भूगोल / Geography

निश्चयवाद एवं नवनिश्चयवाद की संकल्पना | निश्चयवाद की संकल्पना | नवनिश्चयवाद की संकल्पना | निश्चयवाद और नवनिश्चयवाद की संकल्पनाओं की आलोचनात्मक व्याख्या

निश्चयवाद एवं नवनिश्चयवाद की संकल्पना | निश्चयवाद की संकल्पना | नवनिश्चयवाद की संकल्पना | निश्चयवाद और नवनिश्चयवाद की संकल्पनाओं की आलोचनात्मक व्याख्या

निश्चयवाद एवं नवनिश्चयवाद की संकल्पना

भूगोल में मानव और वातावरण के सम्बन्धों का विचार तो प्राचीन काल से होता रहा है, परन्तु 19वीं शताब्दी में जर्मन में इस पक्ष पर गहन अध्ययन तथा चिन्तन हुआ, जिसमें वातावरण को सर्व-प्रमुख माना गया। बीवसीं शताब्दी के प्रारम्भिक 35 वरों में इस विचारधारा में फांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने मानवीय पक्ष को प्रधनता दे दी। उसके बाद अमेरिका तथा ब्रिटिश भूगोलवेनाओं ने दोनों पक्षों का समन्वय कर दिया है। इस प्रकार मानव-वातावरण सम्बन्ध पर निम्नांकित तीन विचारधाराओं या संकल्पनाओं का प्रतिपादन हुआ है-

(1) नियतिवाद या निश्चयवाद (Determinism) – जर्मन विचारकों द्वारा,

(2) सम्भववाद (Possibilism)- फ्रांसीसी विचारकों द्वारा, एवं

(3) जव-नियतिवाद (Neo-determinism)- अमेरिकन तथा ब्रिटिश विचारको दाग

नियतिवाद या निश्चयवाद (Determinism)

नियतिवादी संकल्पना के अनुसार प्राकृतिक वातावरण सर्वशक्तिमान है तथा उसका प्रभाव किसी-न-किसी रूप में मानव के क्रियाकलापों पर अवश्य पड़ता है। इस विचारधारा में मानव को भूतल की उपज माना गया है।

किसी भी क्षेत्र में मानव की आकृति, भोजन, वस्त्र, मकान, अर्थव्यवस्था, उद्योग, संस्कृति, धर्म, सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था आदि वातावरण से ही निर्धारित होते है। इसीलिए इसे वातावरणवाद (Environmentalism) भी कहा जाता है।

प्राचीन ग्रीक भूगोलवेत्ता हिप्पोक्रेटीज (Hipoocrates 420ई. पू.) ने अपनी पुस्तक ‘वायु, जल और स्थान’ (On Airs, Waters and Places) में लिखा है, “यदि कोई व्यक्ति स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन करना चाहता है तो उसे सर्वप्रथम मौसम का अध्ययन करना चाहिए, उसे ठण्डी व गर्म हवाओं के प्रभाव तथा जल के गुण- धर्म का निरीक्षण करना चाहिए।” अरस्तु (Aristotle) के अनुसार मानव की प्रवृत्तियाँ वातावरण की. देन हैं। उसके मत में ‘ठण्डे देशों में रहने वाले लोग बहादुर होते हैं, परन्तु उनमें पड़ोसी देशों पर राज्य करने की क्षमता नहीं होती क्योंकि उनमें राजनैतिक संगठन नहीं होता। एशिया की गर्म जलवायु में रहने वाले लोग कम साहसी या गुलाम प्रवृत्ति के होते हैं।’

हेरोडॉटस (Herodotus) ने मिस्र में संस्कृति एवं सभ्यता के विकास का श्रेय वहाँ की उपजाऊ मिट्टी, नील नदी का जल, स्वच्छ आकाश आदि प्राकृतिक तत्वों को दिया है जिनके फलस्वरूप अन्य मरुस्थलीय भागों की अपेक्षा यहाँ पर सभ्यता का अधिक विकास हुआ। इसी प्रकार अरस्तु ने भी अपनी रचना ‘राजनीति’ में प्राकृतिक तथ्यों का प्रभाव मनुष्य के मानसिक एवं भौतिक गुणों पर बतलाया है। इन्होंने यह व्यक्त किया कि यूरोप की ठण्डी जलवायु में व्यक्ति बहादुर होते हैं। किन्तु तकनीकि चातुर्य एवं विचारों का उनमें अभाव होता है। जबकि एशिया की गर्म जलवायु के लोग विचारशील एवं चतुर होते हैं।

