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पारितन्त्र का अर्थ | पारितन्त्र की संरचना | Meaning of ecology in Hindi | Structure of ecosystem in Hindi

पारितन्त्र का अर्थ | पारितन्त्र की संरचना | Meaning of ecology in Hindi | Structure of ecosystem in Hindi

पारितन्त्र का अर्थ

पृथ्वी ग्रह पर उपस्थित जीवमंडल एक विशाल जैविक तंत्र है। इसमें छोटी-छोटी क्रिया शील इकाइयाँ होती हैं. जिन्हें पारितंत्र या पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करता है जो कि उसके परिवार के सदस्य, पड़ोसी अथवा उसके क्षेत्र के अन्य व्यक्ति हो सकते हैं। वह वातावरण के साथ भी समन्वय स्थापित करता है, जिसे उसे पदार्थ और ऊर्जा प्राप्त होती है। उसे पौधों एवं जानवरों द्वारा भोजन प्राप्त होता हैं। साथ ही वह मृदा, जल तथा वायु का भी उपयोग करती है।

पारितंत्र एक जल-जीवशाला के समान छोटा या एक समुद्र के समान विशाल भी हो सकता है। यह एक आत्मनिर्भर इकाई है, जिसमें सजीव तथा निर्जीव तत्व सम्मिलित होते हैं। पारितंत्र जीवमंडल की आत्मनिर्भर, संरचनात्मक तथा क्रियाशील इकाई है, जिसमें समस्त जीव एक-दूसरे के साथ तथा अजेव (निर्जीव भौतिक) तत्व जैसे कि वायु, जल तथा मृदा के साथ समन्वय करते हैं। 

पारितंत्र का अर्थ

पारितंत्र का अर्थ

पारितन्त्र (Ecosystem) शब्द का सबसे पहले प्रयोग करते हुए ए0 जी0 टॉन्सली (1935) ने बताया कि पारितन्त्र जैविक व अजैविक तत्वों से मिलकर बना एक भौतिक तन्त्र है, जिसमें आवास क्षेत्र व जैविकों के बीच पारस्परिक क्रियाएँ होती रहती हैं। एफ0 आर० फासबर्ग (1963) ने पारितन्त्र को एक या एक से अधिक जीव युक्त तन्त्र माना है जिसके जैविक व भौतिक तत्व कार्यशील व परस्पर क्रियाशील रहते हैं। ई० पी० ओडम (1971) ने पारितन्त्र के जैविक व अजैविक तत्वों को विभाज्य व प्रतिक्रियात्मक माना है। किसी भी निश्चित इकाई में रहने वाले जीवों के समुदाय पारस्परिक क्रिया करते हें जिससे ऊर्जा प्रवाह, जैविक-विविधता तथा खनिज चक्र संचालित होता है।

स्ट्रालर (1976) ने पारितंत्र को जीवों के समूह व पारस्परिक क्रियाशील संघटकों को सकल समुच्चय माना है। इसमें पदार्थों व ऊर्जा के निरवेश से जैवभार (Biomass) के निर्माण व बहिर्गमन का प्रक्रम चलता रहता है और पारितन्त्र सदैव समस्थिति की ओर अग्रसर होता रहता है। सविन्द्र सिंह (1986) ने जैवमण्डल की एक क्षेत्रीय इकाई के अन्दर संघटकों के बीच पारस्परिक क्रियाशील तन्त्र को पारितन्त्र माना है। सी0 सी0 पार्क ने पारितन्त्र को जैविक व प्राकृतिक तत्वों का योग माना है।

पारितन्त्र की संरचना

पारितन्त्र की संरचना को समझने के लिए इसे दो मुख्य घटकों में बाँटा गया है-

(अ) जैविक घटक (Biotic Factor)

इसके अन्तर्गत पारितन्त्र के जीव, वनस्पति, सूक्ष्म जीवों एवं मृत जीवों को सम्मिलित किया गया है। जैविक घटक को कार्य के आधार पर निम्न दो भागों में बॉटा गया है-

(1) स्वपोषी (Autotrophs)- इसके अन्तर्गत मुख्यतः हरे पौधे सम्मिलित हैं जो पूर्णहरित (Chlorophyll) और सूर्य प्रकाश की सहायता से जल और कार्बन डाइ-आक्साइड जैसे सरल अकार्बनिक पदार्थों को अधिक ऊर्जायुक्त जटिल कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित कर देते हैं। ये पौधे प्रकाश-संश्लेषण व रसायन-संश्लेषण से अपना भोजन निर्माण करने में सक्षम होते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक पौधे प्रकृति के अजैविक तत्वों से आक्सीकरण के द्वरा रसायन संश्लेषण विधि से अपना भोजन प्राप्त करते हैं। ये दोनों प्राकृतिक रूप से स्वपोषित होते हैं। इसी कारण इन्हें प्राथमिक उत्पादक व स्वपोषी कहा जाता है।

