प्राकृतिक प्रकोपो का अर्थ । विभिन्न प्रकोप – बाढ़, भूकम्प, चक्रवात, भूस्खलन आदि
प्राकृतिक प्रकोपो का अर्थ । विभिन्न प्रकोप – बाढ़, भूकम्प, चक्रवात, भूस्खलन आदि
प्राकृतिक प्रकोपो का अर्थ
जब कोई प्राकृतिक या कृत्रिम घटना, जिसके कारण विनाश एवं प्रलय की स्थिति उत्पन्न होती है तथा प्राकृतिक सम्पदा नष्ट हो जाती है, उसे आपदा प्रकोप या आघात कहते हैं।
सामान्यतः आपदा प्रकोप या आघात प्रकृतिजन्य होते हैं, इसीलिए इन्हें प्राकृतिक प्रकोप कहते हैं। प्रकोप की दशा मानवजनित भी हो सकती है।
- किसी पारस्थितिक तंत्र के जैविक एवं अजैविक घटकों की सहनशक्ति के परे हो ।
- जब घटना से प्रलयंकारी स्थिति उत्पन्न हो जाये तथा उसे समायोजित करना असम्भव हो जाये।
- ऐसी घटना जिनमें प्राकृतिक सम्पदा की क्षति हो तथा जन-मानस को भारी नुकसान होता हो।
पर्यावरण शिक्षा के अंतर्गत प्रस्तावित पाठ्यक्रम में प्रकोप या आपदा का वर्गीकरण निम्नवत् हैं-
प्राकृतिक प्रकोप पृथ्वी के अन्तर्गत या पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होते हैं। जिसमें जन-मानस की आर्थिक, पर्यावरणीय क्षति होती है। प्रकोपों की आवृत्ति उष्ण तथा उपोष्ण क्षेत्र में अधिक होती है। कुछ प्रमुख आपदाओं का वर्णन निम्नवत है।
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बाढ़
स्थल भू-भाग का कई दिनों तक जलमग्न रहना बाढ़ कहलाता है। बाढ़ एक संचयी वायुमंडलीय प्रकोप है। बाढ़ एक प्राकृतिक या मानवजनित घटना है जो अति जल वर्षा के कारण होती है। बाढ़ के कारण आर्थिक एवं पर्यावरणीय क्षति होती है। पूरे विश्व में लगभग 3.5 प्रतिशत भू-भाग बाढ से प्रभावित रहता है।
कारण- बाढ़ प्राकृतिक एवं मानवजनित दोनों कारणों से आ सकती हैं।
अधिक समय तक मूसलाधार बारिश होने से नदियों में बाढ़ आ सकती है। दामोदर नदी जिसे ‘बंगाल का दुख भी कहते हैं मे अधिकतर बाढ़ आती है तथा जान-माल की भारी क्षति होती है।
शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में जहाँ नदियों के प्राकृतिक बहाव की दिशा-दशा ठीक नहीं होती या विसर्जित होते हैं वहाँ कम वर्षा की स्थिति में भी बाढ़ आ सकती है। इसे अचानक बाढ़ कहते हैं। उदाहरण समुद्र में १९८१ में ८३९ मिo मी0 वर्षा से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गयी उत्तरी भारत के मैदानी भाग की प्रायः सभी नदियों में इसी कारण बाढ़ आती है। वन विनाश के कारण जल रुकाव में अत्यधिक कमी तथा धरातलवाही जल की अधिकता से बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है तथा मृदय क्षरण की दर भी बढ़ जाती है। जिससे नदी में अधिक मात्रा में मिट्टी जमा होती रहती है और नदी की तली का स्तर ऊपर उठने लगता है। फलस्वरूप नहीं की जलधारणा क्षमता कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में अति वर्षा के कारण नदी घाटी शीघ्र भर जाती है तथा जल ऊपर से होता हुआ दूर तक फेल जाता है। जिस कारण विस्तृत क्षेत्र जल मग्न हो जाता है।
