वर्तमान भारतीय समाज की प्रकृति व स्वरूप | भारतीय समाज की प्रकृति | भारतीय समाज का स्वरूप

वर्तमान भारतीय समाज की प्रकृति व स्वरूप | भारतीय समाज की प्रकृति | भारतीय समाज का स्वरूप
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पश्चिमी देशों के साथ हिन्दू परम्परा का सम्पर्क एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रघटना हैं। पश्चिमी देशों में समानता, स्वतन्त्रता और वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकीय दृष्टि बहुत ताकतवर थी। इसका प्रभाव भारतीय समाज पर भी पड़ा। पहली बार लगा कि जातियों की उच्चीय व्यवस्था पर फिर से विचार करना पड़ेगा। इतिहासकारों ने पश्चिम के भारतीय समाज पर पड़ने वराले इस प्रभाव को बड़े विस्तृत रूप में रखा है। यहाँ हम इसे बिन्दु रूप में इस भाँति प्रस्तुत करेंगे-
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अंग्रेजी शिक्षा का सूत्रपात-
ब्रिटिश सरकार के आने से पहले, यहाँ राजकाज चलाने के लिए फारसी, संस्कृत, उर्दू और स्थानीय बोलियाँ थी। पहली बार मेकाले ने अंग्रेजी शिक्षा और भाषा का बढ़ावा देने के लिए सन् 1835 में शिक्षा नीति को तय किया। इस नीति में यह प्रस्तावित किया गया कि अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाये, शिक्षा के प्रसार में ईसाई मिशनों को एक निश्चित भूमिका दी जाये । सन् 1882 में प्रथम शिक्षा आयोग ब्रिटिश काल में बनाया गया। इस नीति के अन्तर्गत उच्च शिक्षा पर अधिक बल दिया गया। इधर दूसरी और प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर शिक्षा की अवहेलना की गयी।
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संचार का जाल-
सतीश सबरवाल का कहना है कि ब्रिटिश सरकार ने सचार साधनीं का विस्तार कई तरह से किया। सूचना और विचारों का सम्प्रेषण करने के लिये छापाखाने स्थापित किये गये। तार और टेलीफोन की व्यवस्था की गयी और आवागमन के साधनों में रेलगाड़ी का सूत्रपात किया गया। परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण ब्रिटिश राज में नये समाचार पत्र और पत्रिकाएं विशेषकर क्षेत्रीय भाषाओं में प्रारम्भ की गयीं ब्रिटिश शासन ने ही डाक सेवाएँ, चलचित्र और रेडियो आदि प्रारम्भ किये। इन नई युक्तियों ने जाति, पवित्र-अपवित्र की अवधारणाओं पर कुठाराघात किया। अब लोगों को लगने लगा कि जीवन में गतिशीलता भी कोई महत्व रखती है।
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विचारों में क्रान्ति-
सतीश सबरवाल जब ब्रिटिश काल में होने वाले प्रभावों का विश्लेषण करते हैं तो कहते हैं कि इस काल में बहुत बड़ा उथल-पुथल विचारों के क्षेत्र में आया। अब लोग फ्रांसीसी क्रान्ति के स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व के मुहावरों की समझने लगे। अंग्रेजी भाषा ने भारतीय समाज को पश्चिमी देशों के रू-ब-रू कर दिया। अब शिक्षण संस्थाओं ने विचारों के क्षेत्र में बहुत बड़ा परिवर्तन खड़ा कर दिया।
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नई दण्ड संहिता-
अंग्रेजी शासन ने एक और परिवर्तन भारतीय दण्ड संहिता (Indian Panel Code) के माध्यम से किया। उपेन्द्र बक्षी ने भारत में कानून के समाज शास्त्र का विधिवत् विश्लेषण किया है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी के आने से पहले यहाँ शास्त्रीय हिन्दू विधि (Classical Hindu Law) काम करती थी। अंग्रेजी ने इस विधि में परिवर्तन किया। देश की विभिन्न जातियों के जातिगत नियमों को उन्होंने शास्त्रियों और पण्डितों की सलाह पर कानूनी जामा पहनाया। रुडोल्फ और रुडोल्फ का कहना है कि अंग्रेजों ने बड़े व्यवस्थित रूप से हिन्दुओं और मुसलमानों के जातीय रिवाजों पर भारतीय दण्ड संहिता को बनाया। तब इसे ताजीरात हिन्द कहते थे। इस दण्ड संहिता ने कम से कम ब्रिटिश भारत को कानून की दृष्टि से एक सूत्र में बांध दिया। पहली बार कानून की दृष्टि में भारत के सभी लोग समान हो गये। इस नीति के अनुसार ब्रिटिश शासन ने एक पृथक न्यायपालिका, न्यायालय बनाये और पहली बार विवाह, परिवार, तलाक, दत्तक ग्रहण, सम्पत्ति हस्तान्तरण, अल्पसंख्यक, भूमि अधिकार, लेन-देन, व्यापार, उद्योग और श्रम आदि के बारे में नये कानून लागू किये। यह कानून सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत पर समान रूप से लगता था।
