राजनीति विज्ञान / Political Science

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं | प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं लिखिए

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं | प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं लिखिए | Features of ancient Indian political thought in Hindi | Write the features of ancient Indian political thought in Hindi

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प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं – भूमिका

पाश्चात्य विज्ञानों द्वरा इस धारणा का प्रतिपादन किया गया है कि प्राचीन काल में भारतियों की दृष्टि धर्म शास्त्र तथा अध्यात्मवाद पर केन्द्रित थी और भारतीय दर्शन में राजनीतिक चिंतन का अभाव था। मेक्समूलर, प्रो० ब्लूम फील्ड और डेमिन जे जे विद्वानों द्वारा यह भ्रांत धारणा विकसित की गयी कि भारत के हिन्दू साहित्य में आदर्शवाद, व्यहवारवाद, रहस्यवाद और पारलौकिक मूर्खता पूर्ण बातों के अतिरुक्त और कुछ भी नहीं है। इस भ्रम पूर्ण विचार के लिए सबसे अधिक अंग्रेजी शासक जिम्मेदार थे। भारत के शासकों के रूप में वे भारत को किसी भी प्रकार के मौलिक राजनीतिक विचारों के जन्मदाता का श्रेय देने के लिए तैयार नहीं थे परन्तु प्लेटो और अरस्तू के शताब्दी से पूर्व भी भारत में राजनीतिशास्त्र पर पर्याप्त लिखा जा चुका था। भारतीय राजनीतिक दर्शन का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि यहाँ की सभ्यता, संस्कृति और धर्म हैं। वैदिक साहित्य में एक स्थान पर ऐसा ऐसा वृत्तान्त आता है जिसे देखने से तत्कालीन राजनीतिक विचारों एवं व्यवस्था का थोड़ा बहुत परिचय प्राप्त होता है। अरस्तू के समकालीन कौटिल्य जिसे व्यवहारिक राजनीति का पिता कहा जाता है, के विचार इस बात के साक्षी हैं कि ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भारत किसी से पीछे नहीं था। भारतीय राजनीतिक दर्शन और संस्कृति का व्यवस्थित अध्ययन बहुत विलम्ब से 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में ही आरंभ हुआ था। 19वीं शताब्दी के आरम्भ में दर्शन और धर्म के बहुत से प्राचीन ग्रन्थों का संस्कृत से अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद केआर लिया गया।