रोमन भूगोलवेत्ता स्ट्रैबो (Sterbo) ने भी यह माना है कि वातावरणीय कारक भू- उच्चावच, जलवायु, मिट्टी, वनस्पति आदि मनुष्य की क्रियाओं को प्रभावी व नियन्त्रित करते हैं। उसने बताया कि शीत प्रदेशों के लोग हष्ट-पुष्ट, साहसी और सच्चे होते हैं, जबकि उष्ण क्षेत्रों में रहने वाले लोग आलसी, कमजोर, चालाक तथा कामुक होते हैं।

अरब भूगोलशास्त्रियों ने मानव पर जलवा के प्रभाव की व्याख्या की। उनके मतानुसार विभिन्न जलवायु प्रदेशों में रहने वाले लोगों का शारीरिक गठन, रहन-सहन और उद्यम भित्र-भिन्न होते हैं। उनका मत था कि जिन स्थानों पर पानी की अधिकता होती है वहाँ के लोग प्रसन्न चित्त और जिन स्थानों पर शुष्कता होती है वहाँ के लोग क्रोधी होते हैं। इन्होंने यह भी बताया कि खानाबदोश (Nomads) लोग सदैव खुले वातावरण में रहने के कारण शक्तिशाली, बुद्धिमान और दृढ़प्रतिज्ञ होते हैं।

बकल (Buckle) ने अपनी पुस्तक ‘इंग्लैण्ड की सभ्यता का विकास’ (Evolution of British Civilizations, 1857) में लिखा कि प्राकृतिक जलवायु भोजन, मिट्टी, समुद्र, वनस्पति आदि की अनुकूलता के कारण ही इंग्लैण्ड के लोग साहसी, परिश्रमी और राष्ट्रीयता के समर्थक हैं। इनके अनुसार जलवायु, मिट्टी एवं भोजन तीन ऐसे प्रमुख तत्व हैं जो मनुष्य में विभिन्न विचारों को उत्पन्न करते हैं जिससे एक क्षेत्रीय विशिष्टता या एक क्षेत्रीय गुण निर्धारित होता है।

हैकल (Haeckel, 1867) ने नियतिवाद की इस विचारधारा को और आगे बढ़ाया तथा ‘परिस्थिति विज्ञान’ को जन्म दिया। उसने मनुष्य को अन्य जीवों की तरह माना है, जिस प्रकार अन्य जीव अपने वातावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं, मनुष्य भी अपने वातावरण से अनुकूलन एवं घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है। डीमोलिन्स (,1882) ने भी विस्तापूर्वक स्पष्ट किया कि मानव समाज के सभी आर्थिक और सांस्कृतिक कार्य वातावरण से सम्बन्धित होते हैं।

हम्बोल्ट (Humboldt) ने प्राकृतिक शक्तियों के प्रभावों को मानव जातियों के शारीरिक लक्षण, उनके रहन-सहन विचार तथा क्रियाकलाप आदि पर स्पष्टतः प्रदर्शित किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक कॉसमॉस (Cosmos) में लिखा है कि फीनिशिया (Phoenicia) और यूनान के लोग समुद्र की समीपता के कारण समुद्री यात्रा करने में निर्भीक हो गये और उन्होंने समीपस्थ देशों में ज्ञान का प्रसार किया। उन्होंने यह भी लिखा है कि अरव मरुस्थल के लोगों ने सदैव मेघरहित स्वच्छ देखा है। इसलिए उन्हें आकाश में ग्रह नक्षत्रों को देखने व अध्ययन की तीव्र इच्छा हुई।

रिटर (Ritter) ने मानव केन्द्रित भूगोल की विचारधारा में मनुष्य और प्रकृति की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं का महत्व बताया। उसके मत में यूरोप महाद्वीप की कटी-फटी तट रेखा के कारण ही यहाँ के लोग कुशल नाविक बने और उन्होंने नये देशों की खोज की।

रैटजेल (Ratzel) प्रथम भूगोलशास्त्री था, जिसने स्पष्टतः निश्चयवाद की व्याख्या की। इसलिए आधुनिक युग में रैटजेल को ही निश्चयवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादक माना जाता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Anthropo Geography में बताया कि पृथ्वी पर मनुष्य (जनसंख्या) का वितरण प्राकृतिक वातावरण का ही परिणाम है। उसके अनुसार मनुष्य कठोर वातावरण में रहकर भी अपना अनुकूलन करता है। वह यह भी कहता है कि मनुष्य स्वयं वातावरण की ही उपज है और इसलिए वह वातावरण के प्रतिकूल कोई कम नहीं कर सकता। रैटजेल का यह भी विचार था कि मनुष्य ने अन्य जीव-जन्तुओं की भाँति वातावरण से समायोजन कर विकास किया है।

