पर्यावरण शिक्षा के सिद्धान्त

पर्यावरण शिक्षा के सिद्धान्त | Principles of Environmental Education in Hindi

पर्यावरण शिक्षा के सिद्धान्त | Principles of Environmental Education in Hindi

पर्यावरण शिक्षा के सिद्धान्त

पर्यावरण शिक्षा के सिद्धान्तों का वर्णन निम्नवत् किया जा सकता है-

  1. सामुदायिक साधनों का उपयोग-

समुदाय और समाज का अध्ययन तथा उसमें जीने की कला का प्रशिक्षण समाज एवं समुदाय में उपलब्ध साधनों और स्रोतों से बिलग रहते हुये किया जाना न तो उचित ही है और न समुचित रीति से सम्भव ही। अतः समाज एवं समुदाय में उपलब्ध साधनों का यथोचित प्रयोग सामाजिक अध्ययन (पर्यावरणीय अध्ययन) के शिक्षण में किया जाना चाहिये। इस हेतु शिक्षक शिक्षार्थियों को समाज के कतिपय संस्थानों, जैसे- डाकखाना, कारखाने, जलदाय विभाग आदि की प्रक्रियाओं का अवलोकन करा सकते हैं। अन्य परिस्थितियों जैसे-गन्दी बस्तियों आदि का अध्ययन और सर्वेक्षण तथा समाज के निष्णात व्यक्तियों के भाषण अथवा वार्ताओं का आयोजन।

  1. कार्यों एवं प्रयासों द्वारा सीखना-

क्योंकि पर्यावरणीय अध्ययन में कई प्रकार के कौशल तथा दक्षताओं को सीखना होता है। दक्षताओं के विकास हेतु क्रियाएँ करनी पड़ती है। केवल सुनने मात्र से या पढ़ने मात्र से उनका विकास असम्भव है। चित्र, रेखचित्र, ग्राफ तथा मानचित्र आदि द्वारा किया गया अभ्यास ही विद्यार्थियों को लाभप्रद होता है। अधिकतम सिखाने हेतु इनके प्रयास किये जाने चाहिये।

  1. मानसिक क्षितिज का विस्तार-

व्यक्ति का सामाजिक जीवन माँ की गोद से प्रारम्भ होता है, जो धीरे-धीरे विकसित होकर परिवार, पास-पड़ोस, समाज, विद्यालय, नगर, राज्य, राष्ट्र यहाँ तक कि सम्पूर्ण विश्व को भी अपने में समाहित कर लेता है। यदि उसके सामाजिक जीवन के विकास के साथ-साथ उसके ज्ञान एवं मानसिक विशेषताओं, अभिरुचियों एवं सामाजिक दक्षताओं का विस्तार, विकास अथवा स्थानान्तरण नहीं हो पाता है, तो उसके सामाजिक जीवन में असमायोजन उत्पन्न हो जाता है। यह स्थिति व्यक्ति एवं समाज दोनों ही दृष्टि से उपयुक्त नहीं रहती। शिक्षण व्यवस्था में इस हेतु कई विधाओं का उपयोग किया जा सकता है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  • पाठ्यक्रम का समायोजन-

मानसिक क्षितिज के विस्तार के बिन्दु को ध्यान में रखना आवश्यक है। पाठ्यक्रम संयोजन के समय यदि विषय बिन्दुओं का चयन एवं संयोजन इस बिन्दु को ध्यान में रखते हुए किया जाये, तो इस सिद्धान्त का परिपालन एवं उससे सम्बद्ध प्रयोजनों की उपलब्धि सरल हो जाती है।

  • समाज में प्रत्यक्ष सम्पर्क के अवसरों का उपयोग-

विद्यार्थियों के जीवन में इस प्रकार के अवसर सामान्यतया आते ही रहते हैं, जबकि वे वृद्ध समाज के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आते हैं। सामाजिक उत्सव, समाजसेवा सम्बन्धी कार्य, सार्वजनिक जुलूस, भाषण मेले, यात्राएँ तथा अन्य आयोजन आदि इसी श्रेणी में आने वाले वे कार्य हैं जो कक्षा के कमरों में नहीं सीखे जा सकते अपितु प्रत्यक्ष सम्पर्क में सीखे जाते हैं।

