जयशंकरप्रसाद

जयशंकरप्रसाद की जीवनी

जयशंकरप्रसाद की जीवनी 

जीवन-परिचय ( जयशंकरप्रसाद की जीवनी ) – छायावादी युग के प्रवर्त्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के एक सम्पन्न वैश्य-परिवार में सन् 1889 ई० ( संवत 1946 ) में हुआ था। उनके पिता तथा बड़े भाई बचपन में ही स्वर्गवासी हो गए थे। अल्पावस्था में ही लाड-प्यार से पले प्रसादजी को घर का सारा भार वहन करना पड़ा। उन्होने विद्यालयीय शिक्षा छोड़कर घर पर ही अंग्रेजी, हिन्दी, बाँग्ला तथा संस्कृत आदि भाषाओं का ज्ञानार्जन किया। अपने पैतृक कार्य को करते हुए भी उन्होंने अपने भीतर काव्य-प्रेरणा को जीवित रखा। जब भी समय मिलता, उनकी मन भाव-जगत् के पुष्प चुनता, जिन्हें वे दुकान की बही के पन्नों पर सँजो दिया करते थे। अत्यधिक श्रम तथा जीवन के अन्तिम दिनों में राजयक्ष्मा से पीड़ित रहने के कारण 14 नवम्बर, सन् 1987 ई० (संवत् 1994) को 48 वर्ष की अल्पायु में ही उनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक व्यक्तित्व- द्विवेदी युग से अपनी काव्य-रचना का प्रारम्भ करने वाले महाकवि जयशकर प्रसाद छायावादी काव्य के जन्मदाता एवं छायावादी युग के प्रवर्त्तक समझे जाते हैं। इनकी रचना ‘कामायनी’ एक कालजयी कृति है, जिसमें छायावादी प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं का समावेश हुआ है। अन्तर्मुखी कल्पना एवं सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य की मुख्य विशेषता रही है।

प्रसाद छायावादी युग के सर्वश्रेष्ठ कवि रहे हैं। प्रेम और सौन्दर्य इनके काव्य का प्रमुख विषय रहा है, किन्तु इनका दृष्टिकोण इसमें भी विशुद्ध मानवतावादी रहा है। इन्होंने अपने काव्य में आध्यात्मिक आनन्दवाद की प्रतिष्ठा की है। ये जीवन की चिरन्तन (अनिवार्य रूप से उत्पन्न होने वाली स्थायी) समस्याओं का मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित समाधान ढूंढने के लिए प्रयत्नशील रहे। इनका दृष्टिकोण था कि इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया का सामंजस्य ही उच्चस्तरीय मानवता का परिचायक है।

प्रसाद आधुनिक हिन्दी काव्य के सर्वप्रवम कवि थे। इन्होंने अपनी कविताओं में सूक्ष्म अनुभूतियों का रहस्यवादी चित्रण प्रारम्भ किया और हिन्दी काव्य-जगत् में एक नवीन क्रान्ति उत्पन्न कर दी। इनकी इसी क्रान्ति ने एक नाए युग का सूत्रपात किया जिसे छायावादी युग के नाम से जाना जाता है।

कृतियाँ-

प्रसादजी सर्वतोन्मुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होंने कुल 67 रचनाएं प्रस्तुत कीं। इनकी प्रमुख काव्य-रचनाओ्यों का विवरण इस प्रकार है-

(1) कामायनी- यह महाकाव्य छायावादी काव्य का कीर्ति-स्तम्भ है। इस महाकाव्य में मनु और श्रद्धा के माध्यम से मानव को हृदय (श्रद्धा) और बुद्धि (इड़ा) के समन्वय का सन्देश दिया गया है।

(2) ऑसू- यह वियोग पर आधारित काव्य है। इसके एक-एक छन्द में दु:ख और पीड़ा साकार हो उठी है।

(3) चित्राधार- यह प्रसादजी का ब्रजभाषा में रचित काव्य-संग्रह है।

(4) लहर- इसमें प्रसादजी की भावात्मक कविताएँ संगृहीत हैं।

(5) झरना- यह प्रसादजी की छायावादी कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह में सौन्दर्य और प्रेम की अनुभूतियों को मनोहारी रूप में वर्णित किया गया है।

इनके अतिरिक्त प्रसादजी ने अन्य विघाओं में भी साहित्य-रचना की है। उनका विवरण इस प्रकार है-

  1. नाटक- नाटककार के रूप में उन्होंने चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जनमेजय का नागयज्ञ, कामना, एक घूँट, विशाख, राज्यश्री, कल्याणी, अजातशत्रु और प्रायश्चित्त नाटकों की रचना की है।
  2. उपन्यास- कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण रचना)।
  3. कहाना-संग्रह- प्रसादजी उत्कृष्ट कोटि के कहानीकार थे। उनकी कहानियों में भारत का अतीत

