राजनीति विज्ञान / Political Science

सन्त टामस एक्वीनास के राजनीतिक विचार | Political views of Saint Thomas Aquinas in Hindi

सन्त टामस एक्वीनास के राजनीतिक विचार | Political views of Saint Thomas Aquinas in Hindi

सन्त टामस एक्वीनास के राजनीतिक विचार

  • राज्य सम्बन्धी विचार-

आगस्टाइन आदि ईसाई-विचारकों का यह मत था कि मनुष्य के आरम्भिक पाप (Original sin) के कारण राज्य की उत्पत्ति हुई। एक्विनास इस विचार से सहमत नहीं है। वह तो राज्य को एक स्वाभाविक एवं अनिवार्य संस्था मानता है। उसका विश्वास है कि राज्य के बिना मनुष्य अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर सकता । इस प्रकार वह अरस्तू की इस धारणा के काफी निकट है कि राज्य का अस्तित्व इसलिये है कि वह मनुष्य को अच्छा जीवन व्यतीत करने का अवसर देता है। राज्य का मुख्य उद्देश्य लोगों में नैतिकता का विकास करना है। परन्तु टामस राज्य की नागरिकता केवल उन्हीं लोगों को देता है जो ईसाई धर्म के अनुयायी हैं। यहाँ वह धर्म से प्रभावित है।

एक्विनास ने राज्य को समाजोपयोगी संस्था मानते हुए लिखा है कि उसके बिना मनुष्य की समृचित उन्नति सम्भव नहीं है वह लोक-कल्याणकारी राज्य की कल्पना करता है। उसका कहना है कि राज्य को प्रजा की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करना चाहिये। स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय खोलने चाहिये। निर्धनों की सहायता करनी चाहिये और जो काम कर सकें उनको काम दिलाने की व्यवस्था करनी चाहिये उसने राज्य को भिक्षुगृह (Poor Houses) खोलने की सलाह भी दी थी।

टामस राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त को मान्यता देता है। वह राज्य को ईश्वर द्वारा निर्मित मानता है परन्तु वह यह स्वीकार नहीं करता कि राजा की सत्ता पोप से या पोप के माध्यम से प्राप्त हुई। वह राजा का ईश्वर से सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है और इस प्रकार वह दो तलवारों के सिद्धांत के काफी निकट पहुँच जाता है। साथ ही वह यह भी कहता है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में पोप राजा के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है। इसी कारण कुछ विद्वानों ने टॉमस को नम्र पोपवादी कहा है। वह नगर-राज्यों के स्थान पर कई नगर-राज्यो को मिलाकर प्रान्त को अधिक आत्मनिर्भर मानता है। टामस अरस्तू के मानव के सामाजिक स्वभाव को महत्व देता है और साथ ही वह राज्य की दैवीय उत्पत्ति को भी मानता है।

  • शासन प्रणालियों का वर्गीकरण

एक्विनास शासन के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण अरस्तू के आधार पर करता है । उसने भी अरस्तु की भाँति छः प्रकार क राज्य बतलाये हैं। कह निरकुश शासनतन्त्र (Tyranny) को सबसे बुरी शासन-प्रणाली मानता है। उसके अनुसार यह राजतन्त्र का भ्रष्ट रूप है। राजतन्त्र को टामस-सर्वोत्तम शासन बतलाता है। उसका कहना है कि जिसे राज्य में एक ही राजा होता है जो विवेक तथा न्याय से शासन करता है वहीं सर्वोत्तम राज्य है। वह राज्य का सबसे बड़ा गुण उसकी एकता मानता है। यह एकता राजतन्त्र में ही सम्भव हो सकती है।

इसके बाद आभिजात्यतन्त्र (Aristocracy), मध्यवर्गीय जनतन्त्र (Polity), सामन्ततन्त्र और लोकतन्त्र (Democracy) का नम्बर आता है। लोकतन्त्र आदि राज्यों में एकता सम्बन्धी वे गुण नहीं पाये जाते जिनसे शक्तिशाली राज्य का निर्माण हो सके। टोमस निर्वाचित राजतन्त्र को श्रेष्तम शासन मानता है। उसके विचारों में यह महत्वपूर्ण बात है कि वह वशानुगत राजतन्त्र की आलोचना करता है और राजा के निर्वाचन पर जोर देता है। साथ ही वह यह भी कहता है कि निर्वाचन के पश्चात् राजा से शपथ लेनी चाहिये कि वह कानून के अनुसार ही प्रजा पर शासन करेगा।

  • राज्य का लक्ष्य एवं कार्य-

टामस एक्विनास ने लिखा है कि “राज्य का लक्ष्य वही है जो मनुष्य का है। मनुष्य निर्वार्ण चाहता है। वह कहता है कि ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य मोह माया और ममता से दूर रहकर अपने को निर्दोष बना ले अरथित् बह सद्गुणी बन जाय। राज्य का यह कर्त्तव्य है कि वह ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करे और ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिसमे मनुष्य को अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने में सहायता प्राप्त हो।“

राज्य के अन्य कर्त्तव्यों का उल्लेख करते हुये टामस लिखता है कि राज्य का प्रमुख कार्य राज्य में एकता और शान्ति स्थापित करना है। कानूनों के पालन के लिए पुरस्कार और दण्ड की व्यवस्था करके जनता को नियन्त्रण में रखना चाहिये। राज्य का दूसरा कार्य चोर-डाकुओं के उपद्रवों से जनता को सुरक्षित रखना है। राजा का तीसरा कार्य अपने राज्य के लिए विशेष मुद्रा पद्धति का चलाना तथा नाप और तील की समुचित प्रणाली निश्चित करना है। डनिंग के कथनानुसार “एक्विनास ने इन कार्यों का समर्थन इस आधार पर किया है कि यदि सरकार द्वारा सिक्कों तथा भार एवं तौल की व्यवस्था निश्चित हो जाय तो इससे झगडे और मुकदमेबाजी बहुत कम हो जायेगी।” राज्य का चौथा कार्य गरीबों के भरण-पोषण का प्रबन्ध करना है। यह कार्य विशुद्ध रूप से ईसाई-धर्म की शिक्षाओं पर आधारित है। राज्य को अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था करनी चाहिए। उसे आवागमन के मार्गों की समुचित व्यवस्था करची चाहिए।

