मानव पर्यावरण सम्बन्ध

मानव पर्यावरण सम्बन्ध । मानव पर्यावरण सम्बन्ध का वर्णन | Human-environment relationship in Hindi | Description of human environment relationship in Hindi

मानव पर्यावरण सम्बन्ध । मानव पर्यावरण सम्बन्ध का वर्णन | Human-environment relationship in Hindi | Description of human environment relationship in Hindi

मानव पर्यावरण सम्बन्ध

मनुष्य की प्राकृति का पर्यावरण के साथ दो तरफा भूमिका होती है। अर्थात् मनुष्य एक तरफ तो भौतिक पर्यावरण के जैविक संघटक का एक महत्वपूर्ण भाग तथा घटक है तो दूसरी तरफ वह पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण कारक भी है। इस तरह मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र को विभिन्न हैसियत से विभिन्न रूपों में प्रभावित करता है यथा- ‘जीवित या भौतिक मनुष्य’ के रूप में, (अर्थात् पर्यावरण के एक घटक के रूप में), ‘सामाजिक मनुष्य’ के रूप में, ‘आर्थिक मनुष्य’ के रूप में तथा ‘प्रौद्योगिक मानव’ के रूप में।

मनुष्य के सभी प्राकृतिक गुण यथा-जन्म, वृद्धि, स्वास्थ्य, मृत्यु आदि प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा उसी तरह प्रभावित तथा नियंत्रित होते हैं जैसे कि पर्यावरण के अन्य जीवों के प्राकृतिक गुण प्रभावित तथा नियंत्रित होते हैं। परन्तु चूंकि मानव अन्य प्राणियों की तुलना में शारीरिक एवं मानसिक स्तरों पर प्रौद्योगिक स्तर पर भी सर्वाधिक विकसित प्राणी है अतः वह प्राकृतिक पर्यावरण को बड़े स्तर पर परिवर्तित करके अपने अनुकूल बनाने में समर्थ भी है। प्रारम्भ में आदिमानव की भौतिक पर्यावरण की कार्यात्मकता में भूमिका दो तरह की होती थी-पाता तथा दाता (Receiver and Contributor) की। अर्थात् मनुष्य भौतिक पर्यावरण से अन्य जीवों के समान संसाधन (फल-फूल, पशु मांस आदि) प्राप्त करता था (पाता की भूमिका) तथा पर्यावरणीय संसाधनों में अपना योगदान भी करता था (दाता देने वाला की भूमिका, फलों के बीजों को अनजाने में बिखेर कर)।

इस तरह मानव संस्कृति के विकास के प्रथम चरण में मनुष्य भौतिक पर्यावरण का अन्य कारकों के समान एक कारक मात्र था परंतु जैसे-जैसे उसके समाज तथा उसकी संस्कृति के विकास के साथ उसकी बुद्धि, उसका कौशल तथा उसकी प्रौद्योगिकी विकसित होती गयी पर्यावरण के साथ उसकी भूमिका तथा सम्बन्ध में भी उत्तरोत्तर परिवर्तन होता गया। यथा-पर्यावरणीय कारक पर्यावरण का परिवर्तनकर्त्ता (Changer) तथा पर्यावरण का विध्वंशक्ता (Destroyer of the Environment)। जो मानव प्रारम्भ में प्रकृति का अंग तथा साझीदार था वही आगे चलकर उसका स्वामी बन बैठा। अतः मानव एवं पर्यावरण के मध्य सहभागिता तथा परस्परावलम्बन का सम्बन्ध चरमरा गया और मानव प्राकृतिक पर्यावरण का कारक एवं पालक न होकर उसका विध्वशक हो गया।

प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान समय तक मानव पर्यावरण के मध्य बदलते सम्बन्धों को निम्न चार चरणों में विभाजित किया जाता है-

  1. आखेट एवं भोजन संग्रह काल (Period of Hunting and Food Gathering)I
  2. पशुपालन एवं पशुचारण संग्रह काल (Period of Animal Domestication and Pastoralism) I
  3. पौधपालन एवं कृषिकाल (Period of Plant Domestication and Agriculture) I
  4. विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं औद्योगीकरण काल (Period of Science, Technology and Industrialization) I
  • आखेट एवं भोजन संग्रह काल-

यह काल मानव संस्कृति तथा सभ्यता के प्रारम्भिक काल तथा आदि मानव से सम्बन्धित है। इसे प्रागैतिहासिक काल भी कहते हैं। इस काल में मानव प्राकृतिक पर्यावरण का एक अभिन्न भाग तथा घटक था। उसके कार्य पर्यावरण के अन्य प्राणियों के समान ही थे। अर्थात् आदि मानव ‘भौतिक मानव’ (Physical man) के रूप में था क्योंकि उसकी आधारभूत मांग भोजन तक ही सीमित थी। आदि मानव अपने उदर की पुर्ति अपने आस-पास के पर्यावरण में जंगल्लों से फल-फूल तथा कन्दमूल प्राप्त करके आसानी से कर लेता था। उसे किसी स्थायी आवास की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वह चलता-फिरता घुमन्तु प्राणी था तथा पेड़ों पर या गुफाओं में अपनी रातें गुजार देता था।