मुस्कराता है। प्रतिध्वनि, छाया, आकाशदीप, आँधी और इन्द्रजाल उनके कहानी-संग्रह हैं।

  1. निबन्ध- काव्य और कला।

काव्यगत विशेषताएँ

(क) भाव-पक्ष- आधुनिक काल के छायावादी एवं रहस्यवादी कवियों में प्रसाद जी का सर्वोच्च स्थान है। ‘आँसू’ इनका प्रथम छायावादी काव्य है। कामायनी इनकी अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ रचना है। पौराणिक कथा पर आधारित इस काव्य में इन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा को चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। ये भारतीय संस्कृति के सच्चे पूजारी थे, जिसका प्रभाव इनकी रचनाओं पर पड़ा है। प्रसादजी मूल रूप से कल्पना और भावना के कवि थे। भावना के क्षेत्र में इन्होंने प्रेम और सौन्दर्य को स्थान दिया है। इनकी यह प्रेम-भावना मुख्यत: तीन रूपों में दिखायी देती है- (1) ईश्वरोन्मुख लौकिक प्रेम, (2) भारतीय संस्कृति से प्रेम, ( 3 ) प्रकृति प्रेम।

(ख) कला-पक्ष-भाषा- प्रसादजी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है। वह सरल और क्लिष्ट दो रूपों में दिखायी देती है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में व्यावहारिक भाषा का प्रयोग हुआ है, किन्तु पद की रचनाएँ संस्कृत प्रधान हो गयी हैं। अत: कहीं-कहीं क्लिष्टता आ गयी है। इनका वाक्य-विन्यास और शब्द-चयन अति सुन्दर और अद्वितीय है। इनकी रचनाओं में एक-एक वाक्य नगीने की भाँति जड़ा होता है। इनकी भाषा लाक्षणिकता और चित्रात्मकता अधिक है, किन्तु मुहावरों का सर्वथा अभाव है। सच तो यह है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रसाद जैसी सशक्त भाषा किसी साहित्यकार की नहीं है।

शैली – प्रसाद जी की शैली ठोस, स्पष्ट, परिष्कृत और स्वाभाविक है। छोटे-छोटे वाक्यों में गम्भीर भाव भर देना और उसमें संगीत का विधान कर देना इनकी शैली की विशेषता है। इनकी रचनाओं में इनका व्यक्तित्व झाँकता रहता है। इन्होंने अपने दार्शनिक विचारों को गम्भीर शैली में व्यक्त किया है तथा लज्जा, चिन्ता आदि मानसिक भावों के चित्रण में इन्होंने भावात्मक शैली को अपनाया है।

रस- रस की दृष्टि से प्रसाद जी मुख्यत: श्रींगार रस के कवि हैं, किन्तु करुण, वीर, वात्सल्य आदि के भी सुन्दर उदाहरण इनकी रचनाओं में मिलते हैं।

अलकार- प्रसाद जी ने अलंकारों का सुन्दर स्वाभाविक प्रयोग किया है। उनमें रूपक, उत्प्रेक्षा,

उपमा, श्लेष, विरोधाभास आदि मुख्य हैं। एक उदाहरण देखिए-

रूपक-

काली आँखों में कितनी, यौवन के मद की लाली।

मानसिक मदिरा से भर दी, कितने नीलम की प्याली॥

छन्दै- आधुनिक छन्दों के अतिरिक्त प्रसादजी ने कवित्त, रोला, रूपमाला आदि छन्दों को अपनाया है। संस्कृत छन्दों के साथ इन्होंने सुन्दर गोत भी लिखे हैं।

वस्तुतः प्रसादजी का कवि-रूप बडा ओजस्वी था। ये छायावादी युग के प्रथम प्रवर्तक थे। आधुनिक युग के कावियों में उनका स्थान सर्वोच्च है। इनकी रचनाओं के कारण हिन्दी साहित्य गौरवान्वित हुआ है।

स्मरणाय तथ्य

जन्म- 1889 ई०, काशी

मृत्यु- 1917 ई०

पिता- बाबू देवीप्रसाद

रचनाएँ- झरना, लहर, औँगू, कामायनी, प्रेम पथिक आदि ।

काव्यगत विशेषताएँ

वर्ण्य-विषय- छायावाद, रहस्यवाद, ईश्वरोन्मुखे लौकिक प्रेम, प्रकृति प्रेम तथा भारतीय संस्कृत से प्रेम।

रस- प्रायः सभी

भाषा- आरम्भ में ब्रजभाषा, बाद में खड़़ीबोली, संस्कृत शब्दों की प्रचुरता, मुहावरों का अभाव ।

शैली- 1. कथात्मक, 2. दुरूह तथा गहान और 3. भावात्मक

अलंकार- सभी प्राचीन, नवीन (मानवीकरण आदि) अलंकार।

छन्द- हिन्दी के प्राचीन छन्द।

कवि-लेखक (poet-Writer) – महत्वपूर्ण लिंक

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