Shanti Swaroop Bhatnagar

डॉ० शान्ति स्वरूप भटनागर | Shanti Swaroop Bhatnagar in Hindi

डॉ० शान्ति स्वरूप भटनागर | Shanti Swaroop Bhatnagar in Hindi

भारतीय प्रयोगशालाओं के जनक  डॉ० शान्ति स्वरूप भटनागर।

  • “आप आगे बढ़ना चाहते हैं ?”
  • “आप परिवार का नाम रोशन करना चाहते है ?”
  • “आप देश को आगे बढ़ाना चाहते हैं ?”
  • डॉ० शान्ति स्वरूप भटनागर इन सभी प्रश्नों का उत्तर देते थे – ‘काम करो ।”

उन्नति छुमंतर से प्राप्त होने वाली चीज़ नहीं, उसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, बुद्धिमतापूर्वक मेहनत करते हुए आगे बढ़ता होता है, परन्तु काम करने और आगे बढ़ने की धुन में भी भटनागर जी ने देश हित को सर्वोपरि रखा । कोई वैज्ञानिक इतनी दूर की सोचने वाला, दिन-रात काम करने के साथ संगठन और प्रबन्ध की क्षमता रखने वाला हो सकता है, डॉ० भटनागर को जीवन इसका उदाहरण हैं। जब डॉ० भटनागर का देहावसान हुआ तो प्रधानमन्त्री नेहरू जी ने कहा था, “यदि वह न होते तो हमें आज देश में राष्ट्रीय प्रयोगणालाओं की यह लड़ी देखने को न मिलती ।”

डॉ० शान्ति स्वरूप भटनागर का जन्म एक सामान्य परिवार में 21 फरवरी, 1894 को हुआ था। जन्म के आठ माह बाद पिता का साया उठ गया। मां अपने नन्हें और उसकी बड़ी बहन को लेकर अपने पिता के घर आ गई। नाना रेलवे में इंजीनियर थे। उन्होंने बालक को एक खिलौना रेलगाड़ी लाकर दी। शान्ति ने सोचा कि यह असली रेलगाड़ी की तरह क्यों नहीं चलती। उसने उसमें कोयला – पानी डाला, आग जलाई, जरा-सी भाप बनी इंजन फट पड़ा – पर गाड़ी हल्की-सी आगे खिसकी ।

शान्ति के पिता बाबू परमेश्वरी सहाय भेरा (अब पाकिस्तान) में अध्यापक थे। उनके एक मित्र थे ला० रवुनाथ सहाय। वह लाहौर में दयालसिंह हाई स्कूल में हेडमास्टर थे। वह एक विवाह में बच्चे की गज़ल सुनकर उसकी शिक्षा में रुचि लेने लगे और उसे लाहोर ले गए। दयालसिंह स्कूल में दाखिल करवा दिया।

एक दिन लाला जी स्कूल से लौटे तो देखा शान्ति के कमरे में कील कांटे, नलियां, ढिबरियां बिखरी पड़ी हैं। उन्होंने पत्नी से पूछा- “यह कबाड़ कौन लाया है ?” “शान्ति ।”

लाला जी ने देखा, समझ गए कि लड़के की रुचि विज्ञान में है। उन्होंने उसे कभी निरुत्साहित नहीं किया। उन्होंने फोरमैन क्रिश्चयन कालेज से बी० एस-सी० किया। उनके विषय थे भौतिक और रसायन शास्त्र। वहीं से उन्होंने एम० एस-सी० किया। उनके शोध प्रबन्ध का विषय था-पानी की सतह का घनत्व। एम० एस-सी० करने के बाद उन्हें दयाल सिंह ट्रस्ट ने छात्रवृत्ति दी और वे इंग्लैंड गए। वहां उन्होंने डी० एस-सी० की डिग्री ली। मालवीय जी ने उन्हें काशी के हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाने के लिए बुला लिया और उन्हें रसायन शास्त्र का प्राध्यापक नियुक्त किया। भटनागर जी ने यहां एक प्रयोगशाला की स्थापना की और उनके इस कार्य को आचार्य प्रफुल्लचन्द राय, प्रो० बीरबल साहनी और रामन आदि ने भी देखा और सराहा। इन्हीं दिनों वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की ओर से इंग्लैंड के विज्ञान सम्मेलन में भाग लेने गए । वहां से लौटे तो उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय से निमन्त्रण मिला। विश्वविद्यालय, रसायन विज्ञानशाला स्थापित करना चाहता था और उसे एक कर्मठ डायरेक्टर की आवश्यकता थी। डॉ० भटनागर अप्रैल, 1924 में लाहौर गए और कार्य भार संभाला। सोलह वर्ष वह इस पद पर रहे। यहां उन्होंने विज्ञान को सर्वसाधारण तक पहुंचाने के लिए अथक श्रम किया। 1927 में भारतीय साइंस कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ। इस प्रबन्ध का भार डॉ० भटनागर पर था।

कलकत्ता में औद्योगिक अनुसंधान विभाग की स्थापना की गई और डॉ० भटनागर को डायरेक्टर बनाया गया, परन्तु जब कलकत्ता पर जापानी बम बर्षा का भय बढ़ा तो प्रयोगशाला दिल्ली स्थानान्तरित कर दी गई। डॉ० भटनागर जो कार्य कर रहे थे उससे उनका सम्मान बढ़ रहा था। उन्हें 1941 में ‘सर’ के खिताब से सम्मानित किया गया।

डॉ० भटनागर के परामर्श पर सरकार ने 1942 में कौंसिल आफ साइंटिफिक एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च नाम से वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद् की स्थापना की। इसको चलाने के लिए डॉ० भटनागर से उपयुक्त और कौन हो सकता था। वही डायरेक्टर बने। 1943 में इंग्लेंड की रायल सोसाइटी ने उन्हें अपना फैलो बनाया।

1947 में जब भारत स्वतन्त्र हुआ तो नेहरू जी ने विज्ञान की उन्नति के लिए वैज्ञानिकों का आवाहन किया। डा० भटनागर की देख रेख में कौंसिल ऑफ इण्डस्ट्रियल और साइंटिफिक एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च के अधीन पहले दौर में ही ग्यारह प्रयोगशालाओं की स्थापना की। इस समय 30 से अधिक अनुसंधान शालाएं काम कर रही हैं। इनमें अनेक वस्तुओं के निर्माण की विधियां निकाली गई। कच्चे तेल को शोधित करने की योजना भी डा० भटनागर की ही थी। उन्हीं के प्रयत्नों से तेल शोधक कारखानों की नींव पड़ी। 1954 के आरम्भ में भारत सरकार ने उन्हें ‘पदम भूषण’ के सम्मान से विभूषित किया। भारत में विज्ञान की ज्योति जगाने वाले इस कर्मठ वैज्ञानिक का 1955 के जनवरी मास में हृदय की गति रुक जाने से देहान्त हो गया।

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