जीन बोदों का संप्रभुत्ता का सिद्धान्त

जीन बोदों का संप्रभुत्ता का सिद्धान्त | Gene Bodo’s theory of sovereignty in Hindi

जीन बोदों का संप्रभुत्ता का सिद्धान्त | Gene Bodo’s theory of sovereignty in Hindi

जीन बोदों का संप्रभुत्ता का सिद्धान्त

राज्य-दर्शन के इतिहास में बोदों का संप्रभुत्ता का सिद्धान्त सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कोकर ने इस सिद्धान्त को राजदर्शन के क्षेत्र के बादा की सबसे बड़ी और विशिष्ट देन  माना है। यद्यपि वह इस विचार का.जन्मदाता नहीं कुहा जा सकता। इस सिद्धान्त के बीज यूनान और रोम के प्राचीन विचारकों की कृतियों में उपलब्ध होते हैं, फिर भी बोदाँ पर व्यक्ति था, जिसने इसकी सुस्पष्ट व्याख्या की और इसे राजनीति शास्त्र का सिद्धान्त बनाया।

बोदाँ अपने समय की परिस्थितियों से बहुत अधिक प्रभावित था । सोलहवीं शताब्दी का योरोप मध्य युग के योरोप से भिन्न था। इस समय तक पोप की शक्ति क्षीण हो चकी थी और शक्तिशाली राष्ट्रीय राज्यों का जन्म हो रहा था। वास्तव में यह युग राष्ट्रीय राज्यों का था। इङ्गलैण्ड, फ्रांस, स्पेन आदि. देशों में राष्ट्रीय राज्य स्थापित हो चुके थे। फ्रांस को बोदाँ एक शक्तिशाली राज्य के रूप में देखना चाहता था| यही कारण है कि उसने सम्प्रभुता को राज्य की सर्वोच्च शक्ति माना जो असीमित है और कानून से ऊपर है।

  • सम्प्रभुता का अर्थ –

सम्प्रभुता की परिभाषा करते हुये बोदाँ ने कहा है कि सम्प्रभुता नागरिकों और प्रजाजनों पर प्रयुक्त की जाने वाली वह सर्वोच्च शक्ति है जो विधियों (कानूनों) द्वारा नियंन्त्रित नहीं होती। “Sovereignty is the supreme power over citizens and subjects, unrestrained by Law.” उसने कहा कि सार्वभौमिकता एक ऐसा तत्त्व है जो केवल राज्य में निहित रहता है। अन्य समुदायों में उसका अस्तित्व नहीं रहता। राज्य में सम्प्रभुता का निवास होता है, अतः राज्य का मानव निर्मित सभी संस्थाओं से उच्च स्थान है। इस हेतु बोदोँ ने नागरिकता के प्रश्न को स्पष्ट करते हुए सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। बोदों का कथन था कि नागरिकता का सम्बन्ध राज्य से होता है, परन्तु राज्य में अन्य कई संगठन होते हैं; अतः मनुष्य राज्य का सदस्य होते हुये भी अन्य समुदायों का सदस्य बन जाता है। यह सम्प्रभुता का ही प्रभाव है कि अन्य समुदायों को राज्य की इच्छाओं के समक्ष झुकना पड़ता है।

सप्रभुता के मूल स्रोत के विषय में बोदाँ कहता है कि संप्रभुता सामूहिक रूप से जनता में ही निहित होती है। परन्तु जनता सामूहिक रूप से इस शक्ति का प्रयोग नहीं करती। वह अपनी इस शक्ति को नरेश, शासक या राजा को समर्पित कर देती है और राजा द्वारा इसका प्रयोग विविध राज्याधिकारियों द्वारा राज्य प्रतिनिधित्व प्राप्त कर लेने के बाद किया जाता है। समाज की इच्छा का उच्चतम और सर्वाधिक विकसित स्वरूप संप्रभुता है। इस भाँति राज-दर्शन के इतिहास में सम्प्रभुता की इतनी विस्तृत व्याख्या सर्वप्रथम बोदाँ ने

