उत्तरी अटलाटिक संधि संगठन : नाटो 1949

उत्तरी अटलाटिक संधि संगठन : नाटो 1949

उत्तरी अटलाटिक संधि संगठन : नाटो 1949

(North Atlantic Treaty Organization-NATO 1949)

नाटो, गैर – साम्यवादी विश्व में बहु-पक्षीय तथा द्वि-पक्षीय सन्धियों के जाल का केन्द्रीय धागा बना रहा है तथा आज भी यह एक व्यापक शक्तिशाली तथा सक्रिय क्षेत्रीय सुरक्षा संगठन के रूप में कार्य कर रहा है। नाटो में सबसे शक्तिशाली तथा केन्द्रीय शक्ति अमेरीका रहा है। साम्यवादी साम्राज्यवाद का हर तथा अन्तरोष्ट्रीय शोति तथा सुरक्षा बनाए रखने के लिए सोवियत नीतियों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलता के प्रति गम्भीर शंका, ये दोनों तत्त्व मुख्य रूप से नाटो को बनाने के लिए उत्तरदायी बने।

  1. नाटो गठजोड़ का बनना (The Formation of NATO Alliance) : नाटो साम्यवादी शक्ति के विरुद्ध प्रतिरक्षा सन्धि के रूप में स्थापित किया गया। आरम्भ में यह फ्रांस, इंग्लैंड, बैल्जियम, नीदरलैंड तथा लग्जंबर्ग के बीच 17 मार्च की सन्धि के आधारभूत विचारों का विरतार मात्र ही धा। जब अमरीका ने सोवियत संघ के बढ़ते हुए साम्यवादा प्रभाव को रोकने के लिए अलगाववाद की विदेश नीति को छोड़ कर यूरोप में सक्रिय रूप से शामिल होने का निर्णय किया तब ही यूरोप, विशेषतया अटलांटिक समुदाय (Atlantic Community) अर्थात् पश्चिभी यूरोपीय देशों तथा अमरीका और कनाडा के लिए एक विस्तृत सुरक्षा व्यवस्था की रूप-रेखा तैयार की गई। अपनी सुरक्षा के लिए 4 अप्रैल, 1948 को 12 देश- अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा, बैल्जियम, डैनमार्क, लग्ज़मबर्ग, नार्वे, पुर्तगाल, आइलैंड तथा नीदरलेंड ने एक उत्तरी अटलांटिक सन्धि (North Atlantic Treaty) की। 1952 में यूनान तथा तुकी भी इसमें शामिल हो गए तथा 1955 में पश्चिमी जर्मनी को भी इस सन्धि का सदस्य बना लिया गया 1990 के आस पास शीत युद्ध समाप्त हो गया और 1991 में सोवियत संघ तथा वार्सा सन्धि का विघटन हो गया। परन्तु ऐसे बातावरण में भी नार्टो को जीवित तथा साक्रिय रखा गया तथा इसका अभूतपूर्व विकास भी किया गया। 9 जुलाई, 1997 में एक ऐतिहासिक निर्णय द्वारा नाटो ने पॉलैण्ड, हंगरी तथा चैक गणतन्त्र को 1989 तक नाटो का सदस्य बन जाने का निमंत्रण दिया और ऐसा हो भी गया। यह भी आशा बनी कि रूमानिया तथा स्लोवानिया को सदरय बना लेना चाहिए। 21 नवम्बर 2002, के दिन नाटो के सदस्यों ने निर्णय किया कि सात देशों-बुल्गरिया, ऐस्टोनिया, लाटविया, लियुआनिया, रूमानिया, स्लोवाकिया तथा स्लोवेनिया को इस क्षेत्रीय सुरक्षा संगठन में शामिल कर जाएगा और ऐसा हो भी गया। इन सदस्यों के नाटो में शामिल होने के बाद निश्चय ही नाटो का स्वरूप परिवर्तित हो गया।

