार वहन करने में सक्षम हों तथा इनका प्रयोग लोगों के शोषण के एक साधन के रूप में न हो।

गाँधी जी उस मशीन और तकनीक के खिलाफ थे, जो ज्यादातर लोगों को काम से बाहर कर देती है तथा जिस पर सिर्फ मुट्ठी भर लोगों का नियन्त्रण होता है। मशीन बड़े पैमाने पर उत्पादन को सम्भव बनाती है, जिसे बाद में नष्ट कर दिया जाता है, जैसा कि अमेरिका में किया जाता है। उत्पादन उस सीमा तक ही होना चाहिए, जिसके द्वारा गरीबों की जरूरतों को पूरा किया जा सके। गांधीजी वास्तव में मशीनों और भारी उद्योगों के उतने खिलाफ नहीं थे, जितने की हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के बन्द होने के, जो कि भारतीय समाज की रीढ़ थे।

यहाँ गाँधीवादी परिप्रेक्ष्य में एक अन्तर्विरोध उपस्थित होता है। गांधी एक तरफ तो यह चाहते थे कि लोग कुएं के मेंढक न बने रहें, वहीं दूसरी तरफ यूरोपीय तर्ज पर विकसित औद्योगिक सभ्यता के अनुकरण के भी खिलाफ थे। वे इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि औद्योगिक सभ्यता की बुराईयों इस व्यवस्था में ही निहित हैं। इसे अपनाने वाला समाज इन बुराईयों से भी प्रस्त होगा। लोग औद्योगिक विकास के परिणामों को, ग्रामीण समुदाय तथा परिवार संरचना के अस्तित्व के प्रति खतरे के रूप में देखते हैं। इसके अलावा लाभकर आर्थिक क्रियाओं में लगे लोगों की संख्या में कमी तथा बेरोजगारी आदि को भी वे इसी का परिणाम मानते थे।

फिर भी, गाँधी अपने बाद के चिंतन में उत्पादन कार्य में मशीनरी के प्रयोग की आवश्यकता पर थोड़ा नरम होते प्रतीत हैं, लेकिन इसका उपयोग मात्र उस सीमा तक होना चाहिए, जहाँ तक हस्तशिल्प और कुटीर उद्योग का प्रत्येक कारीगर इनका इस्तेमाल स्वयं कर सके। गांधीजी मशीन के उस सीमा तक उपयोग के विरोधी थे जो बहुसंख्यक श्रमिकों को बेरोजगार बना देती है। वे मानते थे कि गरीबी उन्मूलन तभी सम्भव है जब प्रत्येक हाथ को करने के लिए काम हो। गांधी मशीन और हस्तशिल्प का एक विलक्षण समन्वय चाहते थे। मस्तिष्क और हाथ का यह समन्वय ही समाज के गरीब लोगों के जीवन में वास्तविक स्फूर्ति ला सकता है।

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