की। यद्यपि सम्प्रभुता की विवेचना. हॉब्स ने भी की है पर बोदाँ ने संप्रभूता की उससे भी स्पष्ट व्याख्या की है। उसने सम्प्रभू शक्ति को असीम बतलाते हुये लिखा है कि संप्रभुता पर कोई प्रतिबन्ध लागू नहीं हो सकते; अत: स्पर्ट हो जाता है कि संप्रभूता ही समस्त कानूनों के निर्माण का मूल स्रोत है। गैटिल के शब्दों में, “इस भाँति संप्रभुता सर्वोच्च और शाश्वत् सर्वव्यापिनी वैधानिक शक्ति है। इसका अर्थ है कि सम्प्रभुताधारी व्यक्ति की मृत्यु भले ही हो जाये किन्तु संप्रभुता कभी नहीं मरती।”

  • सम्प्रभुता की विशेषताएँ-

बोदाँ की संप्रभुता में अनेक विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. सर्वप्रथम संप्रभुता का आदान-प्रदान नहीं हो सकता है। यदि आदान-प्रदान होता भी है तो बिना सीमा एवं शर्तों के। सार्वभौम शक्ति अदेय होती है।
  2. सम्प्रभुता विधि से अनियन्त्रित हैं, क्योंकि सर्वोच्च अधिकारी द्वारा ही कानूनों का निर्माण होता है। बोदाँ ने सम्प्रभुताधारी व्यक्ति को सर्वथा निरंकुश अधिकार नहीं दिये। उसने कहा संप्रभुताधारी व्यक्ति को भी अपने कर्त्व्यों और उत्तरदायित्वों का पालन करना होगा।
  3. संप्रभुता स्थायी होती है । संप्रभुता जनता में निहित होती है।
  4. संप्रभुता सब प्रकार के बन्धनों, कानूनों और मर्यादाओं से मुक्त है। कोई भी सर्वोच्च शासक या राजा न तो अपने से पहले शासकों के और न अपने कानूनों या आदेशों से बँधा रहता है वह न तो किसी दूसरे व्यक्ति से आदेश ग्रहण करता है और न अपने आपको कोई आदेश देता है। उसकी इच्छा ही आदेश या कानून होता है।

संक्षिप्त रूप से बोदाँ की संप्रभुता की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • संप्रभुता में सर्वोच्च है शक्ति। राज्य में इस शक्ति के ऊपर किसी अन्य शक्ति का नियन्त्रण नहीं होता है ।
  • सप्रभुता राज्य का एक आवश्यक तत्त्व है। इसके बिना राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।
  • शासनतन्त्र अस्थायी होता है, परन्तु संप्रभुता स्थायी होती है।
  • संप्रभु-शक्ति विषयों के बन्धन से मुक्त होती है।
  • संप्रभु-शक्ति अविभाज्य है। राज्य में दो संप्रभू शक्तियों का निवास असम्भवं है।
  • राज्य में संप्रभु-शक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित नहीं की जा सकती।
  • यह संप्रभु-शक्ति राज्य में निरन्तर होती है। संप्रभु-शक्ति सत्ताधारी मर सकता परन्तु संप्रभुता नहीं मर सकती है; अतः यह शाश्वत् है।
  • सम्प्रभुता के कार्य

बोंदा ने संप्रभुता के अनेक कार्य बताएँ हैं। सर्वोच्च सत्ता का प्रथम कार्य नागरिकों के लिये कोनून बनाना है। राज्य की इच्छा, आदेश या निर्णय कानून होता है। कानून का निर्माण सम्प्रभुता की इच्छा पर अवलम्बित है। बोदो के अनुसार यह संप्रभुता का पहला और प्रमुख चिह्न है और इसे प्रजाजनों को हस्तान्तरित नहीं किया जा सकता।

सम्प्रभू शक्ति परिस्थितियां उत्पन्न होने पर पड़ोसी या विदेशी राज्य के साथ युद्ध की घोषणा कर सकती हैं। युद्ध की घोषणा करने में उसे किसी व्यक्ति की स्वीकृति नहीं लेनी पड़ती। सम्प्रभुता को शान्ति स्थापना का भी अधिकार है । उसे अधिकार है कि वह न्यायाधीशों की नियक्ति करे। न्यायाधीश का कार्य होगा संप्रभु द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करना तथा कानून भङ्ग करने वालों को दण्ड देना। प्रभुसत्ता को कर लगाने तथा मुद्रा ढालने का अधिकार होता है। प्रभुसत्ता का यह भी कार्य है कि वह सब नागरिकों से उनकी शपथों का पालने कराये। वह यह नहीं कह सकता कि मैं संप्रभुसत्ताधारी हूँ, इसलिये किसी भी प्रकार के कर्त्तव्य के निर्वहन, के लिये बाध्य नहीं हूँ।

