शिक्षाशास्त्र / Education

आदर्शवाद में शिक्षा के उद्देश्य | आदर्शवाद में शिक्षा के सम्प्रत्यय

आदर्शवाद में शिक्षा के उद्देश्य
आदर्शवाद में शिक्षा के उद्देश्य

आदर्शवाद में शिक्षा के उद्देश्य | आदर्शवाद में शिक्षा के सम्प्रत्यय |

आदर्शवाद में शिक्षा के सम्प्रत्यय तथा शिक्षा के उद्देश्य का विवरण दीजिए।

आदर्शवाद ने शिक्षा को बहुत प्रभावित किया है। इस बीच संसार में अनेक परिवर्तन हुए हैं, अनेक विचारधाराओं ने जन्म लिया है और उन्होंने शिक्षा पर अपना-अपना प्रभाव भी डाला है, लेकिन आज भी शिक्षा किसी न किसी रूप में आदर्शवाद से प्रभावित है। यहाँ आदर्शवादी शिक्षा का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।

शिक्षा का सम्प्रत्यय-

आदर्शवादी शिक्षा को ज्ञान और प्रक्रिया दोनों रूपों में स्वीकार करते हैं प्राचीन आदर्शवादी प्रायः शिक्षा और ज्ञान में भेद नहीं करते थे। प्लेटो के अनुसार- शिक्षा का कार्य मनुष्य के शरीर और आत्मा को वह पूर्णता करना है जिसके कि वे योग्य हैं। (Education consists in giving to the body and soul all the perfection of which they are susceptible. -Plato)

परन्तु आधुनिक युग के आदर्शवादी शिक्षा को प्रक्रिया रूप में स्वीकार करते हैं। जर्मन शिक्षाशास्त्री हरबाट के अनुसार- शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सद्गुणों की प्राप्ति होती है (Education is the process of attaining virtues-Herbart)

आदर्शवाद में शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा के उद्देश्य-अन्तिम उददेश्य आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का जानना- आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मा-परमात्मा के चरम स्वरूप को जानना है, इसी को आत्मानुभूति, आदर्श व्यक्तित्व की प्राप्ति, ईश्वर की प्राप्ति, आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति अथवा परम आनन्द की प्राप्ति कहा जाता है। अब प्रश्न उठता है। कि आत्मा-परमात्मा के चरम स्वरूप को कैसे जाना जा सकता है? आदर्शवादियों के अनुसार इसके लिए मनुष्य को चार सोपान पार करने होते हैं। प्रथम सोपान पर उसे अपना प्राकृतिक विकास करना होता है। इसके अंन्तर्गत मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक विकास आता है। दूसरे सोपान पर उसे अपना सामाजिक विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक एवं नागरिकता का विकास आता है। तीसरे सोपान पर उसे अपना बौद्धिक विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत विवेक शक्ति का विकास करुना होता है। और चौथे तथा अन्तिम सोपान पर उसे अपना आध्यात्मिक विकास करना होता है। इसके अन्तर्गत आध्यात्मिक चेतना का विकास आता है। आदर्शवादी इन्हं सबको शिक्षा के उद्देश्य निश्चित करते हैं। यहाँ इन पर थोड़ा विचार करना आवश्यक है। (आदर्शवाद में शिक्षा के उद्देश्य)

  1. शारीरिक एवं मानसिक विकास-

आदर्शवादी यह मानते हैं कि आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति के लिए सबसे पहले आवश्यकता मनुष्य के प्राकृतिक विकास की है इसलिए वे शिक्षा द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बल देते हैं। परन्तु शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए शारीरिक एवं मानसिक विकास की बात उन्हें मान्य नहीं है। उनके लिए शरीर और मन आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति का साधन है, स्वयं में साध्य नहीं। प्लेटो ने स्वयं अपनी अकादमी में बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बल दिया था परन्तु वे इसे शिक्षा का एक सहायक उद्देश्य मानते थे, मुख्य उद्देश्य नहीं । आज के आदर्शवादी भी इसी शिक्षा का सर्वप्रंथम उद्देश्य तो निश्चित करते हैं परन्तु उसे स्वीकार साधन के रूप में ही करते हैं।

  1. सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास-

आदर्शवादियों के अनुसार आध्यात्मिक पूर्णता की अनुभूति के मार्ग का दूसरा सोपान सामाजिक विकास है। सामाजिक विकास का अर्थ है मनुष्य समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का पालन करता है, उसकी पसन्द सामाजिक स्वीकृति-अस्वीकृति पर निर्भर करती है। इस स्तर पर मनुष्य अपने प्राकृतिक व्यवहार पर नियन्त्रण करता है। इसे ही आज समाजशास्त्रीय भाषा में सामाजिक विकास कहते हैं। आदर्शवादी यह बात मानते हैं कि मनुष्य की सबसे बड़ी विशेषता उसकी संस्कृति है; रहन-सहन एवं खान-पान की विधियाँ, रीति-रिवाज, भाषा, साहित्य, कला, संगीत, और मूल्य हैं। ये ही उसे प्राकृतिक से सामाजिक की ओर अग्रसर करते हैं और सामाजिक से आध्यात्मिक की ओर अग्रसर करते हैं। इसलिए वे शिक्षा द्वारा मनुष्य की संस्कृति के संरक्षण और विकास पर बल देते हैं और इसे शिक्षा का एक उद्देश्य निश्चित करते हैं। इंग्लेण्ड के सर टी० पी० नन तो इसे शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानते थे।