प्राचीन भारतीय राजनीतिक विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

  1. प्राचीन भारत में राजनीति के विविध नाम थे :-

प्राचीन भारत में हमारे अध्ययन विषय को राजधर्म, दंडनीति, अर्थशास्त्र और और नीतिशास्त्र आदि नामों से संबोधित किया गया। राजधर्म – पाशचात्य जगत की तरह इसका कोई एक निश्चित नाम नहीं है महाभारत के ‘शांतिपर्व’ में इसे ‘राजधर्म‘ कहा गया है। प्राचीन भारत में राजतंत्र ही सबसे अधिक प्रचलित था, अत: राज्य और शासन के अध्ययन को राजा का धर्म कहा गया। राजधर्म में राजा के सभी कर्तव्य और शासन सम्बन्धी बाते सम्मिलित की गयी थी। दण्डनीति – इसे प्राचीन भारत में ‘प्रशासन का शस्त्र’ समझा गया जिसका सम्बन्ध शासन के कार्यों अथवा शासन तंत्र से रहा। कौटिल्य के मतानुसार मनु, बृहस्पति और शुक्राचार्य द्वारा मणि चार विधाओं में से दण्डनीति एक है  उसके मतानुसारा बल प्रयोग या दण्ड के बिना कोई राज्य कायम नहीं रखा जा सकता, दण्ड के सम्बन्ध मे मनु के कहना था कि कब सभी लोग सो रहे होते हैं तो दण्ड उनकी रक्षा कर्ता है। उसी के भय से लोग न्याय का मार्ग अपनाते हैं। अर्थशास्त्र – अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग प्रायः संपत्तिशास्त्र के लिए किया जाता है जिसका अध्ययन विषय धन व अर्थ की प्राप्ति के साधन तथा मनुष्य के हित में प्रयोग है। इसके विपरीत राज्यशास्त्र का अध्ययन विषय राज्य व शासन है अतएव दोनों में बड़ा अंतर है। किन्तु कौटिल्य का कथन है कि ‘अर्थ’ शब्द से जैसे मनुष्य के व्यवसाय व धंधे दिग्दर्शन होते हैं वैसे ही जिस भूमि पर रहकर वे व्यवसाय चलते हैं वह भूमि भी संबोधित हो सकती है, इसलिए भूमि को प्राप्त करने व उसका पालन करने का जो साधन है , उसे भी अर्थशास्त्र कहना उचित है। इस प्रकार इसे अर्थशास्त्र की भी संज्ञा दी गयी। नीतिशास्त्र – नीतिशास्त्र में नीति शब्द की ‘नी’ धातु का अर्थ ‘ले जाना’ होता है। जो शस्त्र भलाई बुराई में भेद करे तथा उचित अनुचित कार्यों का उल्लेख करे उसे ‘नीतिशास्त्र’ कहा जाता है। यह मार्गदर्शन मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है। राजनैतिक क्षेत्र में किए गए मार्गदर्शन के लिए भी नीतिशास्त्र शब्द का प्रयोग कर दिया जाता था। कामनदक तथा शुक्र के राज्य एवं शासन के सम्बन्ध में जो रचनाएँ की उनको नीतिशास्त्र का नाम दिया हाय। कामनदक के सामी में जो ‘नीति’ शब्द राज्य की नीति के सम्बन्ध में प्रयुक्त किया जाता था वही अब सामान्य आचरण के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। सामान्य आचरण के नियमों को राजा के व्यवहार के नियमों से अलग करने के लिए ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग किया जाए। इसके बाद से ‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग प्रचलित हुआ तथा इसी के अंतर्गत शासन एवं राज्य व्यवस्था से संबन्धित रचनाएँ कि जाने लगीं।

  1. राज्य का आधार (उद्देश्य) मोक्ष प्राप्ति है :-

प्राचीन राजनीतिक दर्शन का अध्यात्मिकता ही ओर झुकाव एक प्रमुख विशेषता है कि राज्य को ‘मोक्ष’ प्राप्ति का साधन माना गया है। राजनीति सिद्धांतो और राज्य व्यवस्था करते समय यह ध्यान में रखा गया है कि राज्य में चारों ओर सुख शांति और व्यवस्था सम्बन्ध हों क्योकि एसे वातावरण में ही आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है। श्रुति, धर्म सूत्र, स्मृति, इतिहास, पुरम, नीतिशास्त्र के ग्रंथ, निबंध, बौध्य तथा जैन ग्रंथ आदि सभी के मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मोक्ष्य की प्राप्ति बताया है। उसी को ध्यान में रखकर राजनीतिक सिद्धांतों का भी निर्धारण एवं रचना किया गया है। राज्य ही समाज में एसी व्यवस्था लागू करता है जो मनुष्य को मोक्ष कि ओर ले जाता है। यह बात शान्ति पूर्व, शुक्रनीति तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी कही गयी है जैसे राज्य के द्वारा यज्ञ, देव पुजा, धार्मिक, कार्य में आने वालो वस्तुओं पर कर न लगाना तथा सभी वर्गों से धर्म का पालन करना आदि, इन सभी बातों से स्पष्ट है कि ‘राज्य’ का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति था।