(2) परपोषी (Heterotrophs) – इसमें वे सभी जीव- जन्तु शामिल हैं जो पूर्णतः प्राथमिक उत्पादक के उपभोग पर निर्भर है। इसी कारण इन्हें उपभोक्ता कहा जाता है। इनमें कुछ जीव मृत पौधों व जीव-जन्तुओं पर निर्भर रहते हैं। इसी कारण उन्हें मृतजीवी (Saprophytes) कहते हैं। कुछ जन्तु दूसरे जीव पर या उसके माध्यम से जीवित रहते हैं, उन्हें परजीवी (Parasite) कहते हैं। बड़े जीव-जन्तु अपना आहार स्वयं ग्रहण करते हैं। वे सभी समयोजी कहलाते हैं।

(i) प्रथम चरण के उपभोक्ता (Consumers of the First Order)- गाय, बकरी, सांभर, चीतल, खरगोश जैसे शाकाहारी उपभोक्ता इस वर्ग में आते हैं। ये प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिए प्रत्यक्षतः वनस्पतिक आवरण (प्राथमिक उत्पादक) पर निर्भर रहते हैं। माँसाहारी जीवों का भोजन होने के कारण इन्हें द्वितीयक उत्पादक भी कहा जाता है।

(ii) द्वितीय चरण के उपभोक्ता (Consumers of the Second Order)- शाकाहारी जीवों का भोजन करने वाले उपभोक्ता को दूसरे चरण का उपभोक्ता माना जाता है। टिङ्डे को खाने वाला मेंढक इसी वर्ग का उपभोक्ता है।

(ii) तृतीय चरण के उपभोक्ता (Consumers of the Third Order)- इसी प्रकार जब द्वितीय चरण के उपभोक्ता एक दूसरे का भोजन करें तो इन्हें तृतीय चरण के उपभोक्ता कहा जाएगा। उदाहरणार्थ मेंढक को खाते साँप, और छोटी मछलियों को खाने वाली बड़ी मछलियाँ इस चरण की उपभोक्ता हैं।

(iv) चरम माँसाहारी (Top Consumers/Carnivores)- खाद्य श्रृंखला के अन्त में स्थित बड़े माँसाहारी किसी भी जीव का भोजन नहीं होते हैं। जैसे शेर, बाघ, गिद्ध, बाज इत्यादि। ओडम ने द्वितीय उत्पादकों को ही गुरु उपभोक्ता (Macro-consumers) या भक्षपोषी (Phototrophs) माना है।

(3) अपघटक (Decomposers)- इसमें वे सभी जीवाणु व फफूँदी जैसे सूक्ष्म जीव सम्मिलित हैं जो अपना भोजन स्वयं बनाते और वे प्राथमिक व द्वितीयक उपभोक्ताओं के मृत शरीर को अपघटित करते हैं। ये मृत जीवों के जटिल कार्बनिक पदार्थों को सरल अकार्बनिक पदार्थों में बदल देते हैं। अपघटित पदार्थ का कुछ भाग भोजन के रूप में प्राप्त करते हैं और शेष वातावरण में मिल जाता है। ये जीव जानवरों और वनस्पित को अपना भोजन बनाते हैं अतः इन्हें मृतपाषी (Saprophytes) भी कहा जाता है। अपघटन की यह क्रिया दो अवस्थाओं में होती है, तीव्र गति से जैवांश उत्पादन और मंद गति से जैवांश का खनिज सेल्यूलोज में अपघटन।

(ब) अजैविक घटक (Abiotic Factor)-

प्रत्येक जीव की अजैविक कारकों के उपयोग, सहन अथवा संघर्ष करने की क्षमता अलग-अलग होती है, जो जैविक वितरण, व्यवहार व अन्तर सम्बन्ध को प्रभावित करते हैं। इससे जैविक-अजैविक कारकों के सह-सम्बन्धों की सीमा निर्धारित होती है। अजैविक कारकों से तात्पर्य भौतिक पर्यावरण से है जिनमें सबसे महत्वपूर्ण कारक जलवायु व मिट्टी है। जलवायवीय कारकों में तापमान, पवन, आर्द्रता, वर्षण तथा हिमपात तथा मृदा कारकों में खनिज तत्व लवणता, गुणवत्ता आदि को शामिल किया जाता है। प्रमुख अजैविक कारकों का विवरण इस प्रकार है।

