कार्ल मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत | Karl Marx’s theory of historical materialism in Hindi
कार्ल मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत | Karl Marx’s theory of historical materialism
कार्ल मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत
कार्ल मार्क्स ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत के प्रतिपादक है। उन्होंने इतिहास की आर्थिक व्याख्या करते हुए समाज और इतिहास के मध्य सिद्धांत को प्रतिपादित किया उसे ही ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा गया है। उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों का भौतिक आधार खोज कर इतिहासका एक विज्ञान का स्वरूप प्रदान किया है।
ऐतिहासिक भौतिकवादी मार्क्स द्वारा दिए गये उनके समाज तथा इतिहास के सिद्धांत का नाम है। इसका आधार काल्पनिक या दार्शनिक नहीं अपितु उस नियम की व्याख्या है जो कि मानव इतिहास की गतिविधि को निर्धारित करती है। इसके द्वारा मार्क्स ने हीगल द्वारा प्रस्तुत इतिहास की आदर्शात्मक व्याख्या के स्थान पर अपनी भौतिकवादी व्याख्या की प्रतिष्ठा की है।
ऐतिहासिक भौतिकवादी की बुनियादी स्थापनाओं की मुख्य-मुख्य बातों की रूपरेखा श्री मार्क्स ने अपनी प्रख्यात कृति जर्मन विचारधारा में प्रस्तुत की है।’ श्री मादर्स की ऐतिहासिक भौतिकवाद की इस महान खोज ने विश्व इतिहास के समूचे दृष्टिकोण में वास्तविक क्रांति ला दी उसे एक झटके के साथ मोड़ दिया। इस खोज ने इतिहास का एक विज्ञान बना दिया। मार्क्स को यह मूलभूत ऐतिहासिक क्रम भौतिक मूल्य के उत्पादन में समाज के भौतिक जीवन की परिस्थितियों में ही प्राप्त हुआ था। सबसे पहले मार्क्स ने ही इस रचना में यह विचार रखा था कि सामाजिक- आर्थिक ढाँचों का परिवर्तन वस्तुगत नियमों से ही होता है वस्तुगत नियमों के अनुसार ही एक सामाजिक आर्थिक ढाँचा दूसरे की जगह लेता है इसे प्रमाणित करने के लिए उन्होंने यह दिखाया कि इतिहास के दौर में किस प्रकार आदिम सामंती और पूँजीवादी साम्पत्तिक संबंध एक दूसरे स्थान पर आते-जाते रहते हैं। मार्क्स द्वारा प्रस्तुत इतिहास के इस (Understanding) आवश्यक है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद इस प्रश्न का उत्तर देता है कि वह कौन सा भौतिक प्रभाव है जो इतिहास की घटनाओं का संचालन व नियमन करता है। मार्क्स के अनुसार समाज के भौतिक जीवन की अवस्थाएं (Conditions of Material Life of Society) अंतिम रूप से समाज की संरचना विचार, राजनीतिक संस्थाओं आदि को निर्धारित करती है, श्री मार्क्स इस विचार से सहमत नहीं है कि भौगोलिक पर्यावरण या जनसंख्या आदि का कोई निर्णायक प्रभाव हो सकता है।
यह सच है कि समाज के भौतिक जीवन की अवस्थाओं की धारण के अंतर्गत सर्वप्रथम प्रकृति या भौगोलिक पर्यावरण (Geographical Environment) आता है। यह भी सच है कि भौगोलिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन और उसके विकास का काफी प्रभाव पड़ता है। फिर भी ऐतिहासिक भौतिकवाद इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि भौगोलिक पर्यावरण का यह प्रभाव सब कुछ है या मुख्यतः. इसके द्वारा ही समाज की संरचना, सामाजिक व्यवस्था की प्रकृति, एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में परिवर्तन आदि निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में भौगोलिक पर्यावरण का सामाजिक जीवन पर निर्णायक प्रभाव (Determining Influence) नहीं होता है, क्योंकि इतिहास इस बात की साक्षी देता है। कि भौगोलिक पर्यावरण के परिवर्तन व विकास की अपेक्षा कहीं अधिक तेजी से सामाजिक परिवर्तन व विकास घटित होते हैं।
