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भक्ति आन्दोलन और तुलसीदास | तुलसीदास की समन्वय-साधना

भक्ति आन्दोलन और तुलसीदास | तुलसीदास की समन्वय-साधना

भक्ति आन्दोलन और तुलसीदास

मेरे प्रिय कवि (लोक कवि तुलसीदास)-

मैं यह तो नहीं कहता कि मैंने बहुत अधिक अध्ययन किया है; तथापि भक्तिकालीन कवियों में कबीर, सूर और तुलसी तथा आधुनिक कवियों में प्रसाद, पन्त और महादेवी के काव्य का आस्वादन अवश्य किया है। इन सभी कवियों के काव्य का अध्ययन करते समय तुलसी के काव्य की अलौकिकता के समक्ष मैं सदैव नत-मस्तक होता रहा हूँ। उनकी भक्ति-भावना, समन्वयात्मक दृष्टिकोण तथा काव्य-सौष्ठव ने मुझे स्वाभाविक रूप से आकृष्ट किया है।

जन्म की परिस्थितियाँ-

तुलसीदास का जन्म ऐसी विषम परिस्थितियों में हुआ, जब हिन्दू समाज अशक्त होकर विदेशी चंगुल में फंस चुका था। हिन्दू समाज की संस्कृति और सभ्यता प्रायः विनष्ट हो चुकी थी और कहीं कोई उचित आदर्श नहीं था। इस युग में जहाँ एक ओर मन्दिरों का विध्वंस किया गया, ग्रामों व नगरों का विनाश हुआ, वहीं संस्कारों की भ्रष्टता भी चरम सीमा पर पहुंची। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जा रहा था। सर्वत्र धार्मिक विषमताओं का ताण्डव नृत्य हो रहा था और विभिन्न सम्प्रदायों ने अपनी-अपनी डफली, अपना- अपना राग अलापना आरम्भ कर दिया था। ऐसी परिस्थिति में भोली-भाली जनता यह समझने में असमर्थ थी कि वह किस सम्प्रदाय का आश्रय ले। उस समय की दिग्भ्रमित जनता को ऐसे नाविक की आवश्यकता थी, जो उसकी जीवन-नौका की पतवार को संभाल ले।

तुलसीदास : एक लोकनायक के रूप में-

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कथन है कि ‘लोकनायक वही हो सकता है, जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियां, साधनाएं, जातियाँ, आचार-निष्ठा और विचार-पद्धतियाँ प्रचलित हैं। भगवान् बुद्ध समन्वयकारी थे, ‘गीता’ ने समन्वय की चेष्टा की और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।’

तुलसी के राम-

तुलसी उन राम के उपासक थे, जी सच्चिदानन्द परमब्रह्म हैं, जिन्होंने भूमि का भार हरण करने के लिए पृथ्वी पर अवतार लिया था-

जब-जब होई धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥

तब-तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

तुलसीदास की निष्काम भक्ति-

भावना-सच्ची भक्ति वही है, जिसमें आदान-प्रदान का भाव नहीं होता है। भक्त के लिए भक्ति का आनन्द ही उसका फल है। तुलसी के अनुसार-

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुबीर।

अस बिचारि रघुबंसमनि, हरहु बिषम भव भीर।।

तुलसीदास की समन्वय-साधना-

तुलसी के काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता उसमें निहित समन्वय की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति के कारण ही वे वास्तविक अर्थों में लोकनायक कहलाए। उनके काव्य में समन्वय के निम्नलिखित रूप दृष्टिगत होते हैं-

(क) सगुण-निर्गुण का समन्वय-

ईश्वर के सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों से सम्बन्धित विवाद दर्शन एवं भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में प्रचलित रहे हैं, इस पर तुलसीदास ने कहा-

सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

(ख) कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का समन्वय-

तुलसी भक्ति मनुष्य को संसार से विमुख करके अकर्मण्य बनानेवाली नहीं है, उनकी भक्ति तो सत्कर्म की प्रबल प्रेरणा देनेवाली है। उनका सिद्धान्त है कि राम के समान आचरण करो, रावण के सदृश दुष्कर्म नहीं। जो जैसा करता है, वैसा ही फल भोगता है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने सद्कर्म करने पर बल दिया है-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा।

जो जस करई सो तस फल चाखा।

(ग) युगधर्म-समन्वय-

भक्ति की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार के बाह्य तथा आन्तरिक साधनों की आवश्यकता होती है। ये साधन प्रत्येक युग के अनुसार बदलते रहते हैं और इन्हीं को तुलसी ने इनका भी विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया है-

कृतजुग त्रेता द्वापर, पूजा मख अरु जोग।

जो गति होइ सो कलि हरि, नाम ते पावहिं लोग।

(घ) साहित्यिक समन्वय-

साहित्यिक क्षेत्र में भाषा, छन्द, रस एवं अलंकार आदि की दृष्टि से भी तुलसी ने अनुपम समन्वय स्थापित किया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में विभिन्न भाषाएँ विद्यमान थीं। विभिन्न छन्दों में रचनाएं की जाती थीं। तुलसी ने अपने काव्य में संस्कृत, अवधी तथा ब्रजभाषा का अद्भुत समन्वय किया।

तुलसी के दार्शनिक विचार-

तुलसी ने किसी विशेष वाद को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने वैष्णव धर्म को इतना व्यापक रूप प्रदान किया कि उसके अन्तर्गत शैव, शाक्त और पुष्टिमार्गी भी सरलता से समाविष्ट हो गए। वस्तुतः तुलसी भक्त हैं और इसी आधार पर वह अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। उनकी भक्ति सेवक-सेव्य भाव की है। वे स्वयं को राम का सेवक और राम को अपना स्वामी मानते हैं।

तुलसीकृत रचनाएँ-

तुलसी के 12 ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। ये ग्रन्थ हैं-‘श्रीरामचरितमानस’, ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली’, ‘कवितावली’, ‘दोहावली’, ‘रामललानहछु’, ‘पार्वतीमंगल’, ‘जानकीमंगल’, ‘बरवै रामायण’, ‘वैराग्य संदीपनी’, ‘श्रीकृष्णगीतावली’ तथा ‘रामाज्ञाप्रश्नावली’। तुलसी की ये रचनाएँ विश्व-साहित्य की अनुपम निधि हैं।

उपसंहार-

तुलसी ने अपने युग और भविष्य, स्वदेश और विश्व तथा व्यक्ति और समाज आदि सभी के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। तुलसी को आधुनिक दृष्टि ही नहीं, प्रत्येक युग की दृष्टि मूल्यवान् मानेगी; क्योंकि मणि की चमक अन्दर से आती है, बाहर से नहीं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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