अमेरिकन भूगोलशास्त्री ई. सी. सेम्पल (E. C. Semple) ने जो रैटजेल की शिष्या थी, नियतिवाद को चरम सीमा तक पहुँचा दिया। उसके अनुसार “मनुष्य इस भूतल की उपज है।….. यह पृथ्वी उस मनुष्य की हड्डियों, मांस, मस्तिष्क और आत्मा में प्रवेश कर गयी है।”

हंटिंगटन (Ellsworth Huntington) महोदय भी इसी संकल्पना के पोषक थे। अपनी पुस्तक मानवभूगोल के सिद्धान्त (Principles of Human Geography) में उन्होंने मानव के प्रत्येक पक्ष, शारीरिक गठन, मानसिक व वैचारिक पक्ष, क्रिया-कलापों तथा गुणों को भी प्रकृति की देन माना है। इनमें भिन्नताएँ वातावरण की भिन्नता के अनुसार उत्पन्न होती हैं।

नियतिवाद की आलोचना

यद्यपि प्राचीन विद्वानों ने प्रकृति की अनन्य शक्ति को ही सर्वोपरि माना, परन्तु आज मनुष्य ने वैज्ञानिक और तकनीकि विकास कर लिया है। नई तकनीकों व उपकरणों की सहायता से उसने प्राकृतिक वातावरण में अभूतपूर्व परिवर्तन किये हैं। यही कारण है कि बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से ही नियतिवादी विचार की कड़ी आलोचनाएँ की गयीं।

(1) पृथ्वी के अनेक भागों में देखा गया कि समान वातावरण में रहने वाले विविध मानव समूहों में समान प्रतिक्रियाएँ जाग्रत नहीं होतीं। टुण्ड्रा की समान भौतिक दशाओं में भी उत्तरी कनाडा तथा साइबेरिया में इनके निवासी एस्किमो, लैप्स तथा सेमोयाड्स लोगों की आर्थिक और सांस्कृतिक दशाओं में भिन्नता पायी जाती है।

(2) विद्वानों का मत है कि केवल वातावरण की शक्तियों को सर्वशक्तिमान मान लेना मानव सभ्यता के गौरवपूर्ण इतिहास की अवमानना होगी। कनाडा व साइबेरिया के शीतल भू- भाग में कृषि का विस्तार, शुष्क मरुक्षेत्रों में सिंचाई सुविधाओं के विकास से हरे-भरे खेतों का निर्माण, शीघ्रगामी वायुयानों व जलयानों द्वारा एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में कुछ ही घण्टों में पहुँच जाना आदि मानव की शक्ति संगठन व वौद्धिक क्षमता के कुछ उदाहरण हैं। स्वयं कुछ नियतिवादी विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि ‘मानव स्वेच्छा’ से प्राकृतिक प्रभावों की अवहेलना कर सकता है। किरचॉफ ने स्पष्ट कहा है कि, “मनुष्य अपनी इच्छाशक्ति रहित कोई स्वचालित मशीन नहीं है।”

(3) ज्यों-ज्यों एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज की रचना होती है, उस पर वातावरण का प्रभाव कम होता जाता है। नगरों, उद्योगों आदि का विकास भौतिक वातावरण की अपेक्षा मानवीय कारकों पर ही निर्भर होता है। डेट्रायट (सं.रा.अ.) में मोटरगाड़ी निर्माण उद्योग या रसायन उद्योग की स्थापना भौतिक वातावरण के कारण नहीं हुई है, बल्कि मानवीय पसन्द या चयन के कारण हुई है।

नव-नियतिवाद (Neo-Determinism)

मानव एवं वातावरण के यह सम्बन्धों को पूरी तरह समझाने में नियतिवाद और सम्भवाद दोनों असफल रहे। इसलिए वर्तमान शताब्दी में कुछ भूगोलवेत्ताओं ने एक नई विचारधारा को जन्म दिया, जिसे नव-नियतिवाद कहते हैं। इस संकल्पना में नियतिवाद तथा सम्भववाद का समन्वय मिलता है। इस विचारधारा के अनुसार मनुष्य को प्रकृति के नियमों का अनुसरण करना ही पड़ता है, किन्तु मनुष्य वातावरण के तत्वों के उपयोग के लिए स्वतन्त्र है। वह वातावरण के साथ समायोजना या वातावरण में रूपान्तरण भी कर सकता है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थक अमरीकी भूगोलवेत्ता ग्रिफिथ टेलर एवं कार्ल सावर, रूसी भूगोलवेत्ता डोकुचायेब तथा ब्रिटिश मानव विज्ञानी हर्बर्टसन, रॉक्सबी, पल्यूर आदि हैं।