इस तरह स्पष्ट है कि आदि मानव तथा पर्यावरण के बीच मधुर तथा मित्रवत सम्बन्ध था। पर्यावरण आदि मानव की समस्त आवश्यकताओं (मात्र भोजन तथा आवास) की पूर्ति कर देता था। इस प्रकार आदि मानवं प्राकृतिक पर्यावरण पर पूर्णरूपेण निर्भर था। ज्ञातव्य है कि आदि मानव भी पर्यावरण से अपने लिए संसाधन प्राप्त करता था (फलफूल था कन्दमूल) परन्तु इससे पर्यावरण पर किसी भी तरह का लेशमात्र भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता था।

  • पशुपालन एवं पशुचारण-

समय के साथ मनुष्य ने पशुओं को पालना भी सीख लिया। पशुपालन ने आदि मानव में सामूहिक जीवन को भी जन्म दिया होगा क्योंकि अपने को तथा अपने पालतू जानवरों को हिंसक जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए जनसमुदाय का एक साथ रहना अनिवार्य हो गया होगा। (सामाजिक मनुष्य) परन्तु सामूहिक जीवन के साथ-साथ उनका घुमक्कड़ जीवन बना रहा क्योंकि उन्हें भोजन, जल तथा पशुओं के चारे के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना पड़ता था। अतः इनके तथा पालतू पशुओं के आवास अब भी अस्थायी हुआ करते थे। स्मरणीय है कि समय के साथ पालतू पशुओं तथा मनुष्य की संख्या में वृद्धि होती गयी जिस कारण पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी बढ़ता गया परन्तु इसका प्राकृतिक पर्यावरण पर काई खास बुरा प्रभाव नहीं हो पाया था क्योंकि पालतू पशुओं तथा मनुष्य की संख्या अब भी सीमा के अन्दर थी। अतः मानव के क्रिया-कलापों द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र या प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र अपने अन्दर आत्मसात करने में सक्षम थी।

सामाजिक मानव ने निम्न रूपों में प्राकृतिक पर्यावरण में परिवर्तन किया-

(i) आहार के लिए जंगली जानवरों का शिकार करके.

(ii) आखेट द्वार कुछ पशुओं की संख्या कम करके,

(ii) प्राकृतिक आवास को बदल कर कुछ पशुओं की संख्या कम करके तथा कुछ की संख्या बढ़ा करके,

(iv) अपने तथा अपने पालतू पशुओं के आवास तथा मार्ग के लिए वनों को जलाकर,

(v) पशुओं तथा कुछ पौधों को पालतू बनाकर,

(vi) जंगलों को जलाने से स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय पर्यावरण को बदल कर।

  • पौधपालन एवं कृषिकाल-

पौधों का भोजन के लिए पालना मनुष्य द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण के जैविक संघटकों पर विजय हासिल करने का महत्वपूर्ण प्रयास माना जाता है। वास्तव में समय के साथ मनुष्य के बुद्धि कौशल में निरन्तर विकास होता गया। वह थीरे-धीरे प्रकृति को काबू करने में प्रयत्नशील होता रहा और पशुपालन के बाद पौथपालन उसकी बुद्धि में निरन्तर विकास की अगली कड़ी थी। वह प्रारम्भ में अपने आवास के आस-पास अपने द्वारा खाये गये फलों के बिखरे बीजों से उगते पौधों को देखा होगा। अतः मनुष्यों में पौधों को उगाने तथा उन्हें पोषित करने के प्रति इच्छ जागृत हुई होगी। इस तरह पौधों के पालन के माध्यम से प्राचीन कृषि का विकास हुआ होगा जिस कारण लोगों में स्थायी जीवन (Sedentary or settled life) व्यतीत करने की शुरूआत हुई। ज्ञातव्य है कि अब भी अधिकांश लोग घुमक्कड़ जीवन ही व्यतीत करते थे। स्मरणीय है कि खाद्यान्न फसलों की कृषि के साथ सामाजिक वर्गों तथा संगठनों का आविर्भाव हुआ जिस कारण प्रारम्भिक प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं (यथा नील घाटी या मिश्र घाटी की सभ्यता, सिन्धु घाटी की सभ्यता आदि) का अभ्युदय हुआ। अधिकांश लोगों ने नदियों की घाटियों में स्थायी रूप से निवास करना प्रारम्भ कर दिया क्योंकि वहाँ पेय जल तथा उपजाऊ भूमि की पर्याप्त सुलभता थी।

