प्लेटो का दार्शनिक राजा | प्लेटो के दार्शनिक शासक की विशेषताएँ, सीमाएँ तथा आलोचना
प्लेटो का दार्शनिक राजा | प्लेटो के दार्शनिक शासक की विशेषताएँ, सीमाएँ तथा आलोचना
दार्शनिक राजा की अवधारणा (Philosopher King)
प्लेटो के कथनानुसार विवेक राजा का सर्वश्रेष्ठ गुण है; अत: विवेक बुद्धि सम्पन्न दार्शनिक को ही राजा होना चाहिये। परन्तु सभी व्यक्ति दार्शनिक प्रकृति और प्रवृत्ति के नहीं होते। प्लेटो के शब्दों में समूची जनता कभी दार्शनिक नहीं बन सकती। इसलिए शासक (राजा) वही होना चाहिए जो दार्शनिक होने की बौद्धिक योग्यता रखे। वह न्याय, सौन्दर्य, संयम के गुणों के मूल विचारों से परिचित हो। उसे यह विदित हो कि इस दृश्यमान जगत् की विविध वस्तुओं के पीछे रहने वाले वास्तविक सत् का विचार क्या है और सब कार्यों तथा घटनाओं का क्या प्रयोजन है। शासक में विवेक और बुद्धि के गुण की पराकाष्ठा तथा चरम विकास होना चाहिए। राज्य का नियन्त्रण और संचालन इसी विवेक से होना चाहिये। प्लेटो के अनुसार विवेक बुद्धि से सम्पन्न दार्शनिक राजा ही श्रेष्ठ शासक हो सकता है।
राजा के निर्माण के उप विरचित तीन तत्त्वों के आधार पर प्लेटो ने अपने राज्य में तीन वर्गों की सत्ता स्वीकार की है- (क) विवेक गुण का प्रतिनिधित्व करने वाले संरक्षक, (ख) उत्साह गुण के प्रतिनिधि सहायक संरक्षक, (ग) कार्य तथा सुधार तत्त्व अथवा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला कृषक। प्लेटो का वर्गीकरण भारत की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से मिलता है। पश्चिमी विद्वान उरविक के कथनानुसार समाज को तीन वर्गों में बाटने की कल्पना करने की प्रेरणा प्लेटो को भारत से मिली थी।
दार्शनिक शासक की विशेषताएँ
प्लेटो का दृढ़ विश्वास है कि जब तक दार्शनिक व्यक्ति राजा के पद को नहीं संभालेंगे और जब तक राजा स्वयं ज्ञानी नहीं होंगे तब तक किसी भी देश की बुराई समाप्त नहीं हो सकती। प्लेटो का दार्शनिक शासक गीता के कर्मयोगी अथवा उपनिषदों के ज्ञाता राजा जनक के समान है। वह सत्य का पुजारी है, न्यायप्रिय एवं योग्य है, मृत्यु से नहीं डरता, वही न्याय के विचार को जानता है। प्लेटो के शासक की विशेषतायें निम्नलिखित हैं-
(1) निरंकुशता- फोस्टर के मतानुसार प्लेटो के राजनीतिक दर्शन में दार्शनिक शासक का विचार एक मौलिक विचार है। वह दार्शनिक शासक को अनियंत्रित शक्तियाँ देता है। यद्यपि प्लेटो निरंकुश शासन का कटु-आलोचक है फिर भी अपने आदर्श राज्य में उसने दार्शनिक शासक को निरंकुश शासक बना दिया है।
(2) विवेक का प्रतिनिधित्व- लेटो के आदर्श ‘राज्य’ में दार्शनिक शासक राज्य के हितों को ही अपना हित समझते हैं। वे सबकी भलाई के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। वे पूर्णतः स्वाथः रहित होते हैं। समाज के हित से अलग उसके कोई अपने स्वार्थ नहीं होते। इस प्रकार समाज के तीन वर्गों में वे विवेक का प्रतिनिधित्व करते हैं।
(3) ज्ञानियों की सरकार- प्लेटो ज्ञानियों की सरकार में विश्वास करता है। वह शासक वर्ग के लिये एक शिक्षा योजना प्रस्तुत करता है जिससे ज्ञानियों का अल्प वर्ग निर्मित होगा जिसके द्वारा शासन योग्य प्रकार से चल सकेगा; अत: वह दार्शनिक शासक में विश्वास करता है|
(4) विवेक बुद्धि द्वारा अर्जित ज्ञान- लेटो के दार्शनिक का अर्थ है (Lover of wisdom) अर्थात् ज्ञान का प्रेमी। प्लेटो दार्शनिक की वह परिभाषा नहीं देता जिसकी कल्पना प्रायः सामान्य व्यक्ति करता है। प्लेटो के अनुसार दार्शनिक वह व्यक्ति है जो इन्द्रियों से ज्ञात बाह्य जगत से ऊपर उठकर अन्त्मुखी हो, सत्य के रूप को जानने की इच्छा रखता हो। प्लेटों का दार्शनिक शासक परम स्रोत के विचार को जानता है।
दार्शनिक राजा की सीमाएँ (Limitations of Philosopher King)