सर्वप्रथम ग्रिफिथ टेलर (Grifith Taylor) ने नियतिवादी विचारधारा में संशोधन कर इस नयी विचारधारा का सूत्रपात किया। उसका मत था कि अतिवादी नियतिवाद (Crude determinisms) को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। मनुष्य पूरी तरह प्रकृति के अधीन नहीं है। वह अपने बुद्धि, बल, पराक्रम से प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन करता रहता है। उसमें से अपने उपयोग की वस्तुएँ छाँट लेता है। साथ ही यह भी सत्य है कि मनुष्य पूरी तरह प्रकृति का विरोध करके अपना अस्तित्व बनाए रखे उसके लिए उसे प्रकृति के शाश्वत नियमों को स्वीकार करना होगा।

टेलर का मत है कि मनुष्य एवं प्रकृति की प्रक्रियाएँ पारस्परिक हैं। दोनों ही तत्व गतिज (Dynamic) हैं। दोनों परिवर्तनशील हैं तथा एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। मनुष्य को वातावरण के साथ समायोजन (Adjustment) करना पड़ता है। टेलर का विश्वास था कि किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत पड़ती है, जिन्हें प्रकृति ने निर्धारित कर दिया है। यह भूगोलवेत्ताओं का काम है कि उनके अनुकूल उपयोग का मार्ग सुझाएं और विकास की गति को तीव्र करें।

ठीक उसी प्रकार मनुष्य को प्राकृतिक वातावरण द्वारा दी गयी अनेक सम्भावनाओं से अपने लिए सबसे उपयोगी सम्भावित मार्ग का चुनाव करना पड़ता है। टेलर ने इसे रुको और जाओ नियतिवाद (Stop and Go Determinism) की संज्ञा प्रदान की।

स्पेट (O.H.K. Spate) ने भी इस विचारधारा का समर्थन किया है। उसके अनुसार यह नियतिवाद और असम्भववाद के बीच का मार्ग है। स्पेट ने इसे सम्भाव्यवाद (Probabilism) कहा है। वूलरिज (Wooldridge) ने इसे वैज्ञानिक नियतिवाद (Scientific Determinism) कहा है क्योंकि मनुष्य को अपनी बुद्धि व कार्यक्षमता के अनुसार वैज्ञानिक ढंग से वातावरण के अनुकूल काम करना पड़ता है। रसेल स्मिथ (Russel Smith) का मत है कि, “मानव पृथ्वी का केवल निवासी ही नहीं है, वरन् वह एक सृजनकर्ता, भौगोलिक प्रतिनिधि तथा पृथ्वी को परिवर्तन करने वाला भी है।”

फ्ल्यूर ने पृथ्वी पर मानवीय प्रदेशों (Human regions) का वर्णन किया है। यद्यपि मानवीय प्रदेश जलवायु और पर्वतों की सीमाओं को भी लांघ देते हैं, परन्तु इनके अध्ययन में भौतिक प्रदेश की शक्तियों को एकदम भुलाया नहीं जा सकता है। फ्ल्यूर के मानवीय प्रदेश वे मुख्य क्षेत्र हैं, जहाँ मानव के प्रयत्न की छाप उस प्रदेश पर बिल्कुल स्पष्ट होती है। संसार में ऐसे मानवीय क्षत्रों की सीमा निर्धारित करने में फ्ल्यूर ने मानवीय प्रयत्न के संचित प्रभावों (Cumulative. effects) का दीर्घकालीन विचार किया था जो मानव के वातावरण समायोजन (Environmental adjustment) का प्रतिफल कहा जा सकता है। समाज तथा वातावरण पर फ्ल्यूर ने एक पुस्तक “समाज की समस्याएं एवं वातावरण” (Problems of Society and Environment, 1948) भी लिखी।

इस प्रकार नव-नियतिवाद भूगोल की वह विचारधारा है, जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्य अपनी बुद्धि, शक्ति, आवश्यकता, कार्यक्षमता आदि के अनुसार प्रकृति द्वारा निश्चित की गयी सीमाओं में, प्राकृतिक वातावरण का रूपान्तरण करता है और उससे समायोजन करता है। अमरीकी भूगोलशास्त्री हंटिंग्टन नियंतिवाद तथा कार्ल सावर सम्भववाद के समर्थक हैं। फिर भी इन विद्वानों ने आधुनिक युग के नव-नियतिवाद को मानते हुए वातावरण एवं मानव के मध्य समायोजन को महत्व प्रदान किया है। वर्तमान में यह विचारधारा सर्वाधिक ग्राह्य है।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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