अमरीका नाटो के पूर्व की ओर अधिक विस्तार के पक्ष में है, परन्तु रूस इसे पसन्द नहीं करता। नाटो ने ऊक्रेन के साथ भी जो सहयोग घोषणा-पत्र हस्ताक्षरबद्ध किया है, उसे भी रूस ने पसन्द नही किया। रूस यह समझता है कि नाटो के विस्तार द्वारा अमरीका भविष्य के लिये अन्य पड़ोसी देशों को रूस से अलग कर देना चाहता है। अतः स्वाभाविक रूप में रूस नाटो के पूर्व की ओर अधिक विस्तार का विरोधी है। यद्यपि वह स्वयं नाटो का सहयोगी सदस्य बन चुका है। अमरीका नाटो को बनाए रखने और इसे और भी दृढ़ करने का दृढ़ समर्थक बना हुआ है। सितम्बर्-अक्तूबर, 2001 में आतंकवाद के विरुद्ध अमरीकी सैनिक कार्यवाही को नाटो ने पूर्ण समर्थन दिया। इसने अनुच्छेद-5 के अधीन पहली बार यह निर्णय लिया कि अमरीका पर आतंकवाद का आक्रमण सब नाटो देशों पर आक्रमण था तथा नाटो संयुक्त सैनिक कार्यवाही में भाग लेगा।

  1. नाटो सन्धि (NATO Treaty) : इस सन्धि के 14 अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद 1 में सदस्यों के बीच विरोधों को तथा अनुचछेद- 2 में सदस्यों के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ाने की बात कही गई है। अनुच्छेद-3 में स्वावलम्बन तथा किसी भी राज्य के विरुद्ध आक्रमण को रोकने की क्षमता में विकास के लिए पारस्परिक सहयोग की बात की गई है। सन्धि की सबसे महत्त्वपूर्ण धारा अनुच्छेद-5 है। इसके द्वारा सदस्य यह मानते हैं कि एक या एक-से-अधिक राज्यों पर आक्रमण की स्थिति में यह आक्रमण सभी सदस्यों पर माना जाएगा तथा नाटो सदस्य व्यक्तिगत रूप में या सामूहिक रूप में शान्ति तथा सुरक्षा की पनः स्थापना करने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे। इसके साथ-साथ “इस तरह कोई भी कार्यवाही या उसके लिए उठाए गए सभी कदमों को सूचना तत्काल ही संयुक्त राष्ट्र को भेज दी जाएगी।” यह धारा स्पष्ट रूप से यह बताती है कि सयुक्त राष्ट्र संघ की सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था की शक्ति में लोगों के विश्वास की कमी है। अनुच्छेद-9 में नाटो की मशीनरी के संगठनात्मक ढाच का वर्णन किया गया है।
  2. नाटो का संगठनात्मक ढांचा (Organizational Structure of NATO) :

(क) परिषदू (Council) : नाटो के ढाचे में सबसे ऊपर उत्तरी अटलांटिक परिषद् (North Atlantic Council) या स्थायी परिषद् है जिसमें सभी सदस्यों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है तथा जो आगे जाकर सहायक समितियां बनाते हैं। इस परिषद में उच्च स्तर के मन्त्री अर्थात् विदेशी मामलों, प्रतिरक्षा तथा विशेषतया वित्तमन्त्री तथा प्रत्येक सदस्य राज्य के स्थायी सदस्य शामिल होते हैं। स्थायी सदस्य परिषद् के स्थायी मुख्यालय में निरन्तर सत्र में रहते हैं, जबकि कैबिनेट के सदस्य एक वर्ष में दो या तीन बार बैठक करते हैं। यह परिषद् नाटो की सर्वोच्च कार्यकारी समिति है। हॉफमैन (Hoffman) इसे ‘नाटो का केन्द्र’ (Focal Point of NATO) कहते हैं। परिषद् का मुख्य उत्तरदायित्व समझौते की सभी धाराओं को लागू करना है।