  • कानून और न्याय सम्बन्धी विचार-

कानून की परिभाषा करते हुये टामस ने लिखा है कि “विधि विवेक-सम्मतं वह आदेश है जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण होता है और यह आदेश उस व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिसर्क ऊपर किसी समुदाय की व्यवस्था का भार होता है।” कानून के गुणों की व्याख्या करते हुए उसने यह कहा कि वह सार्वभौमिक, अपरिवर्तनशील और स्वाभाविक होता है। कानून का आदि स्रोत प्रकृति है। प्रकृति के कानून का उल्लंघन करने की शाक्ति किसी मानव को प्राप्त नहीं है चाह वह पोप ही क्यों न हो। कानून के प्रति पोप और सामान्य व्यक्ति दोनों को समान रूप से श्रद्धा रेखना चाहिए। टामस ने अरस्तू, स्टोइक, सिसरो, आगस्टाइन तथा रोमन विधिशात्रिया के विचारो का समन्वय किया तथा वर्तमान युग को उसकी यह बहुत महत्त्वपूर्ण देन है।

एक्विनास ने कानून को चार वर्गों में बॉँटा है- (1) शाश्वत् कानून, (2) प्राकृतिक कानून, (3) मानवीय कानून, (4) दैवी कानून।

  • शाश्वत् विधियाँ

ये वे कानून हैं जो केवल ईश्वर के मस्तिष्क में रहते हैं। इन कानूनों में संसार ही नहीं, अपितु समस्त ब्राह्माण्ड का विधान छिपा है। ये कानून सर्वोच्च विवेक के प्रतीक हैं। इनका ज्ञान पूर्ण रूप से प्राप्त लेना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। मनुष्य अपने चेतन मस्तिष्क द्वारा इनका पूर्गतया विश्लेषण नहीं कर पाता । फिर भी वह शाश्वत् कानूनों को अन्तरंग रूप से अनुभव करता हुआ अपने आचरण को उसके अनुकूल बनाने का प्रयत्न करता है।

 (ब) प्राकृतिक कानून

प्राकृतिक कानून शाश्वत् कानूनों की भाँति पूर्णतया स्पष्ट नहीं होते। यद्यपि उनकी उत्पुत्ति का आधार शाश्वत् कानून होते हैं। प्राकृतिक कानून को मनुष्य अपनी बुद्धि द्वारा जान सकता है। टामस के अनुसार लोक-कल्याण की दृष्टि से इनमें परिवर्तन होता रहता है। प्राकृतिक कानून मानव इच्छाओं को पूरा करने के लिए है।

(स) मानवीय कानून

मानवीय कानून प्राकृतिक कानूनों का वह स्वरूप है जो विशेष व्यावहारिक परिस्थितियों में बुद्धि की सहायता से बनाये जाते हैं। ये मानव द्वारा निर्मित होते हैं और ये भावात्मक है।

(द) दैवी कानून

दैवी कानून वे हैं जो धर्म-ग्रन्थों में वर्णित हैं। जहां मनुष्य की बुद्धि और उसका विवेक काम. नहीं करता वहाँ उसकी त्रुटियों को ये दैवी कानून दूर करते हैं। दैवी कानूनों का पालन करना भी टामस ने अत्यन्त आवश्यक बतलाया और कहा है कि इन कानूनों का पालन किये बिना मनुष्य को संसार से छुटकारा नहीं मिल सकता।

  • राज्य और चर्च का सम्बन्ध

राज्य और चर्च के पांरस्परिक सम्बन्ध के बारे में एक्विनास का मत यह है कि मानव-जीवन के दो लक्ष्य हैं-पहला लक्ष्य भौतिक सुख की प्राप्ति और उत्तम जीवन का यापन है, उसकी प्रा्ति राज्य द्वारा होती है। यहाँ तक उसके विचार अरस्तू से मिलते हैं। दूसरा लक्ष्य पारलौकिक सुख अर्थात् आत्मा की मुक्ति और परलोक में अनन्त आनन्द की प्राप्ति करना है। इसकी प्राप्ति का साधन चर्च है। इन दोनों में भौतिक सुख गौण और परलोक का सुख प्रधान है; अंतः भौतिक सुख की प्राप्ति का साधन होने से राज्य गौण तथा पारलौकिक सुख साधन होने से चर्च प्रधान है। उच्चतम सत्य तर्क एवं बुद्धि से नहीं, किन्तु श्रद्धा और विश्वास से जाने जति हैं। इन विषयों में चर्च ही अन्तिम प्रमाण है; अतः चर्च राज्य से श्रेष्ठ है। राजा का यह कर्त्तव्य है कि वह अपना शासन इस ढंग से चलाए कि भगवान की इच्छा पूरी हो तथा धर्म की वृद्धि हो। राज्य के अधिकारियों को चर्च के दैवी कानून के तथा पुरहितो के शासन में रहना चाहिए। यदि कोई शासक चर्च के आदेशों की अवहेलना करता है तो उसे चर्च से बहिष्कृत कर देना चाहिए। इस प्रकार एक्विनास पोप की सर्वोच्च सत्ता का समर्थन करता है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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