राज्य और विकास | राज्य की आर्थिक नीति | राज्य का विकास पर प्रभाव
राज्य और विकास | राज्य की आर्थिक नीति | राज्य का विकास पर प्रभाव | State and development in Hindi | Economic policy of the state in Hindi | Impact of state on development in Hindi
राज्य और विकास
किसी देश की विकास प्रक्रिया में सरकार केन्द्रीय भूमिका निभाती है। हालांकि सांस्कृतिक और संरचनात्मक दशाएं विकास की अनिवार्य शर्तें हैं, फिर भी राज्य की भूमिका सर्वोपरि है। इसका कारण है कि राज्य द्वारा निर्मित औद्योगिक वातावरण तथा उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई जरूरी सहायता उद्यमियों को विकास मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरक शक्ति का कार्य करती है। उच्च स्तरीय उद्यमीय कौशल और उपलब्धि अभिप्रेरण जिसे शुम्पीटर रेखांकित करते हैं, का मौजूद होना ही काफी नहीं है। उद्यमियों की आपूर्ति और व्यापार क्षेत्र में उनका प्रवेश तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि सरकारी आर्थिक नीतियाँ सहयोगी और उत्साहवर्द्धक न हों।
किसी देश के आर्थिक विकास में ही नहीं बल्कि सामाजिक एवं राजनीतिक विकास में भी राज्य की निर्णायक भूमिका होती है। दुनिया के अधिकांश राज्य, जो लोकतांत्रिक एवं कल्याणोन्मुखी है, असमानता में कमी लावार, साक्षरता को प्रोत्साहित कर, सभी को स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ कराकर, शिशु मृत्यु दर तथा जन्म एवं मृत्युदर में कमी लाकर समाज में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का प्रयत्न करते हैं। भारत सरकार ने सामान्यतया विकास के लिए निम्नलिखित साधन अपनाए हैं-
राज्य की आर्थिक नीति
राज्य देश में जारी आर्थिक गतिविधियों की प्राथमिकता एंव दिशा का निर्धारण करता है। आर्थिक विकास की प्रकृति एवं मात्रा इस बात पर निर्भर है कि राज्य अपनी आर्थिक सफलता के लिए किस तरह योजना बनाता है तथा लक्ष्य निर्धारित करता हैं।
जब हम भारत में आर्थिक नियोजन के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो हमें देश में दो प्रमुख आर्थिक प्रणालियां मिलती हैं। पहली प्रणाली का आरम्भ भारत की स्वतन्नता के साथ हुआ। इस प्रणाली के माध्यम से भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के दर्शन के साथ अपने स्वशासन की शुरुआत की। इस आर्थिक प्रणाली में निजी और सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्र शामिल होते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र से तात्पर्य उस औद्योगिक क्षेत्र से है, जिसमें पूँजी और स्वामित्व सीधे सरकार के अधीन होता है। निजी क्षेत्र के अन्तर्गत वे औद्योगिक इकाइयां आती हैं, जिनमें वैयक्तिक उद्यमियों द्वारा निवेश किया जाता है। कुछ निश्चित उद्योगों को राज्य के लिए आरक्षित करने के पीछे, आर्थिक शक्ति के कुछ हाथों में केन्द्रीकरण को रोकने तथा सामान्य जनता को काम देने का विचार था। स्वास्थ्य, सुरक्षा एवंक्षसामरिक महत्व के तथा अन्य इसी तरह के उद्योगों को राज्य के नियन्त्रत के अधीन किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग सरकार द्वारा हानि-लाभ से तटस्थ रहते हुए स्थापित किए गए थे। ये समाज के प्रत्येक भाग को हर हाल में काम देने से सम्बन्धित थे। भारत सरकार ने आरक्षण नीति के माध्यम से पहले अनुसूचित जाति तथा बाद में अन्य पिछड़े वर्गों को भी नौकरियां देने का प्रयास किया ताकि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारा जा सके।
भारत सरकार ने अस्सी के दशक के अन्त में यह अनुभव किया कि 1950 से 1990 तक की आर्थिक प्रणाली मेवाति परिणाम नहीं किया। इस पूरी अवधि में वार्षिक वृद्धि दर कभी भी 3-4 प्रतिशत से अधिक नहीं रही बहुत-सी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइ बीमार हो गई या बन्द होने के कगार पर पहुंच गई।
1991 के बाद से भारत सरकार ने निजीकरण को प्रोत्साहित करना तथा सार्वजनिक क्षेत्र का आकार धीरे-धीरे कम करना शुरू किया। भारत सरकार द्वारा अब विनिवेश करना आरम्भ किया है। फिर भी, समाजवादी दल लगातार विनिवेश का विरोध कर रहे हैं। अब कुछ ही उद्योग है जो औद्योगिक लाइसेंस की सीमा में जाते हैं। कोयला, लिग्नाइट तथा खनिज तेल भी सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की सूची से हटा दिए गए हैं।
भारत सरकार द्वारा 1991 से अपनाई गई उदारीकरण की नीति ने उद्यमिता और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जहां सन् 1990 के आस- पास 10 लाख लघु स्तरीय उत्पादन की इकाइयां थीं, वहीं सन् 2000 तक इनकी संख्या बढ़कर 30 लाख के आस-पास हो गई। लालफीताशाही समाप्त हो गई है। लोग एक ऑफिस या टेवल से दूसरे तक दौड़ने और फिर भी कर्मचारियों की हथेली नरम किए बगैर काम न करा सकने की समस्या से छुटकारा पा गए है।
सामान्य रूप से देश के नागरिकों तथा विशेष रूप से कामगारों के कल्याण के विषय में राज्य की भूमिका सर्वोच्च है। अस्सी के दशक के मोड़ के साथ ही राम वैधकरण की एक ऐसी क्रान्तिकारी प्रक्रिया को देख रहे हैं जिसे पलटा नहीं जा सकता। सरकार ने इस प्रक्रिया के अन्तर्गत अब आर्थिक समृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए अर्थव्यवस्था के निजीकरण और उदारीकरण पर जोर दिया है। सोवियत संघ द्वारा सात दशक से अधिक समय से अपनाई गई समाजवादी विचारधारा पूँजीवाद के वर्चस्ववादी वैश्विक विस्तार के आगे धराशायी हो गई। इसके मध्य संतुलन भी समाप्त हो गया। वादी अर्थव्यवस्था आज शक्तिशाली हो गई है तथा यह नि अर्थव्यवस्था की विशेषता बन गई है। बाजार के नियम आज लोगों के आर्थिक के साथ साथ सामाजिक व्यवहार को भी नियंत्रित करते हैं। विश्व का वि-ध्रुवीकरण हो गया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही मिश्रित अर्थव्यवस्था के दर्शन का पालन करने हुए भारत सरकार ने निजी और सा-जनिक क्षेत्र के बीच एक सन्तुलन कायम कर रखा था। इस वि-ध्रुवीकरण के परिणामस्वरूप भारत भी अब व्यापार और औद्योगिक नीतियों के अन्तर्गत व्यापार से तमाम प्रतिबन्धों को हटा लिया तथा व्यक्तिगत निवेशकों को व्यापक मात्रा में स्वतन्त्रता प्रदान की।
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