(ख) सचिवालय (Secretariat) : नाटो के दिन प्रतिदिन का शासकीय प्रबन्ध सचिवालय ही करता है जिसका एक प्रमुख महासचिव होता है। सचिवालय सारा रिकार्ड रखता है तथा परिषद् की सहायता करता है। यह परिषद् के प्रति उत्तरदायी होता है।

(ग) सैनिक समिति (Military Committee) : नाटो का सैनिक संगठन, सैनिक कमेटी, स्थायी ग्रुप, कमांड तथा क्षेत्रीय योजना ग्रुप को मिलाकर बनता है। सैनिक कमेटी में नाटो देशों के स्टाफ के सेना अध्यक्ष शामिल होते हैं। ये परिषद् को परामर्श देते हैं तथा सहायक अधिकारियों को सैनिक प्रश्नों पर मार्गदर्शन भी देते हैं। सैनिक अध्यक्षों के स्थायी सैनिक प्रतिनिधि सैनिक कमेटी के सत्रों के मध्य के समय में सैनिक कार्य संभालते हैं। स्थायी ग्रुप एक स्थायी एजेन्सी होता है जिसमें अमरीका तथा ब्रिटेन (फ्रांस 1967 में इससे निकल गया था) के चीफ ऑफ़ स्टॉफ (Chief of Staff) के प्रतिनिधि होते हैं। यह सैनिक कमेटी की कार्यकारी एजेन्सी होती है तथा नाटो की मिलिटरी कमाण्ड के लिए रणनीति बनाने तथा कनाडा-अमरीका क्षेत्रीय योजना ग्रुप के मार्गदर्शन के लिए उत्तरदायी है। ये तीनों कमाण्डें, उनकी सहायक कमाण्डें तथा क्षेत्रीय योजना ग्रुप अपने क्षेत्रों में प्रतिरक्षा योजनाओं का विकास करने तथा नाटो सेनाओं का निरीक्षण करने का कार्य करती हैं।

इन तीनों संगठनों के अतिरिक्त चार आयोग अर्थात् वित्तीय तथा आर्थिक आयोग, प्रतिरक्षा उत्पादन आयोग, आन्तरिक समुद्री जहाज़रानी के लिए योजना आयोग तथा यूरोपीय सतही यातायात आयोग, सदस्य राज्यों में सहयोग स्थापित करने में सहायता देते हैं।

  1. उद्देश्य तथा महत्त्व (Purpose and Significance): नाटों का निर्माण तीन उद्देश्यों के लिए किया गया था

(1) यूरोप पर आक्रमण के समय अवरोधक की भूमिका अदा करना।

(2) सैन्य तथा आर्थिक विकास के लिए अपने प्रोग्राम को आगे बढ़ाने के लिए यूरोपीय राष्ट्रों के लिए सुरक्षा छतरी (Security Umbrella) प्रदान करना, तथा

(3) भूतपूर्व सोवियत संघ के साथ सम्भावित युद्ध के लिए लोगों को, विशेषतः अमरीका के लोगों को मानसिक रूप से तैयार करना।

नाटो का मुख्य उद्देश्य यूरोप की प्रतिरक्षा को सुदृढ़ करना है यद्यपि वास्तव में इसने 1945-90 के मध्य यूरोप में शीत युद्ध को और हवा दी। यूरोप में परमाणु शस्त्रों की होड़ नाटो समझौते का सीधा प्रभाव रही है सुरक्षा की भावना पैदा करने के अतिरिक्त इसने यूरोप में युद्ध के अवसरों को बढ़ाया, क्योंकि इससे पूर्व-पश्चिम के सम्बन्धों में काफ़ी उधल – पुथल पैदा हुई। वार्सा समझौते की समाप्ति के बाद तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में लोकतन्त्रीय शासनों की स्थापना के बाद, यूरोप में नाटो की भूमिका अत्यन्त सीमित ही हो गई।

