भूगोल / Geography

हरित क्रांति के दोष अथवा समस्याएं | Demerits or Problems of Green Revolution in Hindi

हरित क्रांति के दोष अथवा समस्याएं | Demerits or Problems of Green Revolution in Hindi

देश में हरित क्रान्ति के फलस्वरूप कुछ फसलों के उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई है, खाद्यान्नों के आयात में कमी आई है, कृषि के परम्परागत स्वरूप में परिवर्तन आया है, फिर भी इस कार्यक्रम में कुछ कमियां परिलक्षित होती हैं। हरित क्रांति की सफलता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वान तो इसे पूर्णतः सफल क्रांति मानते हैं जिसने भारत सहित कई अन्य विकासशील देशों में कृषि उत्पादन में सचमुच ही क्रांति ला दी। परन्तु कुछ अन्य विद्वानों का यह मत है कि हरित क्रांति से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाए और इससे आर्थिक, सामाजिक तथा क्षेत्रीय विषमताएं बढ़ी हैं। इनका विवरण निम्न प्रकार है:

  1. सीमित फसलें (Limited Crops ): हरित क्रांति का सीमित फसलों पर ही प्रभाव पड़ा इसके प्रभावाधीन मुख्यत: खाद्यान्नों के उत्पादन में ही वृद्धि हुई और खाद्यान्नों में भी गेंहूँ की उपज ही विशेष रूप से बढ़ी। ज्वार, बाजरा तथा मक्का की उपज में भी वृद्धि हुई। चावल भारत की सबसे अधिक महत्वपूर्ण खाद्य फसल है परन्तु इसकी उपज पर हरित क्रांन्ति का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। पटसन, कपास, चाय, गन्ना जैसी व्यापारिक फसलें हरित क्रांति के लाभ से लगभग पूर्णतः वंचित हैं। जिन क्षेत्रों में पहले दालें बोई जाती थीं, वहाँ हरित क्रान्ति के अन्तर्गत गेहूँ बोया जाने लगा , जिससे दालों के उत्पादन में कमी आ गईं। सन् 1985-86 के बाद दालों की उपज में कुछ वृद्धि होने लगी। सन् 2001 से 2008 तक दालों के उत्पादन में काफी परिवर्तनशीलता पाई गई।
  2. सीमित प्रदेश (Limited Areas ): हरित क्रान्ति का प्रभाव पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु आदि राज्यो तक ही सीमित है। इसका प्रभाव सम्पूर्ण देश पर न फैल पाने के कारण देश का सन्तुलित रूप से विकास नहीं हो पाया। इस तरह, हरित क्रान्ति सीमित रूप से ही सफल रही है।

भारत में हरित क्रान्ति का प्रभाव बहुत ही सीमित क्षेत्र पर पड़ा। देश की लगभग 40% भूमि ही हरित क्रांति से प्रभावित हुई और शेष 60% भूमि इसके लाभ से वंचित रह गई। पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति का प्रभाव सबसे अधिक हुआ। आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु पर भी इसका प्रभाव पड़ा। परन्तु उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा शुष्क प्रदेश में हरित क्रांति अपना कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखा पाई।

  1. क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि (Increase in Regional Inequalities): हरित क्रांति का प्रभाव सीमित क्षेत्र पर ही पड़ने से क्षेत्रीय असमानता बढ़ गई। केवल उन्हीं क्षेत्रों में कृषि का उत्पान बढ़ा जहाँ कृषि पहले से ही अपेक्षाकृत उन्नत अवस्था में थी। पिछड़े हुए क्षेत्रों में स्थिति अब भी लगभग पहले जैसी ही है। क्योंकि हरित क्रांति मुख्यत: ‘गेहूँ क्रांति’ तक ही सीमित रही इसलिए इसका प्रभाव 185.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही सर्वाधिक पड़ा जहाँ 1983-84 तक अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग किया गया। ये क्षेत्र पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग तक ही सीमित थे। सन् 1964-65 में पंजाब तथा हरियाणा मिलकर भारत का 7.5% खाद्यान्न पैदा करते थे, जो 1983-84 में बढ़कर 14.3% हो गया। 1983-84 में इन दो राज्यों ने भारत का 30.8% गेहूँ पैदा किया। पंजाब में प्रति हेक्टेयर गेहूँ की उपज 30.2 क्विटल थी जब कि देश के अन्य भागों में यह 13.8 क्विटल प्रति हेक्टेयर ही थी। पिछले कुछ वर्षों में चावल की उपज में भी वृद्धि हुई, परन्तु यह फसल भी मुख्यत: पजाब, होरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में ही अधिक बढ़ी। सन् 1970-71 में ये क्षेत्र देश का कुल 5.9% चावल पैदा करते थे और 2008-09 में यहाँ भारत का 22.5% चावल पैदा होने लगा।

