सामाजिक विकास के कारक

सामाजिक विकास के कारक | Factors of social development in Hindi

सामाजिक विकास के कारक | Factors of social development in Hindi

सामाजिक विकास के कारक

सामाजिक विकास के कारक निम्न हैं-

आवष्किार :- अविष्कारों के कारण सामाजिक संबंधों में परिवर्तन तेजी से आता है। जिस समाज में ये जितने ज्यादे होंगे, सामाजिक विकास का रूप उसी प्रकार का होगा।

  1. संचय (Accumulation)- पुराने ज्ञान के संचय के कारण ही नये-नये आविष्कार संभव हो पाते हैं, जिनके कारण सामाजिक विकास में सहायता मिलती है।
  2. प्रसार (Diffusion)- विभिन्न आविष्कारों के प्रसार के कारण सामाजिक संबंधों में परिवर्तन तथा विकास स्वाभाविक है। आविष्कारों का प्रसार जितनी तेजी से होगा विकास की प्रक्रिया भी उतनी ही तेज होगी।
  3. सामंजस्य (Adjustment) – यदि समाज के विभिन्न भागों में सामंजस्य है तो व्यवस्था में विकास की गति तीव्र होगी। विकास के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्न सामाजिक भागों में सामंजस्य हो ।
  4. शिक्षा में वृद्धि (Increase in Education)- किसी भी समाज में शिक्षा के स्तर के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस समाज में विकास की स्थिति क्या है। वास्तव में शिक्षा प्रसार तथा उस प्रकार की गति में तीव्रता सामाजिक विकास का लक्षण माना जाता है। शिक्षा प्रत्यक्ष संबंध व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास से होता है वारकर ने लिखा है शिक्षा से तात्पर्य उस सामाजिक प्रक्रिया से है जिसके द्वारा समाज की इकाइयाँ सामाजिक चेतना के साथ-साथ मूल प्रवृत्तियाँ बन जाती हैं तथा सभी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना सीख लेती हैं शिक्षा में विकास भौतिक समृद्धता में वृद्धि के लिए भी उत्तरदायी होता है। यही कारण है कि भारतवर्ष में भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है इसका प्रमाण यह है कि 1857 ई0 में भारतवर्ष में जहाँ केवल तीन विश्वविद्यालय तथा कुछ महाविद्यालय थे वहीं आज विश्वविद्यालयों की संख्या सैंकड़ों में तथा महाविद्यालय की संख्या हजारों में पहुँच चुकी है। उत्तर प्रदेश में इधर कुछ वर्षों में शिक्षा पर व्यय दुगुना हो गया है। 1991 ई0 की जनगणना रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत वर्ष में अब 52 प्रतिशत लोग साक्षर हैं यह प्रतिशत इस आधार पर लगाया गया कि 7 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चे ही स्कूल नियमित रूप से जाते हैं। पुरुषों में साक्षरता का प्रतिशत 63.9 प्रतिशत पाया गया, जबकि स्त्रियों में यह प्रतिशत 39.4 पाया गया। यदि कुल जनसंख्या को लेकर साक्षरता पर विचार किया जाय तो पता चलता है कि साक्षरता की दर 1991 ई0 में जनगणना के आधार पर 43.3 प्रतिशत ही है जो 1981 में 32.7 प्रतिशत थी। तथा 2011 में शिक्षा में वृद्धि 47.04 प्रतिशत हो गयी है। यदि शिक्षा का विकास इस प्रकार संभव हो सका कि उनका समान लाभ सभी को मिलना प्रारंभ हो जाय तो बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि उससे समाज में विकास की प्रक्रिया तेज होगी।
  5. सामाजिक गतिशीलता (Social Mobility)- सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त करनी है सामाजिक गतिशीलता दो प्रकार की होती है।

(1) क्षैतिज गतिशीलता (Horizontal Mobility) और

(2) लंबवत् गतिशीलता (Vertical Mobility)

आधुनिकीकरण के लिए भी यह आवश्यक है कि सामाजिक गतिशीलता की मात्रा में वृद्धि हो आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी सामाजिक विकास में सहायक होती है। भारतवर्ष में जहाँ केवल क्षैतिज गतिशीलता पायी जाती थी। अब लंवगत गतिशीलता भी देखने को मिल रही है। लोग अपने अर्जित गुणों में वृद्धि करके उच्च अर्जित परिथात (Higher Achieved Status) प्राप्त कर रहे हैं, जिसके कारण लंबवत् गतिशीलता स्वाभाविक है। व्यावसायिक गतिशीलता भी सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देती है। जिससे सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।