  1. धर्म और राजनीति का घनिष्ठ सम्बन्ध :-

प्राचीन भारत में राजनीतिक सिद्धांतों का विकास धर्म के आने के रूप में हुआ। भारतीय विचार में सभी कुछ धर्म द्वारा प्रचलित है धर्म एक व्यापक शब्द है उसी कारण हिन्दू राजशास्त्र वेत्ताओं के राजनीति और धर्म एक एक दूसरे से पृथक नहीं किया। इसी कारण धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में राज्य का विचार ‘राजशास्त्र’ मे नाम से किया गया है अर्थात राजा का और प्रजा का पारस्परिक धर्म, राज्यभिषेक की विधि, राजाओं द्वारा यज्ञ करना, पुरोहित की नियुक्ति, राजकुमारों के संस्कार आदि का वर्णन है। इन धार्मिक पुस्तकों में सिर्फ यही नहीं बताया गया है कि राजा और शासन को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए अपितु मंत्रियों, पुरोहित, सेनापतियों, दूत, न्यायधीश, कर्मचारी और सैनिकों के कर्तव्यों प्रेरित का भी वर्णन है। कर्तव्य और धर्म समानार्थक है इस कारण भी राज्य सम्बन्धी विचार धर्म से प्रेरित है।

इसी कारण प्राचीन भारत की राजनीति में नैतिकता का समावेश रहा और राज्यशास्त्र को नीतिशास्त्र कहकर पुकारा गया। धर्म का रक्षण राज्य का प्रमुख दायित्व था। धर्म और राजनीतिक विचार एक दूसरे से गुथे हुए हैं। राजनीति और धर्म के पारम्परिक घनिष्ठ संबंध का आभास इसी तथ्य से हो जाता है की जिन ग्रन्थों को प्राचीन भारतीय राजनीति के प्रमुख ग्रंथ माना जाता है वे धार्मिक दृष्टि से पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं। वेद, उपनिषद, स्मृतियाँ, महाभारत, रामायण, पुराण आदि साहित्यिक ग्रन्थों का प्राचीन महत्व की राजनीति को समझने के लिए जितना महत्व हैं उससे भी अधिक महत्वपूर्ण इसको धार्मिक दृष्टि से माना जाता है। बौद्ध जातक एवं जैन धर्म के अनेक ग्रंथ धार्मिक दृष्टि से उपयोगी तथा सार्थक होने के साथ साथ उस समय की राजनैतिक संस्थाओं एवं विचारों का भी दिग्दर्शन कराते है।

  1. भारतीय ग्रन्थों मे राजनीतिक विचारों में एकता :-

भारतीय राज्यशास्त्र के ग्रन्थों में राज्य व्यवस्था सम्बन्धी विचारों में समन्वयात्मकता एवं एकता है। पाश्चात्य राजनीतिक विचारों एवं शास्त्रकारों में जो मतभेद और एक दूसरे के विचारों का खण्डन एवं आलोचना दिखाई देता है वैसा भरितीय राजनीतिक ग्रन्थों में हमे दिखाई नहीं देता। विविध ग्रंथ एक से ही विचारों का प्रतिपादन करते हैं मोक्ष, त्रिगुण सिद्धांत, कर्मफल सिद्धांत, पुरुषार्थ, वर्णाश्रम व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था आदि विचारों मे मात्रात्मक अंतर है गुणात्मक नहीं, किसी ग्रंथ मे कम वर्णक तो किसी में अधिक। इसी प्रकार राज्यभिषेक, राजा के दैनिक कार्य, राज्यपद की उत्पत्ति, राज्य के तत्व, अंतर राज्य सम्बंध आदि राजनीति विचारों के क्षेत्र में भी मनु, याज्ञवल्क और कौटिल्य इन सब में विस्तारपूर्वक विचार करने पर समानता ही दिखाई देगी।

  1. राजनीतिक एवं सामाजिक विषयों में समन्वय :-

प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में विचारों की एकात्मकता के कारण राज्य, राजा, समाज, व्यवस्था, संस्थान, मनुष्य सभी का निर्माता ईश्वर (ब्रह्मा) है। राज्य एवं राजा की उत्पत्ति का दैवी सिद्धांत मोक्ष की प्राप्ति राज्य का लक्ष्य होना सांसरिक जीवन में पारलौकिक में आध्यात्मिक एवं नैतिक आचरण धर्मशास्त्रों के नियमों का समाज में पालक ऐसे सनातन विचार हैं। जिसे सामाजिक व्यवस्था एवं राजनीतिक व्यवस्था दोनों में ही समान मान्यता दी गयी है।

