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प्राकृत भाषा | साहित्य की व्युत्पत्ति | प्राकृत की ध्वनिगत | व्याकरणगत विशेषताएं

प्राकृत भाषा | साहित्य की व्युत्पत्ति | प्राकृत की ध्वनिगत | व्याकरणगत विशेषताएं

प्राकृत भाषा एवं साहित्य की व्युत्पत्ति

व्युत्पत्ति-प्राकृत वैयाकरणों के अनुसार प्राकृत’ का आशय निम्न प्रकार से है-‘प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते । यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द के दो अर्थो ‘संस्कार किया हुआ’ तथा ‘संस्कृत- भाषा’ से दो स्पष्ट धारणाएँ चलीं, जिसमें पहले अर्थ ‘संस्कार किया हुआ’ के अनुसार प्राकृत से संस्कृत का विकास क्रमशः हुआ’ तथा दूसरे अर्थ ‘संस्कृत-भाषा’ से ‘संस्कृत भाषा से प्राकृत-भाषा का शनैः-शनैः विस्तार हुआ’ ज्ञात होता है। जो लोग पहली अवधारणा ‘प्राकृतं से संस्कृत भाषा का विकास हुआ मानते हैं, उनके अनुसार वैदिक साहित्य के अनेक प्रयोग प्राकृत भाषा के अनुरूप हैं । यथा-

  1. ‘प्राकृत’ में संयुक्त वर्ण वाले पदों में एक व्यञ्जन का लोप होकर पूर्व के ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है । यथा-दुर्लभः > दुलह।
  2. संस्कृत व्यञ्जनान्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का यहाँ लोप हो जाता है। यथा-तावत् > ताव, यशस् > जस आदि।
  3. प्राकृत में ‘ध’ का ‘ह’ हो जाता है। यथा-वधिर > वहिर, व्याध > वाह, प्रतिसंधाय > प्रतिसंहाय आदि।

अतः वैदिक भाषा एवं प्राकृत भाषा की कोई मूल भाषा होनी चाहिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राकृत भाषा का मूल संस्कृत भाषा नहीं है । इस पक्ष के समर्थन में यह भी कहा जा सकता है कि एक ही काल में जनसाधारण की बोली एवं साहित्यिक भाषा दोनों का प्रयोग समाज में होता है, उसी प्रकार वैदिक काल में भी दो प्रकार की भाषाएँ प्रचलित रही होंगी-एक साहित्यिक, जिसे ‘वैदिक-संस्कृत’ कहा गया तथा दूसरी ‘प्राकृत’, जो जनसाधारण द्वारा बोली जाती थी। अतः संस्कृत-भाषा को प्राकृत-भाषा का मूल कहना तथ्यहीन है।

प्राकृत भाषाएँ–महामुनि भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में सात प्राकृत भाषाओं का नामोल्लेख किया है-

“मागध्यावन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्धमागधी।

वाह्यीका दाक्षिणात्याश्च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः।।(ना.शा. 17/48)

अर्थात् मागधी, अवन्तिका, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्रीका तथा दाक्षिणात्या-ये सात प्राकृत भाषाएँ हैं। ‘प्राकृत-प्रकाश’ में वररुचि ने यद्यपि महाराष्ट्री, मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची इन चार प्राकृत-भाषाओं का उल्लेख किया है, किन्तु प्रथम आठ परिच्छेदों में ‘महाराष्ट्री’ प्राकृत का ही विवेचन है। इन्हीं आठ परिच्छेदों पर परवर्ती टीकाकारों ने टीकाएँ लिखीं। इससे यह प्रमाणित होता है कि महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग साहित्य में प्रमुख रूप से हुआ।

महाराष्ट्री प्राकृत

यह श्रेष्ठ तथा परिनिष्ठित या मानक प्राकृत मानी जाती है। प्राकृत वैयाकरणों ने इसकी विशेषताओं का विवेचन सामान्य प्राकृत मानकर किया है। संस्कृत नाटकों में प्राकृत-पद्य महाराष्ट्रों में ही निबद्ध किए गए हैं। सेतुबन्ध तथा ग़उडवहो, जैसे महाकाव्य, गाहासत्तसतई तथा वज्जालग्ग जैसे श्रेष्ठ मुक्तक काव्य महाराष्ट्री में ही रचे गए हैं।