पिछले कुछ वर्षों में देश के मध्यवर्ती शुष्क क्षेत्र में दालों के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, जिससे क्षेत्रीय विषमताएं कुछ कम करने में सहायता मिली। इस क्षेत्र में गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के अपेक्षाकृत शुष्क क्षेत्र सम्मिलित हैं। सन् 1969-72 से 1981-84 के बीच महाराष्ट्र तथा गुजरात में क्रमशः 9.7 प्रतिशत तथा 3.1 प्रतिशत प्रतिवर्ष दालों के उत्पादन में वृद्धि हुई, जबकि इसी अवधि में पंजाब तथा हरियाणा में क्रमश: 7.3% तथा 5.6% प्रतिवर्ष की कमी हुई। क्योंकि हमारा मुख्य ध्यान गेहूं के उत्पादन की ओर केन्द्रित रहा, इसलिए इस महत्वपूर्ण उपलब्धि की प्रायः अनदेखी की जाती है।

पूर्वी क्षेत्र, जिसमें असम, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा, सम्मिलित हैं, हरित क्रांति से लाभ नहीं उठा सका। इसी प्रकार से दक्षिणी क्षेत्र (तमिलनाडु तथा आन्ध्र प्रदेश को छोड़कर) भी हरित क्रांति के प्रभाव से वंचित ही रहा और क्षेत्रीय विषमताओं को प्रोत्साहन मिला।