  • संप्रभुता की सीमाएँ (Limitations)

संप्रभुसत्ता को सर्वोच्च मानते हुये भी ‘बोदोँ’ उसे मर्यादित करता है। उस पर निम्नलिखित सीमाएँ हैं-

(1) संप्रभुता जिस व्यक्ति द्वारा कार्यान्वित होती है उसे ईश्वरीय आदेशों, प्राकृतिक विधियों तथा अन्य देशों की विधियाँ अर्यात् अन्तर्राष्ट्रीय विधियों की मर्यादा का पालन करना पड़ता है।

(2) दूसरा प्रतिबन्ध देश के मौलिक कानूनों का है। प्रत्येक देश में संविधान सम्बन्धी कुछ ऐसे नियम होते हैं, जिनका उल्लंघन कोई भी राजा नहीं कर सकता।

(3) बोदोँ ने संप्रभु को यह स्पष्ट निर्देश दिया कि वह प्रजा की सम्पत्ति का अपहरण न करे। सम्पत्ति को वह परिवार के लिये आवश्यक मानता है; अत: व्यक्तिगत सम्पत्ति भी संप्रभुता पर एक प्रतिबन्ध है।

(4) यद्यपि संप्रभुता-संपन्न शासक निरपेक्ष हैं परन्तु दूसरे शासकों के साथ की गई संघियों का पालन करना उसका नैतिक कत्त्तव्य है।

(5) उसे अपनी जनता के साथ किये गये वायदों को भी पूरा करना चाहिये।

(6) वह संप्रभुसत्ता को प्राकृतिक नियमों से भी बँंधा हुआ मानता है। प्राकृतिक नियमों को वह दैवी कानूनों के अंगों के रूप में मानता है।

  • आलोचना-

(1) उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि बोदोँ के सम्प्रभुता के किचार में अनेक प्रकार के विरोध तथा असंगतियां हैं। बोदों ने बताया कि राज्य का मुख्य गुण संप्रभुता है। संप्रभुता शाश्वत् और असीम हेती है। एक ओर वह इसे असीम बताता है और दूसरी ओर वह इसे प्राकृतिक विधियों, अन्तर्राष्ट्रीय मर्यादाओं और दैवी आदेशों से सीमित बतलाता है। वह यह भी कहता है कि यदि सम्प्रभु शासक किसी न्यायाधीश को प्राकृतिक विधि के विरुद्ध कार्य करने का आदेश देता है तो न्यायाधीश (मजिस्ट्रेट) के लिये यह उचित होगा कि वह उसकी आज्ञा का पालन करे।

(2) बोदों के सम्प्रभुता सम्बन्धी विचारों में दूसरा दोष यह है कि उसका संप्रभु फ्रांस के संवैधानिक कानून (Constitutional Law) से ऊपर नहीं है। एक ओर तो वह संप्रभु को राज्य में सर्वोच्च शक्ति मानता है जो कानून से भी नियन्त्रित हैं । इसका कारण यह था कि अपने देश के संवैधानिक कानून एवं प्राचीन परम्पराओं के प्रति बोदों की गहरी निश्ठा थी; अत: उनका उल्लंघन करने का अधिकार वह शासक को नहीं देता । उसके मन में दो विरोधी भाव होने के कारण ही उसके विचारों में यह असंगति पाई जाती है।

(3) बोदोँ के सिद्धान्त में तीसरी त्रुटिे सम्पत्ति के अधिकार सम्बन्धी विचारों के कारण थी। बोदो ने सम्पत्ति के अधिकार को प्राकृतिक अधिकार माना था। उसने सम्पत्ति के अधिकार को इतना पवित्र बतलाया है कि संप्रभु उसे बिना उसके स्वामी की आज्ञा के प्राप्त नहीं कर सकता। यही नहीं, वह इस पर कर भी जनता के प्रतिनिधियों की सहमति से ही लगा सकता था ।

निष्कर्ष-

परन्तु इन असंगतियों तथा विरोध के होते हुये भी बोदाँ का प्रभुसत्ता का विचार राजनीतिक विचारों के इतिहास में बहुत महत्त्व रखता है। कालान्तर में यह राष्ट्रीय राज्य के विकास का आधार बना। सैबाइन ने ठीक ही कहा है कि :-

“Bodin’s statement of the principle of sovereignty is generally agreed to be the most important of his politiçal philosophy.”

-Sabine

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