भूगोल / Geography

पर्यावरण पर मानव का प्रभाव | Human impact on the environment in Hindi

पर्यावरण पर मानव का प्रभाव | Human impact on the environment in Hindi

पर्यावरण पर मानव का प्रभाव । प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष

प्राकृतिक पर्यावरण पर मनुष्य के प्रभावों को दो प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जाता है- (1) प्रत्यक्ष (Direct impacts) तथा (2) अप्रत्यक्ष (Indirect impacts)

  • प्रत्यक्ष प्रभाव-

यह सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं क्योंकि किसी भी क्षेत्र में आर्थिक विकास के लिए भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित या रूपान्तरित करने के लिए चलाये जाने वाले किसी भी कार्यक्रम से उत्पन्न होने वाले परिणामों (अनुकूल तथा प्रतिकूल) से मनुष्य अवगत रहता है। आर्थिक विकास हेतु भौतिक फ्यावरण में इस तरह के परिवर्तनों में

प्रमुख हैं-

  • भूमि उपयोग में परिवर्तन-

यथा कृषि में विस्तार तथा फसलों के उत्पादन के लिये वनों में विस्तार तथा फसलों के उत्पादन के लिए वनों को काट कर साफ करना तथा घास क्षेत्रों को जलाया जाना, व्यापारिक उद्देश्य से पेड़ों को वृहद् स्तर पर काटा जाना, नवीन कृषि तकनीकों, अधिक उपज देने वाले बीजों, समुन्नत सिंचाई की सुविधाओं के परिवेश में शस्य प्रारूपों में परिवर्तन आदि।

  • निर्माण तथा उत्खनन कार्य (Constructions Excavations)-

यथा नदी पर बांधों, जलभण्डारों तथा सिंचाई के लिये नहरों का निर्माण, नदी की जलधारों में विपथगमन अर्थात् धाराओं को विभिन्न दिशाओं में किसी खास उद्देश्य के लिये मोड़ना तथा घुमा देना-तथा नदी की जलधाराओं में हस्तक्षेप तथा हेर-फेर, क्षेत्र-विशेष को बाढ़ से बचाने के लिए तटबंधों तथा डाइक का निर्माण, सड़कों तथा पुलों का निर्माण, नगरीकरण में वृद्धि तथा विस्तार, खनिजों का खनन, खनिज तेल का बेधन, भूमिगत जल का निष्कासन आदि।

  • मौसम रूपान्तर कार्यक्रम (Weather Modification Programmes)-

यथा वर्षण को प्रेरित करने के लिए मेघ बीजन, उपल वृष्टि (Hail storm) को रोकना तथा नियंत्रित करना आदि।

  • नाभिकीय कार्यक्रम (Nuclear Programmes)-

उल्लेखनीय है कि प्राकृतिक पर्यावरण में इस तरह के मानव जनित परिवर्तनों के प्रभाव अल्पकाल में ही परिलक्षित हो जाते परन्तु ये परिवर्तन भौतिक पर्यावरण को दीर्घ काल तक प्रभावित करते रहते हैं। पर्यावरण पर इस मानवजनित प्रत्यक्ष प्रभावों की दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि ये प्रभाव परिवर्तनीय (Reversible) होते हैं क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरण को आर्थिक प्रयोजन से प्रभावित करने के पहले उसकी ( प्राकृतिक पर्यावरण की) दिशा तथा परिवर्तनों के बाद उत्पन्न दशाओं के अध्ययन के माध्यम से मनुष्य यह जान सकता है कि अमुक कार्यक्रम द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर हुए प्रभाव कितने हानिप्रद है। इस जानकारी के बाद मनुष्य, यदि वह चाहे तो, प्रारम्भिक कार्यक्रम में समृचित हेर-फेर तथा परिवर्तन करके उस कार्यक्रम द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्टभावों को कुछ सीमा तक कम कर सकता है या उन्हें (दुष्प्रभावों) दूर कर सकता है। उदाहरणन के लिये वनविनाश जो या तो कृषि भूमि में विस्तार के लिये या व्यापारिक उद्देश्य के लिए किया जाता है, के कारण मृदाक्षरण की दर में वृद्धि होती है। इस तरह मृदाक्षरण, अवनलिका अपरदन (Rill and Gully Erosion) का रूप धारण कर लेता है। अत्यधिक भूक्षरण के फलस्वरूप नदियों में अवसादों की मात्रा तथा भार बढ़ जाता है। नदियों के अवसादों से अतिभारित हो जाने के कारण उनकी तली का भराव हो जाने से नदी में जलधारण की क्षमता घट जाती है, परिणामस्वरूप विकट बाढ़ उत्पन्न होती है। इस प्रकार उत्पन्न बाढ़ के कारण अपार धन-जन की हानि होती है। इस तरह प्राकृतिक पर्यावरण के एक संघटक (वनस्पति समुदाय) में परिवर्तन (वनविनाश) द्वारा उत्पन्न शृंखलाबद्ध प्रभावों (निर्वनीकरण-मृदाक्षरण,-अवनालिका अपरदन-नदी के अवसाद भार में वृद्धि-नदी के पेटे का भराव-नदी की जलधारण क्षमता में ह्रास-बाढ़ की आवृत्ति तथा परिमाण में वृद्धि-पर्यावरण में अवनयन तथा धन-जन की हानि) को निर्वनीकृत (Defrosted) क्षेत्रों में पुनः वृक्षारोपण द्वारा प्रभावी ढंग से रोका जा सकता है। इसी तरह यदि नयी कृषि-विधियों द्वारा दुष्प्रभाव होता है तो कृषि विधियों में पर्यावरण पारिस्थितिकीय दशाओं के अनुकूल पुनः परिवर्तन करके इन दुष्प्रभावों से छुटकारा मिल सकता है।