यह भी सच है कि समाज के भौतिक जीवन की अवस्थाओं की धारणा के अंतर्गत जनसंख्या की वृद्धि भी आ जाती है। क्योंकि मनुष्य या जनसंख्या समाज के भौतिक जीवन की अवस्था का आवश्यक तत्व है। एक न्यूनतम (Minimum) जनसंख्या के बिना समाज का भौतिक जीवन बन ही नहीं सकता। तो क्या मनुष्य की सामाजिक व्यवस्था के निर्धारण में जनसंख्या की वृद्धि ही प्रमुख शक्ति है? ऐतिहासिक भौतिकवाद का उत्तर है नहीं। सामाजिक विकास पर जनसंख्या की वृद्धि का निर्णायक प्रभाव नहीं हो सकता क्योंकि यह कारक यह नहीं बता सकता कि एक सामाजिक व्यवस्था के स्थान अमुक सामाजिक व्यवस्था ने ही क्यों ले लिया, क्योंकि आदिम साम्यवादी व्यवस्था का स्थान पर दास व्यवस्था का ही उदय हुआ क्यों दास व्यवस्था का स्थान सामंतवादी व्यवस्था और सामंतवादी व्यवस्था का स्थान पूँजीवादी व्यवस्था ने ही ले लिया, अन्य किसी व्यवस्था में नहीं। यदि जनसंख्या की वृद्धि ही सामाजिक विकास का निर्णायक कारण होता है जिस समाज की जनसंख्या अधिक है यहाँ कि सामाजिक व्यवस्था भी उच्च कोटि की होनी चाहिए थी परंतु ऐसा देखने को नहीं मिलता है। उदाहरणार्थ चीन देश की जनसंख्या का घनत्व अमेरिका से चार गुना अधिक है। परंतु वहाँ की सामाजिक व्यवस्था न तो पूर्णतया पूँजीवादी है और न समाजवादी ही ।
यदि भौगोलिक परिस्थितियाँ या जनसंख्या में वृद्धि सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं के निर्णायक कारण नहीं है तो वह कौन सी शक्ति है जोकि इतिहास की घटनाओं (Phenomena) सांस्कृतिक व्यवस्था मनुष्य के नैतिक धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचार एवं संस्थाओं का निर्धारण तथा नियमन करती है? यह शक्ति ऐतिहासिक, भौतिकवाद के अनुसार मानस-अस्तित्व के लिए आवश्यक जीवन के साधनों को प्राप्त करने की प्रणाली (Method of Procuring the means of life) अर्थात भौतिक मूल्यों (भोजन, कपड़ा, मकान उत्पादन के उपकरणों आदि) की उत्पादन प्रणाली (The mode of production of material Value) में निहित है। संक्षेप में यह उत्पादन प्रणाली का ही प्रभाव है जो इतिहास की घटनाओं को मुख्यतया निर्धारित करती है। इसीलिए इसे मार्क्स के इतिहास की भौतिक व्याख्या अथवा इतिहास की उत्पादन प्रणाली द्वारा व्याख्या भी कहा जाता है। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद का प्रमुख तत्व है। आर्थिक निर्णायकवाद (Economic Determinism) इसका अर्थ यही नहीं है कि मानव जो कुछ भी करता है उसका निर्णय आर्थिक या भौतिक स्वार्थों की प्रेरणा से होता है। मार्क्स का यह विश्वास नहीं है कि आप सामाजिक व्यवस्था की व्याख्या उन हेतुओं के विश्लेषण द्वारा कर सकते हैं जिनसे प्रेरित होकर मनुष्य कार्य करता है। उनका कथन यह है कि इतिहास के निर्माण के लिए प्रथम आवश्यकता यह है कि मनुष्य जिंदा रहे और उसके जिंदा रहने के लिए उसे भोजन कपड़ा मकान आदि भौतिक मूल्यों की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह उत्पादन करता है और उत्पादन करने के लिए उसे उत्पादन के उपकरणों या साधनों (Instruments of Production) की आवश्यकता पड़ती है।
अतः समाज के इतिहास के नियमों के अध्ययन का सूत्र हमे मनुष्यों के मस्तिष्क में या समाज के विचारों और दृष्टिकोणों में ही बल्कि एक विशेष ऐतिहासिक युग में अपनायी जाने वाली उत्पादन प्रणाली में अर्थात समाज के आर्थिक जीवन में खोजना चाहिए। इसलिए ऐतिहासिक विज्ञान का सर्वप्रमुख कार्य उत्पादन के नियमों के उत्पादन-शक्ति तथा उत्पादन संबंधों के विकास के नियमों को समाज के आर्थिक विकास के नियम को प्रकट करना है।
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