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राम काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ

राम काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ | रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ

राम काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

राम काव्य परंपरा का यद्यपि एक लंबा इतिहास है तथापि इस परंपरा के केंद्र बिंदु हैं गोस्वामी तुलसीदास, जो हिंदी काव्याकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाँति सर्वत्र अपना प्रकाश पूंज विकोर्ण कर रहे हैं। रामकाव्य परंपरा में उनके ग्रंथ मील का पत्थर सिद्ध हुए हैं। रामचरितमानस हिंदू धर्म, संस्कृति, आचार विचार का मापदंड बन गया है तथा यह ग्रंथ जितना लोकप्रिय हुआ है, उसकी कोई समता नहीं है। उच्चकोटि के काव्यत्व से यूक्त इस ग्रंथ में मानव धर्म की अद्भुत व्याख्या की गई है। राम काव्य परंपरा के प्रमुख कवि होने से हम तुलसी को ही केंद्र मानकर रामकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का विश्लेषण करेंगे। इस काव्यधारा की विशेषताओं का विवेचन अग्र शीर्षकों में किया जा सकता है- (रामकाव्य की प्रमुख विशेषताएँ)

  1. राम का स्वरूप 

राम काव्य परम्परा के कवियों ने भगवान विष्णु के अवतार ‘राम’ के जीवन चरित्र को आधार बनाकर अपने काव्य ग्रंथों की रचना की। इन कवियों ने राम को परब्रह्म मानकर धर्म की स्थापना हेतु अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र रूप में अवतार ग्रहण कर मानवीय लीलाएँ करते हुए दिखाया है । तुलसी ने राम के जिस स्वरूप की परिकल्पना रामचरितमानस में की है, वह शक्ति, शील एवं सौंदर्य का भंडार हैं। राम के रूप में उन्होंने एक ऐसे मानवीय चरित्र को प्रस्तुत किया हैं, जो सबके लिए अनुकरणीय है और एक आदर्श पात्र है। तलसी के राम लोक रक्षक हैं तथा अधर्म के विनाशक एवं धर्म के संस्थापक हैं। बे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और श्रेष्ठतम गुणों से विभूषित हैं। तुलसरी के राम अपने अनंत सौंदर्य से जन जन को मोहित करने वाले हैं साथ ही अपूर्व शील से सबके हृदय को अपने बशीभूत कर लेते हैं। वे अद्वितीय वीर हैं तथा इस चीरता से अधर्म का विनाश करते हुए तत्पर दिखाई देते हैं।

  1. भक्ति का स्वरूप 

राम भक्ति शाखा के कवियों ने राम के प्रति दास्य भाव को भक्ति भावना प्रदर्शित की है। वे स्वयं को सेवक तथा ‘राम’ को अपना आराध्य मानते हैं। तुलसी ने रामचरितमानस में दास्य भाव को भक्ति को मुक्ति का साधन मानते हुए कहा है-

सेवक-सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।

विनय पत्रिका में भी तुलसी की भक्ति का यही स्वरूप दिखाई पड़ता है। दास्य भाव की भक्ति से भक्त अहंकार शून्य होकर उस परमात्मा के महत्त्व से परिचित होता चला जाता है।

तू दयाल दीन हौं तु दानि हौं भिखारी।

हों अनाथ पातकी तू पाप पुंज हारी।

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राम सौं बड़ों कौन मो सो कौन छोटो

राम सौ खरो है कौन मो सो कौन खोटो।

तुलसी की भक्ति पद्धति बड़ी अनुपम हैं। उसमें आराध्य के प्रति श्रद्धा, प्रेम का समन्वय है तथा धर्म और ज्ञान का भी योग है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उनकी भक्ति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है “गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य हैं। न उसका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्य लक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं।”

तुलसी की भक्ति नवधा भक्ति हैं जिसका चरम उत्कर्ष विनय पत्रिका में देखा जा सकता है। भजन, कीर्तन, नाम स्मरण, गुण कथन, दैन्य, समर्पण आदि सभी तत्व तुलसी की भक्ति पद्धति में उपलब्ध हो जाते हैं रामभक्त कवियों की दृष्टि उदार थी। राम के प्रति अनन्यता होते हुए भी उन्होंने किसी अन्य देवी – देवता के प्रति तिरस्कार नहीं दिखाया है। साथ ही भक्ति मार्ग की महत्ता बताते हुए भी ज्ञान और कर्म की महत्ता भी प्रतिपादित की हैं उनकी भक्ति वेद शास्त्र की मर्यादा के अनुकूल है और विभिन्न मतों का सार तत्व होने से पारंपरिक होते हुए भी नवीनता लिए हुए है ।