  1. व्यक्तिगत विषमताओं में वृद्धि ( Increase in Inter-Personal Inequalities); हरित क्रांति से क्षेत्रीय असमानताओं के साथ-साथ व्यक्तिगत विषमताएं भी बहुत बढ़ी हैं। इसका कारण यह है कि हरित क्रांति का अधिकतम लाभ बड़े किसान ही उठा सके क्योंकि उनके पास कृषि उपकरण, उन्नत बीज, उर्वरक तथा सिंचाई का प्रयोग करने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन थे। इसके विपरीत, निर्धन तथा छोटे किसानों के पास इन वस्तुओं को खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता और वे अपना उत्पादन अधिक नहीं बढ़ा सकते। इस प्रकार अमीर किसान अधिक अमीर तथा गरीब किसान अधिक गरीब हो गए।
  2. बेरोजगारी में वृद्धि ( Increase in Un employment ): हरित क्रांति के अन्तर्गत धनी किसानों ने मशीनों का प्रयोग अधिक करना शुरू कर दिया, जिससे कृषि मजदूरों में बेरोजगारी अधिक फैल गईं। यद्यपि ग्रामीण तथा कुटीर उद्योगों में कुछ श्रमिक रोजगार प्राप्त कर सके हैं तथापि निर्धन तथा भूमिहीन मजदूरों की दशा पहले से भी अधिक खराब हो गई।
  3. कृषि उत्पादन की कम वृद्धि दर (Less Growth Rate of Agricultural Production): हरित क्रांति से कृषि उत्पादन में उतनी अधिक वृद्धि नहीं हो सकी जितनी इससे आशा की जाती थी। 1949-50 से 1964-65 तक खाद्यान्नों के उत्पादन में 2.8% की दर से वृद्धि हुई जबकि 1970-71 से 1980-81 तक यह वृद्धि दर घटकर 2.5% रह गई। 2000-01 के आर्थिक सर्वेक्षण (Economic Survey, 2000-01) के अनुसार 1961 में 399.7 ग्राम खाद्यान्न प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्ध थे, जो 1981 में 417.3 ग्राम तथा 2000 में 439.8 ग्राम थे। दालों की उपलब्धि 1956 में 78.4 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से घटकर 2000 में 31.2 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई।
  4. पूंजीवादी कृषि को बढ़ावा- अधिक उपजाऊ किस्म के बीज एक पूंजी – गहन कार्यक्रम है जिसमें उर्वरकों, सिंचाई, कृषि यन्त्रों आदि आगतों पर भारी मात्रा में निवेश करना पड़ता है। भारी निवेश करना छोटे तथा मध्यम श्रेणी के किसानों की क्षमता से बाहर है। इस तरह, हरित क्रान्ति से लाभ उन्हीं किसानों को हो रहा है जिनके पास निजी पम्पिंग सेट, ट्रैक्टर, नलकूप तथा अन्य कृषि यन्त्र हैं। यह सुविधा देश के बड़े किसानों को ही उपलब्ध है। सामान्य किसान इन सुविधाओं से वंचित है। फलतः कृषि क्रान्ति का प्रसरण-प्रभाव (spread effect) कमजोर रहा है जिसके कारण भारतीय खेती का विकास कुछ सीमित आर्थिक घेरे में ही सिमट कर रह गया है। अन्य शब्दों में, हरित क्रान्ति का लाभ बड़े किसान ही उठा रहे हैं। इस प्रकार इससे पूंजीवादी खेती को प्रोत्साहन मिल रहा है।
  5. संस्थागतं सुधारों की आवश्यकता पर बल नहीं- नई विकास विधि में संस्थागत सुधारों की आवश्यकता की सर्वथा अवहेलना की गयी है। संस्थागत परिवर्तनों के अन्तर्गत सबसे महत्वपूर्ण घटक भू-धारण की व्यवस्था है। इसकी सहायता से हो तकनीकी परिवर्तन द्वारा अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। देश में भूमि सधार कार्यक्रम सफल नहीं रहे हैं तथा लाखा कृषकों को आज भी भू-धारण की निश्चितता नहीं प्रदान का जा सकी है। भूमि-सुधार के नाम पर बड़े पैमाने पर काश्तकारो को बेदखल किया गया है जिसके फूलस्वरूप उन्हें विवश होकर फसल सह-भाजक बनना पड़ गया है। इसी तरह उर्वरक के प्रयोग के विस्तार में काश्तकारी खेती ही एक प्रमुख बाधा है। क्योंकि काश्तकारों की अपेक्षा भू-स्वामी ही उर्वरकों का अधिक मात्रा में उपयोग कर सकते हैं।
  6. श्रम-विस्थापन की समस्या- हरित क्रान्ति के अन्तर्गत प्रयुक्त कृषि यन्त्रीकरण के फलस्वरूप श्रम-विस्थापन को बढ़ावा मिला है। कृषि में प्रयुक्त यन्त्रीकरण से श्रमिकों की मांग पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः भारत जैसी श्रम-अतिरेक वाली अर्थव्यवस्थाओं में यन्त्रीकरण बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न कर सकता है। ग्रामीण जनसंख्या का रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने का यह भी एक कारण है।
  7. आय की बढ़ती असमानता- कृषि में तकनीक परिवर्तनों का ग्रामीण क्षेत्रों में आय-वितरण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। डॉ. वी. के. आर. वी. राव के अनुसार, “यह बात अब सर्वविदित है कि तथाकथित हरित क्रान्ति जिसने देश में खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने में सहायता दी है, के साथ ग्रामीण आय में असमानता बढ़ी है, बहुत से छोटे किसानों को अपने काश्तकारी अधिकार छोड़ने पड़े है और ग्रामीण क्षेत्रों सामाजिक और आर्थिक तनाव बढ़े हैं।”
  8. आवश्यक सुविधाओं का अभाव- हरित क्रान्ति की सफलता के लिए आवश्यक सुविधाओं यथा-सिंचाई व्यवस्था, कृषि साख, आर्थिक जोत तथा सस्ते आगतों आदि के अभाव में कृषि-विकास के क्षेत्र में वांछित सफलता नहीं प्राप्त हो पा रही है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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