राज्य और शिक्षा | विकास के मार्ग में शिक्षा का योगदान | विकास की प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका
राज्य और शिक्षा | विकास के मार्ग में शिक्षा का योगदान | विकास की प्रक्रिया में शिक्षा की भूमिका | State and education in Hindi | Contribution of education in the path of development in Hindi | Role of education in the process of development in Hindi
राज्य और शिक्षा
शिक्षा की विकास में निर्णायक भूमिका है। ऐसा इसलिए नहीं है कि संचार तथा तकनीक के विकास के लिए शोध और आविष्कार का बहुत अधिक महत्व है। बल्कि इसलिए है कि लोगों के मध्य जागरूकता पैदा करने तथा प्रगति, विकास और आधुनिक मूल्यों में आस्था उत्पन्न करने में शिक्षा की अहम भूमिका है।
भारत सरकार ने शिक्षा के प्रोत्साहन के प्रति अपनी चिन्ता को लेकर गम्भीरता एवं सतर्कता का परिचय दिया है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक सुझाव देने हेतु सरकार ने समय- समय पर विभिन्न आयोगों जैसे मदालियर आयोग, कोठारी आयोग का गठन किया है। सरकार की इस गम्भीरता के बावजूद शत-प्रतिशत नामांकन अथवा नामांकन और स्कूल में रुकने के प्रति सुझाव सुनिश्चित कर सकना सम्भव नहीं हुआ। अर्थात् बड़ी संख्या में विद्यार्थी उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में जाने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं।
विकास के लिए शिक्षा बहुत जरूरी है। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि शैक्षिक रुप से पिछड़े हुए क्षेत्रों ने, विकास की नीतियों एवं कार्यक्रमों के उचित क्रियान्वयन में सकारात्मक और मुखर रुचि नहीं दिखाई है। शिक्षा राज्य की नीतियों एवं कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए लोगों को तैयार करती है। शिक्षा लोगों में विकास के लिए जरूरी अवसंरचना की माँग तथा संस्कृति में हुए आवश्यक परिवर्तनों को समझने की जरूरत पैदा करती हैं। शिक्षा की प्रकृति, उभरती अर्थव्यवस्था की जरूरत के अनुसार पुनर्प्रतिपादित एवं निर्धारण की जाती है। आधुनिक अर्थव्यवस्था पूरी तरह ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था है। कम्प्यूटर एवं सूचना तकनीक आर्थिक क्रियाओं के लिए जरूरी अवसंरचना का निर्माण करते हैं। इसी का परिणाम है कि आज विभिन्न नए पाठ्यक्रम विशेष कर व्यावसायिक प्रकृति के जैसे सूचना तकनीकी, कम्प्यूटर तथा व्यापार एवं वित्तीय प्रबन्धन लोकप्रिय हो गये हैं। आज विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में परम्परागत सैद्धान्तिक शिक्षा का महत्व कम हो गया है। सरकार लोगों के मध्य शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियां एंव कार्यक्रम बनाती है। वह आधुनिक व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को सहायता उपलब्ध कराती है तथा इनके लिए नए संस्थान खोलती है।
देश में शिक्षा विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा के त्वरित प्रसार में सरकार न तो विफल सिद्ध हुई है और न ही उसने इस सम्बन्ध में किसी गम्भीर चिन्ता का प्रदर्शन किया कोठारी कमीशन के शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) के 6 प्रतिशत खर्च करने के सुझाव के बावजूद सरकार 3 से 4 प्रतिशत से अधिक खर्च करने को तैयार नहीं पाई गई। वैसे पिछले सालाना वजट से सरकार शिक्षा के प्रति जागरूक प्रतीत होती है। देश में आज भी लगभग 40 प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। प्राथमिक कक्षाओं में नामांकित लगभग 80 प्रतिशत विद्यार्थी उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं तक पहुँचते-पहुँचते पढाई छोड़ देते हैं। विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है लेकिन शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा की गुणवत्ता एंव ढाँचागत सुविधाओं में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। 1857 में बम्बई, कलकत्ता एवं मद्रास-केवल तीन विश्वविद्यालय थे। 1947 में विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़कर 19 हो गई और 1947 से 2005 के बीच विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़कर 320 तक पहुंच गई। महाविद्यालयों की संख्या जहाँ 1947 तक कुल 500 ही थी, वहीं यह वर्ष 2005 में बढ़कर 16,000 हो गयी।
भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने उच्च शिक्षा की सार्थकता एवं गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए सैम पित्रोदा के नेतृत्व में एक ‘ज्ञान आयोग’ का गठन किया, जिसकी जिम्मेदारी थी कि शिक्षा के सम्बन्ध में कितना समय लगता जो 69 वर्ष की औसत आयु प्राप्त करने में सहायक हो। वे कहते हैं कि इसमें लगभग 58 से 152 वर्ष तक लग सकते थे। इस तरह के आकलन ने स्थगन सिद्धान्त में निहित मूल्य को एक ठोस रूप प्रदान किया है। माँग आधारित राजनीति, नियंत्रणात्मक राजनीति की अपेक्षा अधिक बेहतर हैं क्योंकि यह जनता/मतदाता के कल्याण, सामाजिक न्याय तथा उसकी घोर जरूरतों का ध्यान रखती हैं।
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