प्लेटो का दार्शनिक शासक यद्यपि कानूनों रो ऊपर है तथापि प्रोफेसर भण्डारी के अनुसार “दार्शनिक राजा सिद्धान्तों से उसी तरह बँधा है जिस प्रकार एक डाक्टर चिकित्सा शास्त्र के नियमों से बँधा होता है । इस भाँति दार्शनिक शासक संविधान के मौलिक नियमों से मुक्त नहीं है।” प्रोफेसर बार्कर के अनुसार उसे चार प्रकार के मौलिक नियम मानने होंगे, जो इस प्रकार से हैं-
(1) संतुलित पूँजी- दार्शनिक शासक को अपने राज्य में धन के उतार-चढ़ाव को संतुलित रखना चाहिये। धन से बहुत अधिक सम्पन्नता या निर्धनता को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिये, धन का अधिक होना भी राज्य में दोष उत्पन्न करता है।
(2) न्यायिक प्रतिबन्ध- दार्शनिक शासक पर दूसरा बन्धन यह है कि उसे यह देखना चाहिये कि राज्य में न्याय का पालन ठीक प्रकार से हो रहा है अथवा नहीं। सभी व्यक्ति अपने अपने कर्तव्य का पालन करें एवं दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप न करें। यह उत्तरदायित्व शासक का ही है ।
(3) राज्य का सीमित आकार- दार्शनिक शासक को राज्य के आकार का ध्यान रखना चाहिये, वह न बहुत बड़ा हो और न ही बहुत छोटा होना चाहिये। राज्य का आकार इतना ही हो कि वह आत्म- निर्भर हो।
(4) शिक्षा – पद्धति- दार्शनिक शासक पर यह बन्धन है कि वह देखे कि शिक्षा-पद्धति में कोई परिवर्तन न हो, क्योंकि शिक्षा-योजना में परिवर्तन से शासन का समस्त रूप ही बदल सकता है; अत: शिक्षा-योजना उसी प्रकार से चलती रहनी चाहिये।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्लेटों का दार्निक शासक वस्तुतः निरंकुश नहीं है वरनु वीतरागी संन्यासी है।
दार्शनिक राजा की आलोचना (Criticism of Philosopher King)
(1) निरंकुशता- प्लेटो का दार्शनिक शासक वस्तुतः एक निरंकुश शासक का ही रूप है, जो कानून से ऊपर जनमत की चिन्ता न करने वाला होता है।
(2) लोकतन्त्र के विपरीत- लेटो के दार्शनिक शासक का विचार लोकतन्त्र के विपरीत है जो कि आजकल की सर्वमान्य शासन पद्धति है।
(3) शासन के ज्ञान का अभाव- दार्निक शासक कितना भी अध्ययन करे परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि वह विभिन्न विषयों में पारंगत हो। प्लेटो द्वारा बताई गयी शिक्षा-योजना के अनुसार उन्हें कानून, सैनिक आदि विषयों का ज्ञान नहीं होगा जो कि अति आवश्यक है; अतः शासन की दृष्टि से वे योग्य नही नेगे।।
(4) जन-शोषण की सम्भावना- दार्शनिक शासक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिये जन शोषण कर सकता है, क्योंकि उस पर इस प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं है।
(5) सामाजिक समस्याओं के निराकरण का अभाव- दार्शनिक शासक अपने के सर्वाधिक ज्ञानी मानेंगे तथा अपनी बातो को बलात् थोपने का प्रयत्न करेंगे; अंत: वे समाज की समस्याओं का निराकरण न कर सकेंगे।
(6) व्यवहार शून्यता- आध्यात्मिक और दर्शन का अध्ययन प्रायः मनुष्य को व्यवहार शून्य बना देता है; अतः यह संदेह की बात है कि ऐसे शासक शासन करने योग्य होंगे।
(7) शासन की अव्यावहारिकता- दार्शनिक शासन का सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है। प्लेटो की कल्पना वाले दार्शनिक मिलना सरल नहीं है। लोक जीवन का पूरा ज्ञान रखने वाले तथा सांसारिक विषयों में रुचि न लेकर संन्यासी की भाति रहने वाले व्यक्ति विरले ही होते हैं।
परन्तु दार्शनिक शासक के सिद्धान्त का अपना महत्व भी है। प्लेटो इस सिद्धान्त द्वारा यह बतलाता है कि राजनीतिक शक्ति का प्रयोग विवेक से होना चाहिये। इस सिद्धान्त द्वारा वर्ग संघर्ष को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त होगा । प्लेटो कहता है कि जो शासक वर्ग हो उसके लिये आवश्यक है कि वह अपने स्वार्थों को त्याग, कर समाज कल्याण को ही अपने जीवन का उद्देश्य माने। यह बात महत्त्वपूर्ण है।
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