जहाँ तक स्थानीय एवं प्रादेशिक स्तर पर जलवायु में तथा मौसम में मानव द्वारा परिवर्तनों का सवाल है, इसके पश्चप्रभावों (After-effects) के विषय में पहले से विचार नहीं किया जाता है। उल्लेखनीय है कि मनुष्य प्रक्रमों (Meteorological processes) को अनुशासित करना तथा उन पर पूर्ण स्वामित्व स्थापित करना संभव नहीं है क्योंकि वायुमण्डल में इन प्रक्रमों के नियंत्रण हेतु स्थायी मार्ग तथा व्यवस्था नहीं है। इसके बावजूद मनुष्य अवांछित प्राकृतिक वायुमण्डलीय प्रक्रमों तथा तूफानों (यथा-विभिन्न प्रकार के चक्रवात-हरिकेन, टारनैडो, टाइफून आदि, उपलवृष्टि-वर्षण, मेघ आदि) को नियंत्रित कर सकता है या उनकी दिशा को बदल सकता है।

ऋतुवैज्ञानिक तत्वों तथा प्रक्रमों में मनुष्य द्वारा किये जाने वाले प्रत्यक्ष परिवर्तनों में मेघबीजन (Cloud seeding) सर्वप्रमुख है। मेघबीजन का प्रमुख उद्देश्य वर्षण की प्रक्रिया को प्रेरित करके अधिक जलवर्षा प्राप्त करना है। मेघबीजन की प्रक्रिया के अन्तर्गत ठोस कार्बन डाई आक्साइड तथा आयोडीन के कुछ यौगिकों के प्रयोग द्वारा अतिशीतलित बूंदों का घनीभवन (Crystallisation of Supercooled Drops) करना सम्मिलित होता है।

सिंचाई तथा पेयजल के लिये भूमिगत जल का निष्कासन प्रायः सभी देशों में किया जाता है परन्तु भूमिगत जल के विदोहन का परिणाम इतना भयावह होता है कि वह मनुष्य तथा समाज के लिये विनाशकारी हो जाता है। ज्ञातव्य है कि भूमिगत जल के अधिकाधिक विदोहन के कारण सतह के नीचे वृहदकार कोटर (Cavities) बन जाते हैं तथा बाद में कभी-कभी ऊपरी सतह धंसक जाती है। सागर तटीय स्थित शहरों में पेयजल की प्राप्ति के लिये भूमिगत जल के विदोहन के कारण सतह के नीचे निर्मित कोटरों में सागर का खारां जल प्रविष्ट हो जाता है जिस कारण भूमिगत जल दृषित हो जाता है। जैसे ब्रुकलिन शहर (संयुक्त राज्य अमेरिका) में भूमिगत जल के निष्कासन से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव।