  1. नगरीकरण (Urbanisation Process)- नगरीकरण की प्रक्रिया नगरवाद (Utbanism) की विशेषता में वृद्धि करती है जो सामाजिक विकास में सहायक होता है। नगरीकरण की प्रक्रिया वार्षिक वृद्धि में भी सहायक होती है जिससे किसी भी समाज में सामाजिक विकास देखने को मिलता है। भारतवर्ष में संभवतः इसी स्थिति के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया की तीव्र करने का प्रयास किया जा रहा है उदाहरण के लिए 1961 ई. की जनगणना रिपोर्ट से पता चलता है कि अब नगरों में रह रहे लोगों का प्रतिशत 22 है। यह वृष्टि स्पष्ट करती है कि भारतवर्ष में नगरीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है। नगरीकरण के कारण आर्थिक सुदृढ़ता में वृद्धि होती है, रहन-सहन का स्तर उच्च होता है और गतिशील सामाजिक ढाँचा निर्मित होता है जो सामाजिक विकास के लिए उचित होता है। नगरीकरण औद्योगिकरण को बढ़ावा दे रहा है जो विकास में सहायक होता है।
  2. औद्योगिकरण (Industrialization)- सामाजिक विकास के लिए औद्योगिकरण एक आवश्यक दशा है। यही कारा है कि आज सभी राष्ट्र औद्योगिकरण के लिए प्रयत्नशील है। विकसित समाजों में राष्ट्रीय आय में वृद्धि का मूल कारण औद्योगिकरण बताया जाता है। यही कारण है कि अब विकासशील देश भी औद्योगिकरण की प्रक्रिया को तेज करने में लगे हुए है। किसी भी समाज में औद्योगिकरण को अपनाने का कारण औद्योगिकरण के उद्देश्यों की प्राप्ति होता है।

औद्योगिकरण का कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्नवत् है-

(1) उत्पादन की मात्रा को बढ़ाना

(2) राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि

(3) रहन-सहन के स्तर को ऊंचा करना

(4) समाज में गरीबी तथा अन्य ऐसी समस्याओं को दूर करना

(5) समाज के परंपरागत रूढिगत विचारों तथा अंधविश्वासों को दूर करना ।

इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भारतवर्ष में भी 1956 ई. से ही औद्योगिकरण की प्रक्रिया को तेज करने का प्रयास किया जा रहा है। 1956 ई. में जो द्वितीय पंचवर्षीय योजना प्रारंभ हुई उसका मुख्य उद्देश्य मूलभूत तथा बड़े उद्योगों का विकास करना था। उसके पश्चात समस्त योजनाओं में औद्योगिकरण पर विशेष ध्यान दिया गया है। यही कारण है कि यहाँ औद्योक विकास की दर उल्लेखनीय रही है। औद्योगिकरण के कारण ही समाज की समस्त आवश्यकताओं को अब सुचारू रूप से किया जा रहा है। असंभव चीजों को संभव बनाने का श्रेय भी औद्योगिकरण को है जो सामाजिक विकास का लक्षण है।

  1. राजनैतिक व्यवस्था (Political Order)- राजनीतिक व्यवस्था का सामाजिक विकास से प्रत्यक्ष संबंध होता है। यदि किसी समाज में राजनैतिक अस्थिरता है तो वहाँ सामाजिक विकास के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। राजनीतिक व्यवस्था यदि लचकपूर्ण है तथा वह न्याय, समानता तथा शोषण विरोधी सिद्धांतों पर आधारित है तो निश्चत ही वह सामाजिक विकास में सहायक होगी। प्रजातंत्र के माध्यम से अधिकांश समाज अब सामाजिक विकास के लिए प्रयत्नशील है। भारतवर्ष में भी 1947 ई. के बाद से राजनैतिक व्यवस्था प्रजातंत्र पर आधारित है। जिसके कारण सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है। प्रजातंत्र सामाजिक विकास का मार्ग इसलिए भी प्रशस्त कर पाता है क्योंकि इसमें मानवीय स्वतंत्रता पर विशेष ध्यान दिया जाता है स्वतंत्रता प्रकृति का सबसे महानतम वरदान है जिसकी सुरक्षा प्रजातंत्र में ही संभव है।
  2. आर्थिक स्थिति (Economic Condition)- आर्थिक दशा का सामाजिक विकास से प्रत्यक्ष संबंध होता है। यदि किसी समाज की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है तो वहाँ विकास प्रक्रिया में बाधा पहुँचेगी। इसके विपरीत यदि कोई समाज आर्थिक दृष्टि से संपन्न है तो वहाँ निःसंदेह विकास की प्रक्रिया तेज होगी। मार्क्स का यह विचार कि प्रत्येक समाज में उत्पादन की पद्धति आर्थिक दशा पर आधारित होती है। सभी समाजों के लिए शत प्रतिशत सही है। भारतवर्ष में भी प्रारंभ में ही आर्थिक दशों में सुधार पर बल दिया गया है। जिसका प्रमाण पुरुषार्थ में अर्थ के महत्व से सिद्ध होता है। चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) में अर्थ की महत्ता को सभी आश्रमों में स्वीकार किया गया है। यह अवश्य है कि कहीं इसकी महत्ता स्पष्ट है तो कहीं अस्पष्ट।

इस प्रकार उपर्युक्त करत साधारणतया सभी समाजों में विकास की प्रक्रिया पर प्रभाव डालते है। चाहे वह विकसित समाज हो या अविकसित समाज।

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