स्पष्ट है कि सामाजिक स्तर पर संगठित मानव समुदाय एवं मानव समाज, मानव सभ्यता तथा कृषि कार्य के अभ्युदय ने मनुष्य तथा प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य अब तक चले आ रहे मित्रवत तथा मधुर सम्बन्धों में पर्याप्त परिवर्तन किया। कृषि-रूपों तथा कृषि-कारयों में निरन्तर सुधार, परिमार्जन तथा प्रगति के फलस्वरूप मानव जनसंख्या में भी निरन्तर वृद्धि होती गयी। परिणामस्वरूप अधिकाधिक वनों को साफ करके कृषि भूमि में परिवर्तित किया जाने लगा। स्थानान्तरण कृषि द्वारा वनों का सर्वाधिक विनाश होने लगा। कृषि के इस पुरातन प्रणाली (दक्षिण एवं दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई देशों के पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह कृषि रूप प्रचलन में है। भारत के उत्तरी-पूर्वी पहाड़ी प्रान्तों में आज भी झूम-कृषि की जाती है) के अन्तर्गत वनों को जलाकर भूमि को साफ करके कृषि के उपयोग में लाया जाता है। चार-पाँच वर्षों (या जब तक भूमि की उर्वरता कायम रहता है) के बाद उस क्षेत्र को छोड़ दिया जाता है तथा अन्यत्र वन को जलाकर कृषि भूमि प्राप्त की जाती है।

कालान्तर में मानव ने नई प्रौद्योगिकी का विकास किया तथा अपने निजी पर्यावरण का निर्माण किया। मानव के इस स्वनिर्मित निजी पर्यावरण को ‘सांस्कृतिक पर्यावरण’ कहते हैं। इसके अन्तर्गत उसने अपने रहने के लिए भवनों, गांवों, कस्बों, नगरों आदि का निर्माण किया। सामाजिक संस्थानों यथा विद्यालयों का निर्माण एवं विकास किया, पूजाघरों का निर्माण किया, यातायात के लिए सड़कें, पुल, रेल आदि बनायी, सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण किया आदि। ज्ञातव्य है कि सांस्कृतिक पर्यावरण के ये तथा अन्य कई तत्वों का विकास एवं सम्वर्द्धन कृषि विकास के विभिन्न चरणों एवं अवस्थाओं में सम्भव हुआ। इस सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण, विकास एवं संवर्द्धन प्रौद्योगिकी (Technology) में विकास के कारण ही संभव हो पाया था। इस तरह विकसित प्रौद्योगिकी ने ‘भौतिक मानव’ एवं ‘सामाजिक मानव’ को ‘आर्थिक मानव’ में बदल दिया। स्मरणीय है कि 1860 तक विकसित प्रौद्योगिकी विनाशक एवं संहारक नहीं थी। वरन् वह मानव के आर्थिक विकास में इस तरह सहायक थी कि उसका प्राकृतिक पर्यावरण पर अधिक कुप्रभाव नहीं था। मनुष्य पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों को अपने अनुकूल बनाने में समर्थ हो गया परन्तु प्रकृति अब भी सर्वोपरि थी।

  • विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा औद्योगिकीकरण काल-

विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ उन्नीसवीं शदी के उत्तराद्द्ध में औद्योगिक क्रान्ति का (1860 से) सवेरा होता है। इसी औद्योगीकरण के साथ मनुष्य तथा पर्यावरण के मध्य शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध की शुरूआत भी होती है। ‘आर्थिक निश्चयवाद’ (Ecnomid determinism) की अतिवादी संरचना, पश्चिमी दुनिया के सभी लोगों के भौतिकतावादी दृष्टिकोण तथा आधुनिक ‘प्रौद्योगिकीय मानव’ अति विकसित किन्तु जानलेवा प्रौद्योगिकी एवं वैज्ञानिक तकनीक के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का औद्योगिक विकास एवं नगरीकरण के लिए अविवेकपूर्ण एवं लोलुपतापूर्ण धुँआधार विदोहन एवं उपयोग प्रारम्भ हो गया। इस कारण अनेकों भयावह तथा जानलेवा पर्यावरणीय समस्याओं का प्रादुर्भाव हुआ है। आधुनिक प्रौद्योगिकीय मानव के प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव विभिन्न प्रकार के हैं तथा अत्यन्त जटिल हैं क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरण के किसी एक अंग/तत्व/ घटक में मनुष्य द्वारा परिवर्तन के कारण जीवमण्डलीय पारिस्थितिकतंत्र के जैविक एवं अजैविक (भौतिक) संघटकों में श्रृंखलाबद्ध परिवर्तन होते हैं जिस कारण अनेक पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय समस्यायें पैदा हो जाती हैं।

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