महाराष्ट्री को सम्पूर्ण मध्यदेश में व्यापक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई जैसा कि संज्ञा में ही उसके क्षेत्र विस्तार का भाव स्पष्ट है-यह महाराष्ट्र की प्राकृत (जन-भाषा) थी। कुछ विद्वानों ने इसे आधुनिक मराठी का पूर्व रूप माना भी है। हार्नले का विचार है कि महाराष्ट्र का तात्पर्य है ‘महान् राष्ट्र’। यहाँ राष्ट्र जनपद के लिए प्रयुक्त है। कुछ विद्वान् महाराष्ट्री प्राकृत को शौरसेनी का परवर्ती विकास मानते है। डॉ. मनमोहन घोष का निष्कर्ष है कि महाराष्ट्री प्राकृत शौरसेनी का विकसित रूप है।

शौरसेनी

शौरसेनी का व्यवहार मुख्यतः नाटकों में गद्यभाषा के रूप में हुआ है, इसलिए इसे नाटकीय शौरसेनी भी कहा जाता है। यह सूरसेन जनपद की भाषा थी जिसका केन्द्र मथुरा था। मध्यदेश की भाषा होने के कारण शौरसेनी संस्कृत के अधिक निकट है।

शौरसेनी में त और थ के स्थान पर क्रमश: द और ध होता है। जैसे— गच्छति > गच्छदि, कथय > कधेहि, त का मूर्धन्यीकृत रूप ड भी मिलता है। जैसे-पुड्डो । ज्ञ; न्य, ण्य के स्थान पर ञ्ञ होता है। जैसे ब्रह्मण्य > बम्हञ्ञ, विज्ञ >विञ्ञो। र्य के स्थान पर विकल्प से य्य आदेश होता है। जैसे-आर्यपुत्रो अय्यउत्तो, ज्ज भी होता है जैसे— कार्यम् > कज्जं। स्त्री शब्द का इत्थी, इव के लिए बिअ, एव के लिए ज्जेव, आश्चर्य के लिए अच्चरिअं ध्वनि परिवर्तन के विशिष्ट उदाहरण हैं।

शौरसेनी में पंचमी एकवचन आदो/आदु, सप्तमी एकवचन सि, म्मि प्रत्ययो से सम्पन्न होते हैं। जैसे-वीरादो, वीरादु, वीरसि, वीरम्मि।

एत धातुओं में स्था का चिट्ठ, स्मृ का सुमर, दृश का पेक्ख और अस का अच्छ आदेश होता है। उदाहरणार्थ- तिष्ठति >चिट्ठदि, स्मरति > सुमरेदि, पश्यति > पेक्खदि, सन्ति > अच्छन्ति। पूर्वकालिक प्रत्यय इय, दृण तथा त्ता प्रयुक्त होते हैं। जैसे-भविय, भोदूण, भोत्ता, कृ और गम् के साथ उअ प्रत्यय जुड़ता है। जैसे— गदुअ (गत्वा।)

प्राकृत की ध्वनिगत तथा व्याकरणगत विशेषताएं

प्राचीन भारतीय आर्य भाषा की ध्वनियाँ पालि की तरह ही प्राकृतों में भी बदलती रहीं। ऋ, लृ, ऐ, औ, श, ष, विसर्ग, संयुक्त व्यंजन आदि परिवर्तन यथा पूर्वोक्त पालि की तरह ही हुआ है अतः उनकी पुनरावृत्ति आवश्यक नहीं है केवल यहाँ कुछ उदाहरणों को ही प्रस्तुत किया जा रहा है-

स्वर परिवर्तन

  1. ऋरि ऋण >रिण, ईदृश:>एरिसो, ऋ >रु =वृक्षः >रुक्खो ऋ > अ, इ, उ = कृत > कद, तृण >तिण वृद्ध >बुडो।
  2. ऐ > ए = शैल > सेल, वैद्य > वेज्ज।