(1) धरातल- यह पारितन्त्र का महत्वपूर्ण संघटक है जो पारितन्त्र के आवासियों (पधों, जीव-जन्तु) को आवास (Habitat) उपलब्ध करवाता है। स्थलमण्डल के अन्तर्गत पृथ्वी का लगभग 29% भू-स्थल है। यहाँ अन्तर्जात बहिजर्जात बलों के कारण उच्चावच में परिवर्तन का क्रम निरन्तर बना रहता है इसके अतिरिक्त अनेक भु-चक्रों, प्रक्रमों व जैविक क्रियाओं के कारण स्थल खण्ड निरन्तर गतिशील बना रहता है, जिससे अनेक पदार्थों के सृजन, परिवर्तन व विनाश का क्रम जारी रहता है जो पारितन्त्र को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।

(2) जलवायु- किसी विस्तृत क्षेत्र में वर्ष की विभिन्न ऋतुओं की औसत मौसम दशाओं को जलवायु कहते हैं। जलवायु के सभी तत्व पारितन्त्र को प्रभावित करते हैं जिसमें तापमान, सूर्य प्रकाश, आर्द्रता, पवन व हिम महत्वपूर्ण कारक हैं।

जैवमण्डल में तापमान की एक संकीर्ण परत में जीव अपनी जैविक क्रियाएँ जैसे श्वसन, उपापचय, प्रजनन इत्यादि करते हैं। जीव अपनी शारीरिक क्रियाएँ तापमान के अनुरूप मन्द-तेज भी करते रहते हैं एक ओर ऊष्ण क्षेत्र में अनेक जीव-जन्तु भूमिगत हो जाते हैं, तो दूसरी ओर अनेक पक्षी हिम क्षेत्रों में सर्दी से बचने के लिए ऊष्ण कटिबन्ध की ओर प्रवास करते हैं। पौधों के विकास के लिए आवश्यक प्रकाश-संश्लेषण, जल अवशोषण व वाष्पोत्सर्जन पर तापमान का सीधा प्रभाव पड़ता है। ताप बढ़ने पर पत्तियों की दिशा का लम्बवत् होना, पर्णहरित का कम होना, पत्तियों का रंग हल्का होना इत्यादि प्रभाव प्रत्यक्षतः दिखाई देते हैं। इसी प्रकार प्रकाश भी समस्त जीवों की विकास गति पर प्रभाव डालता है। सामान्य भ्रूण विकास के लिए पर्याप्त प्रकाश को अनिवार्य माना गया है। यह शारीरिक वृद्धि, वर्ण, जनन व गति को भी प्रभावित करता है। पौधों की पत्तियों के पर्णरन्ध्रों का खुलना व बन्द होना श्वसन, वाष्पोत्सर्जन, बीज संकुरण, पुष्पीकरण इत्यादि क्रियाओं को प्रकाश की मात्रा व अवधि प्रभावित करते हैं।

स्थलचर व उभयचर प्राणियों व कीटों में आर्द्रता की परिवर्तनशीलता उनके वितरण व क्रियाशीलता को बहुत प्रभावित करती है। कुछ कीटों में प्रजनन गतिविधियाँ आर्द्रता के स्तर से निर्धारित होती हैं। इसी प्रकार आर्द्रता का स्तर पौधों के विकास को प्रभावित करता है। पवन पौधों की बाहरी व आन्तरिक रचना को प्रभावित करता है। पौधों से होने वाले वाष्पोत्सर्जन की दर, परागण, बीजों व फलों के प्रकीर्णगन पर पवन का बहुत प्रभाव पड़ता है।

(3) मृदा- जीव-जन्तुओं की शारीरिक संरचना व. विकास पर मृद्य के रासायनिक गुण (कार्बनिक अंश, जैवांश की मात्रा) इत्यादि का प्रभाव पड़ता है। पथरीले, दलदली, रेतीले व हिम आवृत्त क्षेत्रों के प्राणियों एवं वनस्पति की संरचना और विकास पर मृदा की विशेषताओं का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है। मृदा के रासायनिक संगठन में विभिन्नता के कारण वनस्पति में विविधता पायी जाती है।

(4) जल- किसी भी पारितन्त्र के संचालन में जल बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सभी जीवों को अपनी जैविक क्रियाओं के लिए जल की आवश्यकता होती है। हम जानते हैं कि जीवन की उत्पत्ति जल से हुई हैं। जीवों की जल सम्बन्धी आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है जो उनके वितरण को प्रभावित करता है।

(5) खनिज- खनिज पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, गन्धक, इत्यादि पौधों की वृद्धि व रख-रखाव तथा जीवों के शरीर एवं उत्तकों (Tissues) के निर्माण व सम्वर्द्धन में. सहयोग करते हैं। इसके लिए आवश्यक प्रोटीन के निर्माण में तथा नाइट्रोजन व एमिनो अम्ल के निर्माण में गन्धक एक सहायक खनिज है। इसी प्रकार प्रोटीन कोशिका-द्रव्य के निर्माण, कैल्शियम व मैग्नीशियम कोशिका को मजबूत करने पर्णहरित उत्पादन के लिए फॉस्फोरस आवश्यक पोषक तत्व हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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