  • परोक्ष सम्पर्क के साधनों का प्रयोग-

समाज में सम्पर्क स्थापित करने के परोक्ष साधन भी हैं। रेडियो, समाचार, वार्ताएँ, दूरदर्शन कार्यक्रम, समाचार पत्र, चलचित्र, पुस्तकालय आदि ऐसे साधन हैं जो समाज के साथ परोक्ष सम्पर्क स्थापित करने में सहायक होते हैं। यह परोक्ष सम्पर्क, प्रत्यक्ष सम्पर्क की पूर्व सीढ़ी का काम देता है और प्रत्यक्ष सम्पर्क सम्बन्धी जटिलता को सरल बना देता है। फलतः पर्यावरणीय अध्ययन के शिक्षक को इन साधनों का अपने शिक्षण में अधिकाधिक प्रयोग करते रहना चाहिये।

  1. सामयिक घटनाओं का प्रयोग-

सामयिक घटनाएँ भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों को ही समझने एवं भावी कार्य दिशा निर्धारित करने में सहायक होती है। समाज की नयी गतिविधयाँ भूत पर आधारित है और भविष्य की ओर इंगित करती है। कक्षा स्तरानुकूल सन्दर्भ उपयोग एवं सामाजिक घटनाओं का उपयोग अपेक्षित है।

  1. जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में रहने के अवसर प्रस्तुत करना-

पर्यावरणीय अध्ययन मात्र ज्ञान एवं जानकारी का संकलन नहीं, बल्कि समूचित सामाजिक भावनाओं, रुचियों एवं दक्षताओं का प्रशिक्षण इसके अध्ययन से मिलता है। ये गुण पुस्तक के पढ़ने अथवा भाषण सुनने मात्र से विकसित नहीं होता। इसके लिये आवश्यक है विद्यार्थियों को वास्तविक जीवन की परिस्थितियों को समझने तथा उनमें रहने का पर्याप्त अवसर मिले।

जहाँ तक सम्भव हो, वास्तविक परिस्थितियों एवं जहाँ ऐसा न हो सके, वहाँ उनके अनुरूप परिस्थितियों का आयोजन करके उन्हें (विद्यार्थियों को) उनमें जीने का अवसर देना चाहिए। विद्यालय में छात्र सभाएँ, चुनाव, वाद-विवाद, समाज-सेवा मण्डल, विद्यालय श्रमदल आदि का संगठन, वार्षिकोत्सव आयोजन, छात्रावास जीवन, शालायी यात्राएँ आदि में इसी प्रकार के सामाजिक जीवन सम्बन्धी अवसर मिलते हैं। फलतः इन्हें सौदेश्य आयोजित किया जाना आवश्यक है।

  1. शिक्षार्थियों की रुचि का सीधा प्रयोग-

रुचि के अनुरूप चयनित कार्य आसानी से कम समय में पूर्ण होता है फलतः पर्यावरणीय अध्ययन विषय के छात्रों हेतु उनकी रुचियाँ ध्यान में रखनी चाहिए। इसका अर्थ यह है कि जिस आयुवर्ग में जो रुचियाँ सर्वाधिक है, उन्हें शिक्षण में उपयुक्त स्थान दिया जाये। उदाहरणार्थ-जिस किसी आयु स्तर पर संकलन वृत्ति बालकों में अधिक होती है, इसका समुचित उपयोग करने के लिये इस स्तर के बालकों से विषय-वस्तु से सम्बद्ध विभिन्न वस्तुओं, चित्रों खनिज पदार्थों, के नमूनों, महापुरुषो के चित्रों आदि का संकलन कराया जाना समीचीन रहता हैं ऐसा करने से एक साथ कई कार्य पूरे हो जाते हैं, जैसे-शिक्षा, रुचि अथवा अभिवृत्ति का समुचित मार्गान्तरीकरण, विद्यालय संग्राहलय की समृद्धि आदि।

  1. शिक्षण सहायक सामग्री और प्रत्यक्ष वस्तुओं का अधिक प्रयोग-

पर्यावरणीय अध्ययन से सम्बद्ध वस्तुओं का या सहायक सामग्री का प्रयोग कर शिक्षण करने से ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव या दर्शन के आधार पर ग्राह्य किया जाता है। अतः शिक्षक को अपने विषय-वस्तु के मौखिक कथन पर वस्तु, चित्र तथा अन्य आवश्यक शिक्षण सहायक सामग्री के प्रदर्शन के माध्यम से शिक्षण का प्रयास किया जाना चाहिये। विशेष रूप से प्राथमिक स्तर की कक्षाओं के लिये यह नितान्त आवश्यक है।

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