भूमिगत जल के अत्यधिक निष्कासन के कारण स्थल का धंसाव भी होता है (मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ पर धरातल का निर्माण असंगठित तथा ठीले पदार्थों से हुआ है)। विश्व के कई भागों में भूमिगत जल के अत्यधिक निष्कासन तथा विदोहन के कारण स्थलीय भाग में धसाव की घटनायें हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका की सन जोवाकिन घाटी में कई स्थानों खास कर कैलिफोर्निया में 1 से 3 मीटर तक स्थल में धंसाव हुआ है।

निर्माण कार्यों (यथा-बांधों तथा जलभण्डारों का निर्माण) द्वारा सतह के नीचे स्थित शैलों के सन्तुलन में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है जिस कारण भूकम्पीय घटनाओं का आविर्भाव हो जाता है। ज्ञातव्य है कि प्रमुख नदियों पर निर्मित बांधो के पीछे बनाये गये वृहद् जलभण्डारों में एकत्रित अपार जलराशि के भार के कारण उत्पन्न द्रवस्थैतिक दबाव (Hydrostatic Pressure) नीचे स्थित शैलों को अव्यवस्थित कर देता है एवं धरातल के नीचे पूर्वीस्थित भ्रशों को और अधिक सक्रिय कर देता है। इन कारणों के फलस्वरूप सामान्य से लेकर अधिक परिमाण वाली भूकम्पीय घटनायें प्रारम्भ हो जाती हैं।

मनुष्य बाढ़ नियंत्रण के उपायों, जलभण्डार की रचना, नदी के जल को उसकी घाटी में ही सीमित करने के लिए तटबन्धों तथा बाढ़-दीवालों के निर्माण, बाढ़-विपथगामन के तंत्रं सरिता जलमार्ग में ही परिवर्तन आदि द्वारा नदी की प्राकृतिक व्यवस्था तथा उसकी पारिस्थितिकी में कई तरह से परिवर्तन करता है।

  • अप्रत्यक्ष प्रभाव-

मनुष्य द्वारा पर्यावरण पर अप्रत्यक्ष प्रभाव न तो पहले से सोचे गये होते हैं और न ही नियोजित (Planned) होते हैं। पर्यावरण पर मानव के कार्य-कलापों से जनित अप्रत्यक्ष प्रभाव आर्थिक विकास की रफ्तार को तेज करने के लिये खासकर औद्योगिक विकास में विस्तरण, मनुष्य द्वारा किये गये प्रयासों तथा कार्यों के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। यद्यपि आर्थिक विकास के लिये किये जाने वाले इस तरह के कार्य-कलाप आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण हो सकते हैं परन्तु उनके द्वारा उत्पन्न होने वाले पश्चप्रभाव (After effects) निश्चय ही सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय है। आर्थिक क्रिया-कलापों से जनित पर्यावरण पर पड़ने वाले मनुष्य के अप्रत्यक्ष प्रभाव शीघ्र परलक्षित नहीं होते हैं। इसका प्रमुख कारण है आर्थिक क्रियाओं तथा उनसे उत्पन्न होने वाले परिणामों में समय-शिथिलता। अर्थात् क्रिया-कलापों द्वारा पारिस्थितिक तंत्र के कुछ संघटकों में सामान्य स्तर के मंद गति वाले परिवर्तन होते हैं तथा ये परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र की संवेदनशीलता (Sensitivity) को पार करने में दीर्घ समय लेते हैं। पुनश्च, ये मंद गति से होने वाले परिवर्तन दीर्घ काल तक संचयित होते रहते हैं तथा जब वे पारिस्थितिक तंत्र की इन परिवर्तनों को आत्मसात करने की क्षमता से अधिक हो जाते हैं तब उनका प्रभाव लोगों के सामने आता है। कभी-कभी इस तरह के प्रभाव उत्क्रमणीय नहीं होते हैं, अतः उनकी पहचान तथा उनका मूल्यांकन करना दुष्कर हो जाता है। इस तरह के अप्रत्यक्ष संचयी प्रभाव (Cumulative Indirect Effects) पारिस्थितिकी तंत्र के एक या अधिक संघटरकों या संपूर्ण प्राकृतिक तंत्र को परिवर्तित कर देते हैं, जो मानव वर्ग के लिये घातक एवं जानलेवा हो जाता है। मनुष्य के द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों में से अधिकांश पर्यावरण अवनयन (Environmental Degradation) तथा प्रदूषण से सम्बन्धित होते हैं। इस तरह के अप्रत्यक्ष प्रभावों के कुछ उदाहरण निम्न प्रकार हैं-