  1. नैतिक एवं चारित्रिक विकास-

आदर्शवादी मनुष्य के उच्च सामाजिक विकास के लिए उसके नैतिक एवं चारित्रिक विकास पर बल देते हैं। उनका स्पष्टीकरण है कि जब मनुष्य सामाजिक नियमों में आस्था रखता है और उनका पालन स्वेच्छा से करता है तब हम कहते हैं कि उसका नैतिक विकास हो गया है और जब किसी भी परिस्थिति में वह सद्मार्ग पर अडिग रहता है तो हम कहते हैं कि उसका चारित्रिक विकास हो गया है। प्लेटो व्यक्ति, समाज और राज्य सभी की दृष्टि से नैतिकता को परमावश्यक मानते थे। जर्मन शिक्षाशास्त्री हरबार्टतो नैतिक विकास को ही शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य मानते थे।

  1. राज्य के लिए विशेषज्ञों का निर्माण-

हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के विकास में एक उच्च सामाजिक जीवन का विकास किया है और उसकी समृचित व्यवस्था के लिए राज्य का विकास किया है। इस संश्लिष्ट समाज अथवा राज्य के अस्तित्व की रक्षा और उसके सचालन के लिए प्रत्येक समाज अथवा राज्य को विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। प्लेटो के अनुसार राज्य को सैनिक, व्यापारी, शासक और सेवक आदि सभी चाहिए। अत: शिक्षा का एक उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों के लिए विशेषज्ञों का निर्माण करना होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने निम्न बौद्धिक स्तर परन्तु शरीर से हृष्ट-पुष्ट व्यक्तियों के लिए सैनिक शिक्षा, उससे ऊँचे बौद्धिक स्तर के व्यक्तियों के लिए उत्पादन एवं उद्योग की शिक्षा, और उससे ऊँचे बौद्धिक स्तर के व्यक्तियों के लिए प्रशासनिक शिक्षा का विधान किया था।

  1. श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण-

प्लेटो, हीगल और फिश्टे आदि अनेक आदर्शवादी दार्शनिकों ने राज्य को सर्वोच्च सत्ता माना है। उनकी दृष्टि से शिक्षा का एक उद्देश्य राज्य के लिए श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करना होना चाहिए। श्रेष्ठ नागरिकों से उनका तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों से था जो राज्य के प्रति समर्पित होते हैं, राज्य के उत्थान के लिए सदैव तत्पर रहते हैं और राज्य हित के आगे अपने हित का त्याग करते हैं। यह वह स्थिति है जब व्यक्ति अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर परामर्श की ओर बढ़ता है। समाज और राज्य के हित को सामने रखकर कार्य करता है।

  1. बुद्धि एवं विवेक शक्ति का विकास-

आध्यात्मिक पूर्णतया की प्राप्ति का तीसरा सोपान है-बौद्धिक विकास। यह वह स्थिति है जब मनुष्य का व्यवहार सामाजिक स्वीकृति-अस्वीकृति अथवा राज्य के नियमों से नियन्त्रित न होकर उसकी अपनी बुद्धि एवं विवेक से नियन्त्रित होता है। प्लेटो का तर्क है कि मनुष्य की बुद्धि एवं विवेक उसके समस्त आदर्शों, कृत्यों और आध्यात्मिक चेष्टाओं का आधार होते हैं। उनका तर्क है कि बिना बुद्धि के ज्ञान नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के विवेक नहीं हो सकता और बिना विवेक के सत्य-असत्य, शिव-अशिव और सुन्दर-असुन्दर में भेद नहीं किया जा सकता और सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की प्राप्ति नहीं की जा सकती; अत: शिक्षा के द्वारा मनुष्य की बुद्धि एवं विवेक शक्ति का विकास किया जाना चाहिए। जर्मन दार्शनिक कान्ट तो सबसे अधिक बल मनुष्य के बौद्धिक विकास पर ही देते थे।

  1. आध्यात्मिक चेतना का विकास-

आध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के मार्ग का चौथा और अन्तिम सोपान है- आध्यात्मिक विकास। आदर्शवादियों का विश्वास है कि जब मनुष्य अपने प्राकृतिक एवं सामाजिक से ऊपर उठकर अपनी बुद्धि (Intellect) से नियन्त्रित होने लगता है तो वह धीरे-धीरे स्वतः आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करने लगता है। सुकरात (Socrates) इसे जीवन का मूल उद्देश्य मानते थे। उनके शिष्य प्लेटो (Plato) ने स्पष्ट किया कि मनुष्य की प्रवृत्ति सत्यं, शिवं और सुन्दरम् की ओर झुकी होती है, वह सदैव सत्य की खोज के लिए प्रयत्नशील रहता है और जो कल्याणकारी एवं सुन्दर है, उसको स्वीकार करता है और जो कल्याणकारी एवं सुन्दर नहीं है, उसका त्याग करता है। आदर्शवादी मनुष्य को इस प्रक्रिया में प्रशिक्षित करने पर बल देते हैं। ऐसा मनुष्य ही चिर सत्य, चि णिव और चिर सौन्दर्य की खोज कर सकता है अर्थात् आत्मा-परमात्मा को जान सकता है क्योंकि अपने निरपेक्ष रूप में सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् आत्मा-परमात्मा को ही प्राप्त हैं।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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