औ>ओ = कोमुदी > कोमुई, कोमुदी

ऐ का अइ, औ का अउ भी मिलते हैं। जैसे-दैत्य >दइच्च, पौरुष पउरुष।

  1. विसर्ग > ओ = भर्तारः > भत्तारो
  2. शब्दों में संयुक्त, व्यंजन के पूर्व हस्व स्वर तथा असंयुक्त व्यंजन के पूर्व दीर्घ स्वर का विधान प्रायः सभी साहित्यिक प्राकृतों में है, उदाहरणार्थ-

मनुष्य > मणुस्स (संयुक्त स्स के पूर्व उ स्वर ह्रस्व है > मणूस (असंयुक्त स के पूर्व हस्व उ दीर्घ हो गया)

इस तरह उत्सव और ऊसव हैं। कहीं-कहीं दीर्घता के स्थान पर अनुनासिकता आ गई है। जैसे—अश्रु >अंसु। हिन्दी शब्दों की निर्माण प्रक्रिया इन दोनों ही नियमों से प्रभावित है। परवर्ती अपभ्रंश में द्वित्व के एक वर्ण की क्षति के कारण पूर्व का स्वर दीर्घ किया गया और अनुनासिकता का भी आगमन हुआ। जैसे-आश्रु >अंसु, अक्षि अखि।

  1. पालि की तरह साहित्यिक प्राकृतों में उच्चारण सुविधा के कारण स्वरों में पर्याप्त स्थान परिवर्तन हुआ है। जैसे-

अ> इ पक्व >पक्कि, अंगार >इंगाल, अ >ठ-सर्वज्ञ, सवण्णु,अ>ए-शय्या > सेज्जा, सौन्दर्य >सुन्देर, ओ >अ-तथा >तह, यथा>जह आ> इ= सदा> सइ

व्यंजन परिवर्तन-

  1. पालि में शब्दात व्यंजन का लोप हो गया था, प्राकृत में भी यही स्थिति है।
  2. असंयुक्त ऊष्म व्यंजनों श, ष का स्थान स लेता है किन्तु अनेक प्राकृतों में इन्हें सुरक्षित रखा गया है। मागधी में केवल श, अर्धमागधी में केवल स् किन्तु पैशाची में श् ष् दोनों हैं।
  3. न को सर्वत्र ण करने का प्रयास किया गया है—आधुनिक आर्यभाषाओं की कई ऐसी क्षेत्रीय बोलियाँ मौजद हैं जिनमें णं ध्वनि प्रायः प्रचलित नहीं है अत: इससे यही ज्ञात होता है कि इन क्षेत्रों में पहले भी ण ध्वनि उच्चारण के स्तर पर न में सम्मिलित थी। पैशाची प्राकृत तथा धम्मपद की प्राकृत में न ध्वनि सुरक्षित है। अतः सभी प्राकृतों में जो न का ण किया गया है वह अति प्राकृतीकरण का नियमानुकूल प्रयास है,लोक में वस्तुस्थिति ऐसी नहीं थीं। शौरसेनी वर्ग की भाषाओं में आज भी (मुख्यतः कौरवी में) ण ध्वनि की प्रधानता है। अन्य प्राकृतों पर शौरसेनी का प्रभाव भी माना जा सकता है।
  4. प्राकृतों में वर्ग के प्रथम और तृतीय वर्ण दो स्वरों के मध्य में आने पर लुप्त हो गए या उनका स्थान किसी अन्य व्यंजन ने ले लिया। महाप्राण व्यंजनों के स्थान पर ह हो गया। व्यंजनों का क्रमिक रूपान्तर इस प्रकार हैं-

दो स्वरों के मध्य से क, ग,च, ज, त, द, लुप्त हो गए-

जैसे- मकर >मअर, गगन >गण, राजा>राआ, तातः >ताओ। क, ख, घ, थ, ध, म के स्थान पर ह हुआ। जैसे—मुख>मुह, मेघ>मेह

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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