बढ़ते नगरीकरण, अपशिष्ट तथा कचरे के अविवेकपूर्ण विसर्जन, सँकरे पुलों का निर्माण, टूटने सड़कों के निर्माण आदि के कारण भी बाढ़ की स्थिति पैदा होती है।
पहाड़ी क्षेत्रों में भू-स्खलन के कारण जल बहाव अवरुद्ध हो जाता है। जिसके कारण बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। हिमालय के भागों में ऐसी स्थिति के कारण प्रायः बाढ़ आती है।
बाढ़ का प्रकोप
- भारत में बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र मुख्यतः पश्चिम बंगाल, बिहार, असम तथा उत्तर प्रदेश, आंध्रप्रदेश आदि है।
- बाढ़ की आवृत्ति एवं तीव्रता में दिनों-दिन वृद्धि हो रही है।
बाढ़ नियंत्रण के उपाय
- बाढ़ प्रकोप की स्थिति में होने वाली क्षति से कैसे बचा जाये, की जानकारी का बाढ़ क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार एवं जागरूकता फैलानी चाहिए।
- बाढ़ के सम्भावित क्षेत्रों के ऊपरी जल ग्रहण भाग में अंधाधुंध वन विनाश पर रोक लगनी चाहिए। इन क्षेत्रों में वानकी योजनाओं को प्रारम्भ किया जाना चाहिए। वनों की उपस्थिति से जल बहाव, स्पन्दन, मृदा अपरदन में कमी आती है तथा जल बहाव क्षमता में बढ़ोतरी होती है। जिससे बाढ़ पर नियंत्रण होता है।
- नदियों के जल प्रवाह का प्रबंधन, जल विसर्जन में तीव्रता, जल आयतन में कमी करके बाढ़ प्रकोप को कम किया जा सकता है।
- नदी किनारे तटदंधों, बाढ़ दीवार आदि का निर्माण कर जल फेलाव को कम किया जा सकता है।
बाढ़ नियंत्रण तथा चेतावनी प्रणाली को और प्रभावी तथा सुचना का अग्रिम प्रसारण, समाचारपत्रों आदि की सहायता से बाढ़ के प्रकोप को कम किया जा सकता है।
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भूकम्प
भूकम्प प्रकृति का वह सबसे भयकरतम प्रकोप है जो बिना किसी पूर्व सूचना के आ जाता हे। भूकम्प आज भी मनुष्य के लिए एक रहस्य बने हुए हैं। प्राचीन काल में मनुष्य इसे दैवी प्रकोप मानता था, किन्तु अब वैज्ञानिकों ने इसके कारणों की खोज की है। भूकम्प और अस्थिर भू-भागों का गहरा संबंध है। वैज्ञानिकों का मत है कि भूकम्प प्रायः उन क्षेत्रों में आया करते है जहाँ ज्वालामुखी स्थित हो अलावा असतुलित प्रदेश हो। मोड़दार पर्वतों के प्रदेश प्रायः असंतुलित होते हैं, अतः मोड़दार पर्वतों के प्रदेश और उनके समीपवर्ती भागों में भूकम्प आया करते हैं। हिमालय पर्वत क्षेत्र अभी भी भारत के सबसे अधिक अस्थिर भाग है जिनमें समय-समय पर कम्पन होता है।
भूकम्प के कारण (Causes of Earthquakes)- भूकम्प आने के अनेक कारण हो सकते हैं, पृथ्वी की पपड़ी का फट जाना, गुफाओं का ढृह जाना, खानों में चट्टानों का भजन आदि ज्वालामुखी विस्फोट से भी भूकम्प आते हैं। विशेषकर उन क्षेत्रों में भूकम्प के तेज झटके आते हैं जहाँ पृथ्वी आसानी से खिसक सकती है। समझा जाता है कि अधिकांश भूकम्प पृथ्वी के आंतरिक भागों में होने वाली घटनाओं के कारण जो आमतौर से मैग्मा (पिघली चट्टानों) की हलचल होती है, आते है। वैसे यह हलचल हमेशा होती रहती है जिससे कुछ क्षेत्रों में प्रतिबलों का संचयन होता रहता है। जब संचित बल प्रत्यास्थ सीमा (इलास्टिक लिमिट) से अधिक हो जाती है तो सबसे कमजोर स्थल पर चट्टानों का भंजन होने लगता है। इस भंजन से उत्पन्न झटको से प्रत्यास्थ तरंगे दूर-दूर तक जाती है। लॉगीटियूडनल ‘पी’ तरंगे, दिशा तरंगे ध्वनि तरंगों के समान चट्टानों से संचरित होती है। इसमें ऊर्जा का संरचण तरंग प्रसारण की ही में होता है।