  1. राज्य एक आवश्यक एवं उपयोगी संस्था है :-

प्राचीन राजनीतिक विचारकों ने इस बात का समर्थन किया है कि राज्य का होना सामाजिक जीवन में अत्यंत आवश्यक एवं उपयोगी है। जीवन मे तीनों लक्ष्यों धर्म, अर्थ और कर्म कि राज्य के बिना प्राप्ति संभव नहीं हो सकती ऐसा माना गया है। भारतीय विचार में राज्य व्यवस्था के महत्व का निरूपण करते हुए माना गया है कि जब राज्य व्यवस्था नष्ट हो जाती है तो समाज बिखर जाता है उसमें ‘मत्स्य न्याय’ फैल जाता है अर्थात एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण होने लगता है। राज्य ने ही समाज को बंधे रखा है इस कारण धर्मशास्त्र में भी एक अंग के रूप में राज्यधर्म का वर्णन किया जाता है अत: हम कह सकते हैं कि समाज में राज्य के महत्व को सभी प्राचीन ऋषिमुनियों, महर्षियों एवं विद्वानों ने स्वीकार किया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में व्यक्तिवादी और अराजकतावादी विचारों का अभाव रहा। अराजक्तावादियों के अनुसार राज्य अनावश्यक और अनुपयोगी है और व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हैं। उनके विपरीत प्राचीन भारतीय रजनीतिशास्त्री राज्य का विष्टरित कार्य क्षेत्र मानते थे, जो आज के लोककल्याणकारी राज्य से बहुत साम्य रखता है।

  1. राजनीतिक व्यवस्था परमात्मा द्वारा रचित :-

प्राचीन राजनीतिक विचारों को ईश्वर द्वारा रचित माना गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि राजा, राज्य, दण्ड, नीतिशास्त्र एवं राजनीति परमात्मा द्वारा निर्मित है। इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि परमात्मा ने स्वयं आकर पृथ्वी पर इनकी रचना की परंतु इसका इतना ही अर्थ है यह सब समाज के लिए लाभप्रद है तथा जिसने भी इनकी रचना की होगी उनमें परमात्मा तत्व रहा होगा तथा उसके लिए उन्हें परमात्मा से प्रेरणा प्राप्त हुई होगी।

  1. राज्य के उद्देश्यों के बारे में आम सहमति :-

पाश्चात्य राजनीतिक दर्शनिकों में राज्य के ध्येयों के बारे में विभिन्न धारणाए प्रचलित हैं जबकि प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शनिकों के मतों में राज्य के ध्येय के बारे में भी सहमति आयी जाती है। सभी प्राचीन विचारक यह मानते हैं कि राज्य का प्रथम कर्तव्य धर्म का पालन करना है। धर्म में व्यक्ति का अपना धर्म, वर्ण धर्म और आश्रम धर्म सभी आ जाते हैं। कौटिल्य के अनुसार राजा के लिए यह आदेश था कि वह व्यक्तियों को अपने अपने धर्म से विचलित न होने दे। सभी प्राचीन लेखकों के अनुसार राज्य का कर्तव्य न्याय का प्राशसन करना है और राज्य को अपनी प्रजा कि रक्ष करनी चाहिए। रहा के लिए बहुधा यह उपदेश है कि वह अपनी प्रजा के प्रति पिता तुल्यव्यवहार करे। राज्य व शासन के ध्येयों के प्रति एकमत होने का परिणाम यह रहा है कि राज्य के कार्यक्षेत्र के बारे में पाश्चात्य जगत की भाति प्राचीन भारत में विभिन्न बाद उत्पन्न नहीं हुए।

