
संरचना एवं प्रकार्य का अंतःसंबंध | संरचना एवं प्रकार्य के अंतःसंबंध निर्भरता का विश्लेषण | Interrelationship of structure and function in Hindi | Analysis of interdependence of structure and function in Hindi
संरचना एवं प्रकार्य का अंतःसंबंध

संरचना से अभिप्राय विभिन्न अंगों तथा तत्वों की किसी प्रकार की क्रमिक व्यवस्था है, जबकि ‘प्रकार्य’ का अर्थ है, विभिन्न निर्माणक इकाइयों की व्यवस्था द्वारा निर्धारित एवं व्यवस्था को बनाये रखने वाले वे क्रियाकलाप जो संरचनात्मक निरंतरता को बनाए रखने में योगदान कर रहे हों।
अधिक स्पष्ट एवं संक्षिप्त रूप में हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक संरचना’ समाज को बनाने वाले विभिन्न तत्वों या इकाइयों का एक विशिष्ट प्रतिमान है और ‘प्रकार्य’ सामाजिक व्यवस्था द्वारा निर्धारित व उसे बनाए रखने वाले विभिन्न निर्माणक तत्वों की वह क्रिया है जिसमें संरचनात्मक निरंतरता बनी रहती है। इस प्रकार प्रकार्य के बिना संरचना अर्थहीन है और बिना संरचना के प्रकार्य आधारविहीन है। प्रकार्य संरचना के अस्तित्व व निरंतरता के लिए आवश्यक है और संरचना के बिना प्रकार्य संभव नहीं, क्योंकि कोई भी क्रिया शून्य में नहीं होती, उसके घटित होने के लिए संरचनात्मक परिस्थिति या आधार का होना अनिवार्य है। साथ ही समाज का निर्माण करने वाली किसी भी इकाई या तत्व के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए यह जानना आवश्यक होगा कि संरचना के अंदर उस तत्व की स्थिति क्या है, क्योंकि प्रत्येक तत्व संरचना में किसी विशिष्ट स्थिति में रहकर ही समाज द्वारा निर्धारित प्रकार्य कर सकता है। इस प्रकार संरचना में एक निर्माणक तत्व की स्थिति प्रकार्य को निश्चित एवं संचालित करती है।
संरचना तथा प्रकार्य में पारस्परिक संबंध व अंतःनिर्भरता होने के कारण जब कभी संरचना में परिवर्तन होता है तो नवीन व पुराने तत्वों के प्रकार्यों में भी परिवर्तन होना आवश्यक हो जाता है। ठीक इसी प्रकार जब निर्माणक तत्वों के प्रकार्यों में परिवर्तन होता है या वे कार्य करना स्थगित कर देते हैं अथवा सामाजिक संगठन व व्यवस्था के प्रतिकूल कार्य-अकार्य (Dysfunction) करना प्रारंभ कर देते हैं, तो संरचना में परिवर्तन होना भी निश्चित है। इसलिए किसी भी अध्ययन के लिए निर्माणक तत्वों की संरचना तथा उनके पूर्व-निश्चित प्रकार्यों को जानना अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना किसी भी अध्ययन को पूर्ण व यथार्थ नहीं कहा जा सकता। यही संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण है।
“प्रत्येक नई पीढ़ी में समाज की सदस्यता बिल्कुल पलट जाने पर भी किस तरह, समय के गुजरने के साथ, सामाजिक जीवन बना रहता है और आगे बढ़ता जाता है?” मुख्य उत्तर जो यह दृष्टिकोण देता है वह है- “सामाजिक जीवन बना रहता है, क्योंकि समाज साधनों (संरचना) को प्राप्त करता है जिनके द्वारा वे (समाज) उन आवश्यकताओं (प्रकार्यो) की पूर्ति करते हैं जोकि या तो संगठित सामाजिक जीवन की पूर्व-शर्त है, अथवा परिणाम।”
अर्थात् किसी भी समाज के अस्तित्व व निरंतरता के लिए साधन (संरचना) और आवश्यकताएँ (प्रकार्य) जो साधन द्वारा पूरी होती है और जिसके द्वारा सामाजिक जीवन निश्चित होता है, दोनों ही आवश्यक हैं। इसीलिए किसी भी समाज या उसके अंग के अध्ययन के लिए संरचना और प्रकार्य का अध्ययन आवश्यक होता है, क्योंकि इन्हीं के द्वारा सामाजिक जीवन का अस्तित्व व निरंतरता बनी रहती है।
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