भूकम्प के विध्वंसक परिणाम- भूकम्प की तीव्रता का आकलन उसके द्वारा हुई क्षति के आधार पर किया जाता है। भूकम्प से धन-जन की हानि होती है। सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र में भूकम्प आने से सर्वाधिक विनाश होता है। भूकम्पीय झटकों से रेल, सड़क, पुल, भवन, बाँध, कारखानों को भारी नुकसान होता है। कभी-कभी भूस्खलन तथा मलवा गिरने से विनाश होता है। संचार व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है। नलियों के टूटने से अनेक संक्रमण रोग फेलते हैं। भूकम्पीय कंपनों से धरातल में उभार तथा अवतल की घटनाएँ भी होती है। बाँधों में दरार आने से असमय बाढ़ आ जाती है तथा गाँव जलमग्न हो जाते हैं। समुद्री जल में उच्च सागरीय तरंगे (सुनामी तरंगे) उत्पन्न होने से धन-जन की हानि भारी होती है। घरों, कारखानों, खानों में अग्निकॉड हो जाते है।
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चक्रवात
पृथ्वी के चारों ओर हवा की एक मोटी परत लिपटी हुई है, जिसे ‘वायुमंडल’ कहते हैं। पृथ्वी पर वायु के दबाव में अंतर होने से यह वायुमंडल कभी शांत नहीं रहता अथ्थात् इसमें हवाएँ सतत चलती रहती है। प्रायः इन हवाओं का प्रवाह नियमित रूप से स्थाई और क्रमबद्ध रहता है, परंतु कभी-कभी विचित्र वायुमंडलीय परिस्थितियों के कारण इनके प्रवाह में अचानक अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। फलस्वरूप वायु राशियों के क्रमबद्ध प्रवाह का क्रम टूट जाता है। अपने नियमित प्रवाह से विचलित हो जाती है, जिससे इनका प्रवाह सरल न होकर भंवरयुक्त हो जाता है। इसे ही चक्रवात (Cyciones) कहते हैं, जिसकी अवधि अधिक नहीं होती अर्थात् कम समय के लिए बहुत तेज चलने वाली आँधी (तूफान) को सामान्यतः चक्रवात कहा जाता है। चक्रवात अर्थात् वायु का वृत्त । चक्रवात चाहे बड़ा हो या छोटा इसमें वायु का बहाव वृत्ताकार हो जाता है। वायु राशि के भँवर में जब केंद्रीय भाग में वायुदाब निम्न होता है और बाहर की ओर उच्च होता है, तब हवाएँ बाहर से भीतर की ओर अर्थात् उच्च दाब से निम्न दाब की ओर परिधि में चक्कर काटने लगती है। ऐसे तूफान को चक्रवात कहते हैं।
चक्रवातों का निर्माण- जब भिन्न-भिन्न प्रकृति की दो वायु राशियाँ एक-दूसरे के सम्पर्क में आती है तो आपस में घुलती-मिलती नहीं है। उन वायु राशियों के बीच वाताग्र(फ्रंट) बन जाता है, जहाँ पर दोनों वायुराशियाँ लड़ती है। इस संघर्ष के फलस्वरूप निम्न वायु दबाव वाली गर्म हवा के चारों ओर उच्च दबाव वाली ठंडी हवा परिधि में चक्कर लगाने लगती है और संपूर्ण वायु राशियों का प्रभाव भंवरीय हो जाता है। इसे ही चक्रवात कहते हैं।