  1. समन्वयवादी प्रवृत्ति

राम भक्त कवियों की एक उल्लेखनीय विशेषता है- इनकी समन्वयवादी प्रवृत्ति। तुलसी के समय में समाज में अनेक प्रकार के विग्रह व्याप्त थे धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा के नाम पर आए दिन संघर्ष होते रहते थे, अतः समन्वय तत्कालीन युग की आवश्यकता थी। तुलसी ने रामचरितमानस में हर दृष्टि से समन्वयवादी प्रवृत्ति को अपनाते हुए लोकनायक होने का परिचय दिया। सगुण भक्ति धारा के कवि होते हुए भी उन्होंने निर्गुण की उपेक्षा नहीं की अपितु निर्गुण ब्रह्म को ही सगुण और साकार रूप में अवतार ग्रहण कर मानवीय लीलाएँ करते हुए दिखाकर दोनों का समन्वय किया इसी प्रकार उन्होंने शैव और वैष्णव का समन्वय कर राम के द्वारा शिव की अर्चना करवाई है। यही नहीं अपितु उन्होंने ज्ञान और भक्ति का समन्वय किया, राजा और प्रजा का समन्वय किया तथा जनभाषा और संस्कृत का समन्वय किया। दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने अद्वैतवाद विशिष्ट्वैतवाद, सांख्य और शुद्धाद्वैतवाद को समन्वित किया है। उनका संपूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है और इस समन्वयवादी प्रवृत्ति के कारण ही तुलसी के काव्य को इतनी लोकप्रियता प्राप्त हुई है।

  1. मूल्य बोध एवं युगबोध 

रामभक्त कवियों का उद्देश्य केवल काव्य रचना करना ही नहीं था वे जितने उच्चकोटि के कवि थे, उतने ही बड़े उपदेशक भी थे उनकी रचनाएँ केवल काव्य रसिकों के आस्वाद की विषयवस्तु नहीं हैं, अपितु जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को जीवन के नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी देती हैं। वे एक उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं। उन्होंने राम के चरित्र के द्वारा आदर्श उपस्थित किया है एक पुत्र का आदर्श, एक मित्र का आदर्श, एक राजा का आदर्शं. एक पति का आदर्श। यही नहीं रामचरितमानस के अन्य पात्र भी हमारे समक्ष आदर्श प्रस्तुत करते हैं। भरत भातृप्रेम का आदर्श हैं, तो सीता पत्नीत्व का आदर्श हैं, हनुमान सेवक का आदर्श प्रस्तुत करते हैं तो लक्ष्मण छोटे भाई का आदर्श। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन नैतिकता की पराकाष्ठा है, परंतु वह कहीं भी अस्वाभाविक नहीं लगता। तुलसी ने रामचरितमानस के द्वारा लोक कल्याण की कामना करते हुए जनता को नैतिकता एवं सदाचार का अविस्मरणीय पाठ पढ़ाया है। उनकी इस विशेषता को लक्ष्य कर आचार्य शुक्ल ने कहा है-

” भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव को। ….इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है।….व्यक्तिगत साधना के साथ-ही-साथ लोकधर्म की अत्यंत उज्ज्वल छटा उसमें विद्यमान है।”

रामभक्त कवियों ने अपनी रचनाओं में युगीन परिस्थितियों का उल्लेख भी किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में कलियुग-निरूपण के द्वारा तत्कालीन मुस्लिम शासकों की शासन व्यवस्था में होने वाले अत्याचारों, तद्युगीन सामाजिक विकृतियों का यथार्थ चित्रण किया है साथ ही राम राज्य निरूपण के अंतर्गत आदर्श शासन व्यवस्था की रूपरेखा भी प्रस्तुत की है। इस प्रकार वे युग बोध के दायित्व का भी फलतापूर्वक निर्वाह करने में समर्थ हुए हैं।

  1. नारी विषयक दृष्टिकोण 

राम काव्य में स्थान- स्थान पर नारी के विषय में अपना दृष्टिरिकोण कवियों ने प्रस्तुत किया है। प्राय: आलोचकों ने तुलसी के नारी विषयक दृष्टिकोण के प्रति पूर्वाग्रह रखते हुए उन्हें नारी निंदक के रूप में निरूपित किया है। उनके इस मत का आधार तुलसी द्वारा कही गई निम्न उक्ति है-