  1. प्राचीन भारत में राजतंत्र की प्रमुखता :-

भारतीय राजनीतिक विचार मुख्य रीति से राजतंत्र का विचार है। राजनीति का वर्णन करने वाली सभी भारतीय ग्रंथ राज्य व्यवस्था का केंद्र बिन्दु राजा को मानकर तदनुसार सम्पूर्ण विचार करते हैं तथा इसलिए राज्य के सप्तांगो में भी सर्वप्रमुख अंग राजा ही बताया गया है। राज्य की उत्पत्ति का भी विचार राजा की सर्वप्रथम नियुक्ति के रूप में बताया गया है। भारतीय विचार में राजतंत्र की दृष्टि से सम्पूर्ण विवेचन है। यूनान के समान यहा गणतन्त्र तथा कुलीनतंत्र का विवेचन लगभग नहीं है। महाभारत के दो अध्यायों में तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र के एक अध्याय में तथा बौद्ध, जैन ग्रन्थों में ‘गण’ अथवा ‘सघ’ के नाम से इन राजपद्दतियों का कुछ विवेचन है किन्तु प्रमुख रूप से राजतंत्र का ही वर्णन है।

  1. राजा को सर्वोपरि स्थान :-

प्राचीन भारतीय राजशास्त्र की एक अन्य विशेषता राजा जे पद को अत्यधिक उचा स्थान प्रदान किया जात है। प्राय: सभी लेखाओं के राजपद को दैवी माना है और राजा के दैवी गुणों का समावेश किया है। एक प्रकार से राज्य का सार ही राजा होता था। कौटिल्य ने राजा और राज्य के बीच कोई अंतर नहीं किया। कालिदास ने भी कहा है ‘विश्व के प्रशासन का कार्यभार खुद सृष्टिकर्ता ने राजा के कंधों पर रखा है’। यदि राज्य में कोई कमी रहती है तो उसके लिए राजा दोषी है। राजा को रात और दिन हर समय कार्य करना पड़ता है। इस सम्बंध में महत्वपूर्ण बात यह है कि राजा को अत्यधिक ऊंचा स्थान देते हुए भी उसे निरंकुशता की स्थिति प्रदान नहीं की गयी है। राजा पर सबसे प्रमुख रूप से धर्म का प्रतिबंध है और वह मंत्रिपरिषद कि सलाह लेने के लिए भी बाध्य है।

  1. प्राचीन भारत में छोटे राज्यों का अस्तित्व था :-

भारतीय राजनीतिक विचार यह मानकर चलता है कि पृथ्वी अथवा भारतवर्ष भी कई राज्यों में विभाजित है। इसलिए अंतर्राज्य सम्बन्धों के विचार में विजिगीषु (विजय की इच्छा रखने वाला)को केंद्र मानकर सम्पूर्ण विचार है, जो एक विशेष क्षेत्र पर शासन करता हुआ राजनीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि वह सम्पूर्ण भारत अथवा पृथ्वी पर प्रभुत्व स्थापित कर ले। चक्र्वर्तित्व का, सर्वभौम राज्य का वर्णन भी इसी दृष्टि से है तथा अश्वमेध यज्ञ का किया जाना भी इस बात को प्रसिद्ध करता है कि विजिगीषु राजा अन्य राजाओं को अपनी शक्ति से पराभूत करता हुआ उन्हे अपने अधीन कर लेगा। भारतीय राजनीतिक विचार का आधार एक ऐसा राज्य है जो बहुत बड़ा नहीं है परंतु जिसका शासक अन्य राजाओं को अपने अधीन करने के लिए प्रयत्नशील है अर्थात भारतीय राजनीतिक विचार छोटे राज्यों का विचार है। भारतीय राजनीतिक विचार बहुत से छोटे छोटे राज्यों का विचार होने के कारण तथा भारतीय विचार में एक एकात्मक राज्य का अस्तित्व भर की एकता का आधार नहीं बताया गया है।