सागरों से जब ये चक्रवात गुजरते है तो बीच-बीच में जो स्थल भाग आ जाते हैं वहाँ तबाही मच जाती है। भारतीय तटों पर पिछले 10 वर्षों में लगभग 600 चक्रवात पहुँचे जिनमें 500 बंगाल की खाड़ी से आए और 100 अरब सागर से आये; पश्चिमी बंगाल तट और ऑँध्र तट पर ये लाखों की जान ले चुके है। इन चक्रवातों में वायु की गति 112-128 किमी0 प्रति घंटा रहती है, परंतु यह गति कभी-कभी 160 किमी0 प्रति घंटा तक पहुँच जाती है। मेघ गर्जन और बिजली की चमक के साथ ये मूसलाधार वृष्टि भी लाते हैं और तटों पर प्रलयंकारी एवं व्यापक प्रभाव छोड़ते हैं। चक्रवात के दौरान उठने वाली लहरे सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में 25 30 किमी0 तक प्रवेश कर संपूर्ण क्षेत्र को जलमग्न कर देती है। जहाज-नाव, समुद्री निर्माण तहस-नहस हो जाते है। मकान, वृक्ष, फसलें, मनुष्य पशु सभी अथाह जल राशि में समाधि ले लेते है। सागर के लवणयुक्त जल में डूबे रहने के कारण समुद्र की तटवर्ती भूमि कृषि के उपयुक्त नहीं रह जाती है। जो भी क्षेत्र इन चक्रवातों के क्षेत्र में आते हैं वहाँ 24 घंटे के भीतर 14-15 सेमी० तक वर्षा हो।
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भूस्खलन
जब चट्टानें प्राकृतिक या मानवीय कारणों से चटख जाती है तो गुरुत्व बल से धराशायी हो जाती है जिसे भूस्खलन कहा जाता है। ऐसी घटना अधिकतर पहाड़ी क्षेत्रं में घटित होती है। भूस्खलन के मलवे से गांव और शहर उजड़ जाते हैं, सड़के और बाँध टूट जाते हैं तथा विस्तृत क्षेत्र में पारिस्थितिक व्यवधान उत्पन्न हो जाते हैं। अनेक नदियों की धारा में भूस्खलन से व्यवधान उत्पन्न हो जाता है, वनस्पतियाँ विनष्ट हो जाती है तथा जीव पलायन कर जाते हैं।
कारण- भूस्खलन के लिये प्राकृतिक कारणों में भूकम्प, जल रिसाव, अपक्षय जनित चट्टानी चटखन, नदी घाटी का कटाव अति वर्षा आदि प्रमुख है। इस कारणों से चट्टानें कमजोर होकर गुरुत्व बल से खिसक जाती है। प्राकृतिक कारणों की तुलना में मानवीय कारण कम उत्तरदायी नहीं है। सड़क, सेतु, सुरंग, बाँध, जलाशय, आदि के निर्माण के लिये चट्टानों के तोड़फोड़ और बिना भौतिक गुणों के आकलन किये निर्माण आदि भूस्खलन को बढ़ावा देता है। खानों के विकास के लिए बारुद से तोड़फोड़ भी चट्टानों में चटखने पैदा करता है। कृषि के लिए ढालों का उपयोग भी भूस्खलन को बढ़ावा देता है। ढालों पर वनस्पति विनाश भूस्खलन को गति देने में एक महत्वपूर्ण कारण है।
भू-स्खलन से हानि- भूस्खलन के कारण प्रतिवर्ष हजारों मौते होती है और करोड़ों की सम्पत्ति विनष्ट होती है। इस दैवीय विपदा से राहत पाने के लिये यह आवश्यक है कि मानवीय छेड़छाड़ को नियंत्रित किया जाय। निर्माण कार्यों की योजना भूगार्भक रचना और भौगोलिक परिस्थिति को ध्यान में रखकर बनाई जाय। हिमालयी क्षेत्र में ऐसे अनेक निर्माण कार्य किये गये हैं जिससे भूस्खलन को बढ़ावा मिला है। ढालों पर वनस्पतियों का रोपण और संरक्षण भी एक प्रमुख उपाय है। भारत सरकार इस और उन्मुख है।
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