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नगरीकरण और औद्योगीकरण-
यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति लगभग 1 8वीं शताब्दी में आयी। भारत में औद्योगीकरण ब्रिटिश शासन के माध्यम से ही आया। औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरीकरण भी आया। देखा जाये तो ये दोनों प्रक्रियाएँ -नगरीकरण और औद्योगीकरण एक-दूसरे की पूरक और पारस्परिक है। विकसित देशों की तुलना में भारत में नगरीकरण एक धीमी प्रक्रिया है। यह होते हुए भी नगरों की जनसंख्या में वृद्धि हुई है। आज स्थिति यह है कि अधिकांश सुख-सुविधाएँ नगरों में केन्द्रित हैं। परिणाम यह हुआ है कि नगरीकरण का फैलाव सम्पूर्ण देश में असमान रहा है।
औद्योगीकरण भी गैर बराबर रहा है। कुछ राज्य तो औद्योगिक दृष्टि से विकसित हैं- इन राज्यों में पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा कर्नाटक अग्रणी हैं। इधर दूसरी ओर कुछ राज्य जैसे कि बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान जिन्हें कभी-कभी बीमारू राज्य कहते है, औद्योगिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं। रिचार्ड लैम्बार्ट, मिल्टन सिंगर और एन० आरo सेठ के अध्ययनों से पता चलता है कि जाति, संयुक्त परिवार और अन्य परम्परागत मूल्य,कारखाना और औद्योगिक संगठनों में सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप प्रतिरूप में बाधित नहीं हुए हैं।
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राष्ट्रीयता के विकास में वृद्धि-
अंग्रेजी हुकूमत के समय में भारत में राष्ट्रीयता की एक नई लहर आयी। यह ठीक है कि अंग्रेज हमारे ऊपर उपनिवेशवादी शासन लादने में सफल हो गये। लेकिन उनके सम्पर्क ने हमें स्वतन्त्रता व समानता के विचार भी दिये। यद्यपि आजादी की लड़ाई हमने स्वयं लड़ी लेकिन इसमें अंग्रेजों का योगदान भी कोई कम नहीं था। उपनिवेशवादी हुकूमत की यह विशेषता थी कि वह हमारे जातीय मामलों में दखल नहीं देता था फिर भी उन्होंने कहीं-कहीं यह साहस दिखाया और हमारे रीति-रिवाजों पर अंकुश लगाया। उदाहरण के लिये हमारे यहाँ सती-प्रथा थी। राजा राममोहन, राय जैसे व्यक्तियों ने इस प्रथा की खण्डन किया और यह भी सही है कि सती प्रथा का रिवाज केवल उत्तरी भारत में था और वह भी ऊँचे परिवारों और राजकीय घरानों में दक्षिण में तो इस प्रथा का नामोनिशान नहीं था। फिर भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इसमें हस्तक्षेप किया और इसके लिये कानून भी बनाया।
आजादी की लड़ाई एक अनोखी लड़ाई थी। इसमें विभिन्न जातियों-पुरुष स्त्रियों और विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों ने पूरी ताकत के साथ अंग्रेजी शासन का मुकाबला किया। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश परम्परा के अनेक मानवतावादी तत्वों को अपनाया और उनको राष्ट्रीय भावनाओं और राजनैतिक चेतना को उभारने के लिये उपयोग में लिया। हमारी इस लड़ाई में यूरोप की विचारधारा ने बड़ा सहयोग दिया।
उपसंहार (Conclusion)- समकालीन भारतीय समाज को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में समझना बहुत आवश्यक है। यह समाज कोई 5000 वर्ष पुराना है। आयों से लेकर यानी धार्मिक समाज की जड़ों पर विकसित होता हुआ यह समाज आज एक सार्वभौम, प्रजातान्त्रिक, समाजवादी और धर्म निरपेक्ष राष्ट्रीय समाज है। इसे बनामे में कई संस्कृतियों ने योगदान दिया है। इसकी बहुत बड़ी विशेषता इसकी निरन्तरता है। इसकी सभ्यता में इतिहास की चादर में कई सलवटे आयीं, उतार-चढ़ाव आये फिर भी यह आज बराबर बना हुआ है। जिसे हम परम्परा से हिन्दू समाज कहते हैं वह आज एक धर्म निरपेक्ष समाज है। मतलब हुआ राज्य का धर्म से कोई सरोकार नहीं है। उसके सामने सभी धर्म समान है। इस समाज की परम्परागत संरचना में एक और विशेषता इसके कर्मकाण्ड यानि रीति-रिवाज हैं। अब भी यह समझा जाता है कि कर्मकाण्डों की अध्यक्षता ब्राह्मण ही करेंगे।
समकालीन भारत, आज जैसा भी है एक बहुत बड़े इतिहास के दौर से गुजर कर आया है। इसकी व्याख्या हमें इन्हीं ऐतिहासिक कारकों और अव्वाचीन प्रक्रियाओं के संदर्भ में करनी चाहिये। ऐसा करने में हमें यह भी याद रखना है कि आज इस समाज को हमें राष्ट्रीय बनाना है। राष्ट्रीय समाज ऐसा, जिसमें विभिन्न संस्कृतियों का समावेश हो सके। यह एक सांझा समाज है।
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