कीटनाशक, रासायनिक दवाओं, रासायनिक उर्वरकों आदि के प्रयोग के माध्यम से जहरीले तत्वों के पारिस्थितिक तंत्र में विमोचन द्वारा आहार शृंखला तथा आहार जाल में परिवर्तन हो जाता है। इस संदर्भ में D.D.T. सबसे अधिक जहरीला होता है। इसी तरह औद्योगिक संस्थानों से निकले अपशिष्ट पदार्थों (Industrial wastes) के स्थिर जल (झील, तालाब, जलभण्डार आदि) नदियों के जल एवं सागरीय जल में विमोचन के कारण जल प्रदूषित हो जाता है जिस कारण कई तरह के रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा जलस्थित अनेकों जीवधारियों की मृत्यु हो जाती है। इस तरह के जल को दूषित करने वाले कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों में प्रमुख हैं-कारखानों से निकले कचरों की जल में धुलाई तथा उनका जल में ढेर लगाना, एस्बेस्टस का झाई (Specks) का जल में विमोचन तथा संचयन, जहरीले मिथाइल रूप में पारे का विमोचन, तेल वाहक जलयानों से खनिज तेल का सागरीय जल में रिसाव, सीसे (Lead) का विमोचन, घुले हुए अकार्बनिक तत्वों का विभिन्न मात्रा में मिश्रण आदि।

M.C. Saxena के अनुसार, प्रतिवर्ष मनुष्य द्वारा 2000 रसायनों का पर्यावरण में विमोचन किया जाता है। इनके मतानुसार ये जहरीले तत्व महिलाओं की गर्भ नली से होते हुए उनके गर्भाशय में पनपते हुए भ्रूण तक पहुँच जाते हैं जिस कारण महिलाओं में गर्भपात तथा समय से पहले प्रसव हो जाता है। नगरीकरण में वृद्धि और औद्योगिक विस्तार के कारण प्रदूषण करने वाले तत्वों का अधिकाधिक मात्रा में पारिस्थितिकी तंत्र में विमोचन हो रहा है तथा इनकी मात्रा में दिनों-दिन तीव्र गति से बढ़ रही है। इस तरह के प्रदूषणकर्ता तत्वों में प्रमुख हैं-क्लोरीन, सल्फेट, बाईकार्बोनेट, नाइट्रेट, सोडियम, मैग्नेशियम, फास्फेट आदि के आयन। इस तरह के प्रदूषणकर्ता तत्व नगरों तथा कारखानों से निकलने वाले कचरा तथा गन्दे जल के नालों (Sewage Effluents) के माध्यम से जलाशयों, झीलों तथा नदियों तक पहुँचते हैं तथा उनके जल को दूषित करते हैं।

विकसित देशों एवं कतिपय विकासशील देशों की प्रमुख नदियाँ नगरों तथा कारखानों से आने वाले कचरों तथा गंदे जल के कारण प्रदूषित हो गयी हैं। घने बसे देशों तथा औद्योगिक रूप से विकसित देशों से होकर बहने वाली नदियाँ अपने स्वाभाविक प्राकृतिक स्वरूप को खो चुकी है तथा परिवहन तथा शक्ति के तंत्रों एवं मलवाहक नालों के रूप में परिवर्तित कर दी गयी हैं।

नगरीकरण, औद्योगिक विस्तार तथा भूमि उपयोग में परिवर्तन के कारण मौसम तथा जलवाय में भी परिवर्तन होते हैं। यद्यपि ये परिवर्तन दीर्घ काल के बाद परिलक्षित होते हैं। मनुष्य की आर्थिक क्रियाये पृथ्वी तथा वायुमण्डल के ऊष्मा संतुलन को प्रभावित करने में समर्थ हैं इस तरह ऊष्मा सतुलन में परिवर्तन, यदि बड़े पैमाने पर होता है तो इसके कारण प्रादेशिक तथा विश्व स्तरों पर मौसम तथा जलवायु में रूपान्तर हो सकता है। वास्तव में मनुष्य मौसमी दशाओं को निम्न रूपों में प्रभावित करता है-(i) वायुमण्डल के निचले स्तर में उसके प्राकृतिक गैसीय संघटन में परिवर्तन द्वारा, (ii) परिवर्तन मण्डल एवं समताप मण्डल में प्रत्यक्ष (मेघ बीजन द्वारा-Cloud Seeding) तथा अप्रत्यक्ष (निर्वनीकरण, खनन तथा नगरीकरण आदि द्वारा) साधनों से जलवाष्प की मात्रा में परिवर्तन द्वारा, (ii) धरातलीय सतह में परिवर्तन तथा रूपानतर द्वारा (निर्वनीकरण, खनन, नगरीकरण आदि द्वारा), (iv) निचले वायुमण्डल, में वायुधुंध (Aerosol) के प्रवेश द्वारा, (v) नगरीय, औद्योगिक आदि स्रोतों से वायुमण्डल में अतिरिक्त ऊर्जा के विमोचन द्वारा आदि।

