समाज शास्‍त्र / Sociology

पारसंस के संरचनात्मक प्रकार्यवाद | टालकॉट पारसंस की सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा

पारसंस के संरचनात्मक प्रकार्यवाद | टालकॉट पारसंस की सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा | Parsons’ Structural Functionalism in Hindi | Talcott Parsons’ concept of social system in Hindi

पारसंस के संरचनात्मक प्रकार्यवाद

पारसंस के अनुसार, सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिये अनेक सामाजिक नियम होते हैं और इनमें से सभी नियमों के कुछ-न-कुछ सामाजिक प्रकार्य अवश्य ही होते हैं। उदाहरणार्थ व्यासायिक नियमों के एक विशेष व्यवसाय के क्षेत्र में कुछ निश्चित प्रकार्य होते हैं। जैसे- उस व्यवसाय में प्रवेश की दशाओं को निर्धारित करना, उसमें कार्यरत सदस्यों के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों को परिभाषित करना, मालिक तथा कर्मचारी के बीच संबंधों को निश्चित करना आदि। इसके अतिरिक्त वे उस व्यवसाय से संबंधित विभिन्न व्यक्तियों के पारस्परिक संबंधों तथा अंतःक्रियाओं को सुविधाजनक बनाते हैं।

पारसंस के अनुसार प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के बने रहने के लिए कुछ प्रकार्यात्मक आवश्यकतायें होती है। इनका संबंध केवल सामाजिक व्यवस्था से ही नहीं, अपितु व्यक्ति की वैयक्तिक व्यवस्था से भी होता है। वैयक्तिक व्यवस्था में रहने की प्रकार्यात्मक आवश्यकता यह है कि व्यक्ति के विकास के लिए सावयव के साथ-साथ एक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति अवश्य हो जिससे कि व्यक्ति को विकास का और अपनी भूमिका को निभाने का अवसर मिले। उसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक आवश्यकता यह है कि उसको क्रियाशील रखने वाले सदस्यों का अस्तित्व बना रहे और उनका सामाजिक प्राणी के रूप में आवश्यक सहयोग और योगदान संभव हो। पारसंस के अनुसार किसी भी सामाजिक व्यवस्था के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करे ताकि उन सदस्यों का अस्तित्व बना रहे। सामाजिक व्यवस्था अपने इस प्रकार्य को तभी निभा सकती है जबकि उसके पास कुछ ऐसे साधन हों जिनसे वह अपने सदस्यों की उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके साथ ही प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समाजीकरण के कुछ साधन या संस्थाओं का होना भी आवश्यक है ताकि बच्चों को सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित किया जा सके। इसी प्रकार प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में आधारभूत मूल्यों की एक व्यवस्था का होना भी आवश्यक है ताकि उसी के अनुसार समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व को ढालने का प्रयत्न किया जा सके।

पारसंस का मानना है कि सामाजिक व्यवस्था के किसी भी अंग को संपूर्ण व्यवस्था से पृथक मानकर समझा नहीं जा सकता क्योंकि इन अंगों में एक प्रकार्यात्म संबंध होता है और इस संबंध के कारण संपूर्ण व्यवस्था के संदर्भ में ही उनको समझना संभव है। इसलिए पारसंस ने संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को अपने अध्ययन का आधार माना है ताकि उसके अलग-अलग तत्वों तथा उनके बीच पाये जाने वाले प्रकार्यात्मक संबंधों को स्पष्ट किया जा सके।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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