  1. भारतीय राजदर्शन आदर्शवादी न होकर व्यावहारिक :-

भारतीय राजदर्शन में आदर्श राज्य संबंधी काल्पनिक रचनाओं का सर्वथा अभाव है । हिस प्रकार पाश्चात्य जगत में प्लेटो का ‘रिपब्लिक’ और सर टौमस मूर का ‘यूटोपिया’ है वैसे ग्रंथ प्राचीन भारत में किसी ने नहीं लिखे। इसी आधार पर यह कहना उचित होगा कि प्राचीन भारत की रचनाओं का दृष्टिकोण व्यावहारिक था कोरा सैद्धांतिक या काल्पनिक नहीं। ए० के० सेन ने लिखा है ‘’हिन्दू राजनीतिक चिंतन उत्कृष्ट वास्तविकता से भरा पड़ा है और कुछ राजनीतिक अपवादों को छोड़ कर भारतीय राजनीतिक विचारों का सम्बंध राज्य के सिधान्त और दर्शन से उतना नहीं है जितना राज्य की स्थूल समस्याओं से है।’’

भारतीय राजनीतिक विचार व्यवहार पर आधारित है जिसे रही की आवश्यकता और महत्व (अराजकता के वर्णन द्वारा विभिन्न देवताओं के वर्णन के समय) राज्य व्यवस्था और समाज जीवन का सम्बंध, कर के सिद्धांत, दंड के सिद्धांत, न्याय का सिद्धांत स्मृतियों में अथवा नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में पाये जाते हैं परंतु भारतोय विचार में मुख्य रीति से राजनीतिक तथा राज्य व्यवस्था का व्यावहारिक विवेचन है। उदाहरण स्वरूप राज्य के सप्तांगो का विचार पूर्ण रीति से व्यावहारिक ढंग से किया गया है और कारण उसमें सेना, कोश तथा मित्र को भी रही का अंग बताया गया है अथवा विभिन्न राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में मण्डल का विचार, षाडगुणा का विचार (संधि, विग्रह आदि) तथा एसबी विचार व्यावहारिक ढंग से किए गए हैं। राजनीति सम्बन्धी अधिकांश भारतीय सिद्धांतों को इन्ही व्यावहारिक विचारों में से खोज कर निकाला जा सकता है।

  1. दंडनीति का महत्व :-

भारतीय दर्शन मानवीय जीवन में आसुरी प्रवित्तियों की प्रबलता को स्वीकार करते हैं और इसी कारण उनके द्वारा दण्ड की शक्ति को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। राजनीति में दण्ड के महत्व का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इंका नामकरण उनके लेखकों के दंडनीति को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुए अन्य सभी विधाओं को उसी के मातहत बनाता है। मनु के कथन के अनुसार दण्ड ही शासन है।

  1. विशेष शब्दावली का प्रयोग :-

भारतीय राजनीति शास्त्र की अपनी शब्दावली है जो वर्तमान कल की पश्चिमी राजनैतिक विचारों पर आधारित शब्दावली से बिलकुल भिन्न है। उदाहरण के लिए राज्य का साप्तांग सिद्धांत, अंतरराज्य सम्बंध के चार उपाय (साम, दाम, दण्ड तथा भेद), तीन शक्तियाँ (सत्यगुण, रजोगुण तथा तमोंगुण), कर्मफल सिद्धांत, त्रिगुण सिद्धांत, आश्रम व्यवस्था आदि।

  1. विचारों की अपेक्षा संस्थाओं पर विशेष बल :-

हिन्दू राजनीति के रचनाकारों ने अनेक अध्ययन का केंद्र बिन्दु राजनैतिक संस्थाओं को बनाया है। इन संस्थाओं का महत्व, संगठन तथा कार्य आदि का विषाद रूप से वर्णन किया गाया है। इनके राजनैतिक मान्यताओं तथा सिद्धांतों का वर्णन केवल प्रासंगिग रूप से किया गया है। समस्त अध्ययन को केंद्र बिन्दु मूल रूप से राजनीतिक संगठनों तथा उनके कार्यों को बनाया गया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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