हाइड्रोकार्बन के जलाने से वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड के सान्द्रण में वृद्धि हुई है। औद्योगिक क्रान्ति के पहले वायुमण्डल में कार्बन डाई आक्साइड की मौलिक मात्रा 0.029 प्रतिशत या 290 ppm (part per million) थी। परन्तु वर्तमान समय में वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड के सान्द्रण का स्तर 0.0379 प्रतिशत या 379 ppm तक हो गया है, जो औद्योगिक क्रान्ति के पूर्व CO, के स्तर में 25 प्रतिशत की वृद्धि का द्योतक है। ज्ञातव्य है कि वायुमण्डलीय CO, में वृद्धि होने से वायुमण्डल के ऊष्मा सन्तुलन में परिवर्तन हो सकता है। क्योंकि CO, पार्थिव विकिरण का अवशोषण करके वायुमण्डल तथा पृथ्वी की सतह को गरम करती है। मानव कार्यों द्वारा ओजोन गैस में निम्न रूपों में रिक्तता (Depletion) हो रही है- स्प्रेकैन डिस्पेन्सर में प्रयुक्त प्रणोदकों तथा रेफ्रीजरेटरों एवं एयरकण्डीशनरों में प्रयुक्त तरल पदार्थों के माध्यम से वायुमण्डल में 20-22 किलोमीटर की ऊँचाई पर ध्वनि की गति से दुगुनी गति से उड़ने पर सुपरसोनिक जेट विमानों से निस्तृत नाइट्रोजन ऑक्साइड के कारण ओजोन (O,) का (O,) तथा O विघटन हो जाता है और इस प्रकार ओजोन का रिक्तीकरण होता रहता है। ज्ञातव्य है कि ओजोन गैस पृथ्वी पर वनस्पतियों तथा जन्तुओं के लिये रक्षा कवच है क्योंकि यह सूर्य की पराबैंगनी किरणों (Ultraviolet Rays) को सोख लेती है तथा पृथ्वी की सतह को अत्यधिक गरम होने से बचाती है। इस तरह ओजोन की रिक्तता का परिणाम यह होगा कि सूर्य की पराबैंगनी किरणों का वायुमण्डल में अवशोषण घटता जायेगा तथा भूतल के तापमान मं आवश्यकता से अधिक वृद्धि का परिणाम होगा-चर्म कैन्सर में वृद्धि, मानव शरीर में प्रतिरक्षण क्षमता में ह्रास, प्रकाश संश्लेषण, जल ग्रहण की क्षमता तथा फसलोत्पादन में ह्रास। सागरीय पर्यावरण पर भी ओजोन की रिक्तता के कारण तापमान में वृद्धि का दूरगामी दुष्अरभाव होगा। क्यांकि प्रकाश संश्लेषण में कमी के कारण फाइटोप्लैंक्टन की उत्पादकता में हास्य होगा। इस स्थिति के कारण जूप्लैंक्टन में भुखमरी हो जायेगा क्योंकि जूपलैंक्टन अपने आहार के लिये फाइटाप्लैक्टन पर निर्भर होते हैं। इसके द्वारा जूप्लैंक्टन के कारण लाव्वा की मत्त्यता (Morality) भी प्रभावित होती है। सागरीय पारिस्थितिक तंत्र की जातियों के संघटन में भी परिवर्तन हो सकता है क्यांकि कुछ जातियाँ पराबैंगनी विकिरण को सहन नहीं कर सकतीं। पराबैंगनी विकिरण फाटोकमिकल प्रक्रियाओं को भी तेज कर देता है। जिस कारण जहरीला कुहरा बनता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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