ढोल गँवार सुद्र पसू नारी। जे सब ताड़ना के अधिकारी।

परंतु वे यह भूल जाते हैं कि तुलसी ने सीता. पार्वती, अनुसूया जैसी नारियों के उज्ज्वल चरित्र की परिकल्पना करते हुए नारी को सती, पतिव्रता एवं त्यागमयी रूप में प्रस्तुत कर उन्हें गरिमा एवं भव्यता प्रदान की है। उन्होंने नारी के कामिनी रूप की भत्त्सना की है, भामिनी रूप की नहीं। नारी के पतिव्रत धर्म की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं “बन्य नारि पतिव्रत अनुसरी।” विलासिनी एवं कुलटा नारियों की निंदा कबीर ने भी की हैं और तुलसी ने भी, परंतु उसके आधार पर यह कहना कि वे कवि नारी निंदक हैं, इनके प्रति अन्याय ही होगा। सच तो यह है कि इन्होंने निकृष्ट पुरुषों को भी निंदनीय माना है जो काम के वशीभूत होकर कर्तव्यच्युत हो जाते हैं-‘नारि विवस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाई।’ तुलसी ने नारी जाति के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हुए एवं उसकी पराधीनता को लक्षित करते हुए एक ही पंक्ति में उसकी नियति को स्पष्ट कर दिया है –

“कत विधि सृजी नारि जग माही। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।”

नारी के प्रति इन कवियों की दृष्टिकोण तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप ही था। नारी की पीड़ा का जैसा अनुभव इन्होंने किया वैसा बहुत कम कवि कर सके हैं अत: हमें पूर्वाग्रह से मुक्त होकर इनके नारी संबधौ दृष्टिकोण की परीक्षा करनी चाहिए।

  1. प्रबंध रचना की प्रवृत्ति 

भक्ति काल के रामभक्त कवियों ने रामकथा को लेकर प्राय: प्रबंध काव्यों की रचना की है। तुलसी का रामचरितमानस इस काव्य परम्परा का अन्यतम महाकाव्य है। इसके अतिरिक्त प्राणचंद चौहान ने रामायण महानाटक लालचंद ने अवध विलास और हृदयराम ने हनुमन्नाटक नामक प्रबंध काव्य लिखे हैं। प्रबंध काव्य के अनुकूल गांभीर्य और मर्यादा तो राम के चरित्र में है ही, साथ ही रामकथा में ऐसे अनेक मार्मिक प्रसंग उपलब्ध हैं, जिनका होना प्रबंध काव्य के लिए अत्यावश्यक है। इन मार्मिक प्रसंगों की उद्भावना करने एवं उनका रसात्मक वर्णन करने में जिस कवि का मन जितना अधिक रमता है, वह उतना ही अच्छा प्रबंधकार हो सकता है। इसे कसौटी मानकर आचार्य शुक्ल ने तुलसी को हिंदी का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधकार माना है तथा यह स्वीकार किया है कि “रचना कौशल, प्रबंध पटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरितमानस में मिलता है।”

  1. विविध काव्य शैलियाँ 

रामभक्त कवि शास्त्रज्ञ एवं विद्वान शे। वे कविता करने में सिद्धहस्त थे, अत: किसी एक विशेष शैली में ही नहीं अपितु विविध काव्य शैलियों में पारंगत थे। यही कारण है कि राम काव्य की रचना विविध शैलियों में की गई है। तुलसी ने रामचरितमानस की रचना प्रबंध काव्य के रूप में दोहा-चौपाई शैली में की, जबकि कवितावली की रचना कवित्त सवैया शैली में मुक्तक काव्य के रूप में की। विनय पत्रिका में पद शैली को तथा बरवै रामायण में बरवै शैली को अपनाया गया है। रामायण महानाटक के रचियता प्राणचंद चौहान तथा हनुमन्नाटक के रचयिता हृदयराम ने संवाद-शैली में अपने ग्रंथों का प्रणयन किया। वीरगाथाकाल की छप्पय पद्धति विद्यापति और सूरदास की पद-शैली एवं गति पद्धति, गंग आदि भाट कवियों की कवित्त सवैया पद्धति तथा जायसी आदि सूफी कवियों की दोहा-चौपाई शैली का सफलतापूर्वक प्रयोग रामभक्त कवियों को रचनाओं में किया गया है। तुलसी के काव्य में इन सभी शैलियों का प्रयोग जितनी सफलता से हुआ है उसे देखकर ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनमें काव्य प्रतिभा किस हृद तक विद्यमान थी।

8. राम काव्य में रस 

योजना-राम काव्य का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें सभी रसों की योजना करने का अवसर कवियों को प्राप्त हो गया है, परिणामतः इस काव्य में नव रसों का पूर्ण परिपाक उपलब्ध होता है। भक्ति भावना की प्रधानता होने के कारण निर्वेद जन्य शांत रस को ही हम राम काव्य का प्रधान रस स्वीकार कर सकते हैं। तुलसी साहित्य में सभी रसों का समावेश है । रामचरितमानस के युद्ध वर्णन में वीर एवं रौद्र रसों की सुंदर योजना हुई है तथा श्रृंगार का मर्यादित चित्र पुष्प वाटिका में राम -सीता के प्रथम दर्शन पर देखा जा सकता है। मर्यादावादी होने के कारण तुलसी ने श्रृंगार का मर्यादित चित्र ही अंकित किया है किंतु वहाँ जो कुछ भी है, अत्यंत शालीन एवं मधुर है । सभा भवन में राम और सीता पास – पास बैठे हुए हैं। सीता जो राम की ओर देखना भी चाहती हैं, किंतु गुरुजनों के सम्मुख यह कैसे संभव हो, अत: कंकण के नग में राम के प्रतिबिंब को देखकर कैसी मुग्ध हो रही हैं-

राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाही।

यातै सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रहीं पल टारति नाहीं।।

‘अग्रदास’ के राम काव्य में रसिकता की भाबना का समावेश भी है, जिसे वस्तुत: कृष्ण काव्य का ही प्रभाव माना जा सकता है।

  1. अवधी भाषा का प्रयोग 

राम काव्य की रचना प्रमुख रूप से अवधी भाषा में हुई है। गोस्वामी जी का रामचरितमानस अवधी भाषा में ही लिखा गया है। तुलसी विलक्षण प्रतिभा संपन्न कवि थे, क्योंकि उन्हें ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। उन्होंने कवितावली एवं विनय पत्रिका जैसे मुक्तक काव्यों में सुंदर, मधुर, सरस ब्रजभाषा का प्रयोग करते हुए अपनी इस शक्ति का परिचय दिया है । तुलसी की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है- प्रसंगानुकूलता। रसानुकूल शब्द चयन, आनुप्रासिकता एवं पात्रानुकुलता जैसे गुण उनकी भाषा में सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं। उनकी भाषा में स्वाभाविकता, सरसता एवं भावव्यंजकता भी विद्यमान है।

तुलसी के अतिरिक्त अन्य भक्तिकालीन कवियों ने प्रायः अवधी में ही राम काव्य की रचना की है। लालदास कृत अवध विलास तथा ईश्वरदास कृत भरत मिलाप अवधी भाषा में लिखी गई रचनाएँ हैं । तुलसी ने जिस अवधी का प्रयोग किया है वह परिनिष्ठित साहित्यिक अवधी है जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग बहुलता से हुआ है। वह पूर्णत: व्याकरण सम्मत हैं तथा उसमें रंचमात्र भी शिथिलता नहीं है।

  1. छंद एवं अलंकार योजना 

रामभक्त कवि काव्य मर्मज्ञ थे। वे काव्यशास्त्र के नियमों से बंधी हुई छंद योजना करने में पूर्ण समर्थ थे। यही कारण है कि तुलसी जैसे समर्थ कवि ने किसी एक छंद में नहीं अपितु विविध छंदों में काव्य रचना की है। रामचरितमानस में दोहा, चौपाई, सोरठा, सरवैया आदि छंदों का सफल प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त संस्कृत के छंदों का प्रयोग भी उन्होंने संस्कृत में रची गई स्तुतियों में किया है। घनाक्षरी, कवित्त, तोमर, त्रिभंगी छंदों का भी सुंदर प्रयोग राम काव्य में देखा जा सकता है ।

राम काव्य परंपरा के कवि अलंकार प्रवीण थे काव्य में अलंकारों के प्रयोग में ये सिद्धहस्त थे। यद्यपि इन्होंने चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकार योजना नहीं की है तथापि उनका काव्य अलंकारों में मंडित है उपमा उत्प्रेक्ष उनके प्रिय अलंकार हैं। रूपकों का जैसा विस्तृत निर्वाह तुलसी ने किया है, वैसा विरले कवि ही करने में समर्थ होते हैं। रामचरितमानस में ज्ञान-भक्ति के विवेचन में जो लंबा सांगरूपक उन्होंने प्रस्तुत किया है, वह उन जैसे प्रतिभा संपन्न कवि का ही सामर्थ्य था। इन कवियों की अलंकार योजना स्वाभाविक एवं अर्थबोध में सहायक रही हैं विभावना, प्रतीत, दृष्टांत जैसे अलंकार भी तुलसी के काव्य में मिल जाते हैं।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कृष्ण काव्य को तुलना में भक्तिकालीन रामकाव्य भले ही परिमाण की दृष्टि से न्यून हो, किंतु अपनी गरिमा एवं उदात्तता के कारण वह हिंदी काव्य में सर्वश्रेष्ठ है। भक्तिरस से सराबोर इन कवियों की वाणी ने जनता को आशा, उत्साह एवं स्फूर्ति का संदेश दिया। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस आज राजा से लेकर रंक तक, विद्वान से लेकर मूर्ख तक सबके घरों में विराज रहा है। इन कवियों का प्रदेय हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है और इनकी उच्चकोटि की रचनाओं के कारण ही भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग माना गया है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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