परन्तु 1994 के आरम्म से ही नाटो को फिर से सक्रिय एवं विस्तृत बनाने के लिए प्रयत्न आरम्भ किये गये। 10 जनवरी, 1994 को यह निर्णय लिया गया कि पूर्वी यूरोपीय देश (भूतपूर्व साम्यवादी देश) भी अब नाटो के सदस्य बन सकते हैं। इसके बाद रूस ने सीमित रूप में नार्टा के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिए। 22 जून, 1994 को रूस ने नाटो के शांति प्रोग्राम में शामिल होने का समझौता नाटो से कर लिया। अतः अब नाट्टो को फिर से सक्रिय करने के प्रयास किए जा रहे हैं। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद नाटो को एक नया स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। अमरीकी विदेश नीति अभी भी युरोप

तथा रूस के सम्बन्ध में नाटो को आधार बना कर चल रही है। 11 सितम्बर, 2001 को हुई अमरीका विरुद्ध आतंकवादियों की कार्यवाहियों के कारण छिड़े आतंकवाद के विरुद्ध अमरीकी युद्ध के समय नाटो ने सक्रिय भाग लिया।

नाटो के मुख्य 4 अंग हैं;

  1. महासचिव (Secretary General):यह नाटों का सर्वोच्च अंग है। इस में सदस्य देशों के सिविल सर्वेंट होते हैं। इसकी मंत्रिस्तरीय बैठक वर्ष में एक बार होती है। महासचिव का मुख्य उत्तरायित्व समझौते की धाराओं को लागू करना होता है। यह नाटो का मुख्य प्रवक्ता भी होता हैं।
  2. परमाणु योजना समूह (Nuclear Planning Group):परमाणु नीति समूह के पास परमाणु नीति के मुद्दों के संबंध में उत्तरी अटलांटिक परिषद के समान अधिकार है।
  3. सैनिक समिति (Military Committee):इसका मुख्य कार्य नाटों परिषद् एवं उसकी प्रतिरक्षा समिति को सलाह देना है। इसमें सदस्य देशों के सेनाध्यक्ष शामिल होते हैं। जब किसी मुद्दे पर राजनीतिक तरीके से समाधान नहीं निकलता है तो फिर उसके लिए मिलिट्री ऑपरेशन का रास्ता अपनाया जाता है। नाटो के पास अपनी खुद की सेना बहुत कम होती है। इसलिए जब किसी देश के खिलाफ मिलिट्री ऑपरेशन की बात आती है तो सदस्य देश स्वेच्छा से इस अभियान के लिए अपनी सेना भेजते हैं और जब मिशन पूरा हो जाता है तो सेना अपने देशों में दुबारा लौट जाती है।
  1. उप समिति(Subordinate Committees): यह परिषद् नाटों के सदस्य देशों द्वारा नियुक्त कूटनीतिक प्रतिनिधियों की परिषद् है. ये नाटो के संगठन से सम्बद्ध सामान्य हितों वाले विषयों पर विचार करते हैं।

उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO)

♦ नाटो  एक अंतर्सरकारी सैन्य गठबंधन है जिसकी स्थापना अप्रैल 1949 में हुई थी।
♦ वर्तमान में इस संगठन में 30 सदस्य देश शामिल हैं।
♦ इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स, बेल्जियम में है। 
♦ 1949 में इसके 12 संस्थापक सदस्य थे जिसमें बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्राँस, आइसलैंड, इटली, लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
♦ अन्य सदस्य देशों में ग्रीस और तुर्की (1952), जर्मनी (1955), स्पेन (1982), चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड (1999), बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया व स्लोवेनिया (2004), अल्बानिया एवं क्रोएशिया (2009), मॉन्टेनेग्रो (2017) तथा मेसोडोनिया (2019) शामिल हैं। 

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