शिक्षाशास्त्र / Education

मानव निर्माण शिक्षा में स्वामी विवेकानन्द का योगदान | मानव निर्माण शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य

मानव निर्माण शिक्षा में स्वामी विवेकानन्द का योगदान

मानव निर्माण शिक्षा में स्वामी विवेकानन्द का योगदान | मानव निर्माण शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य

मानव निर्माण शिक्षा में स्वामी जी का योगदान

स्वामी जी का सम्पूर्ण जीवन ही मानव-निर्माण शिक्षा के लिए समर्पित रहा है। वेदान्त दर्शन को जन-जन के लिए व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करना, जीवन में धर्म और अध्यात्म की श्रेष्ठता को स्थापित करना, विदेशों में भारतीय ज्ञान, दर्शन और धर्म की विजय-पताका फहराना, रामकृष्ण मिशन की स्थापना करना और बहुत बड़ी संख्या में पुस्तकों, व्याख्यानों, सम्मेलनों आदि के माध्यम से भारत में मानव-मात्र के व्यक्तित्व के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाना आदि कुछ ऐसे महान कार्य हैं, जिनके कारण उन्होंने विश्व के शीर्ष सन्तों, विद्वानों और महात्माओं की श्रेणी में उच्च स्थान सुरक्षित कर लिया है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के अनुसार-“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं, तो विवेकानन्द का अध्ययन कीजिए । उनमें सभी कुछ सकारात्मक है, और नकारात्मक कुछ नहीं है।”

वे एक वेदान्ती एवं आदर्शवादी थे, किन्तु आधुनिक युग की मांग के प्रति विमुख नहीं थे। वे कहते थे- “खाली पेट धर्म नहीं होता ।” इसलिए जीविकोपार्जन को भी प्रमुखता देते थे। पाश्चात्य विज्ञान के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए उन्होंने कहा था-“पाश्चात्य विज्ञान के साथ वेदान्त का समन्वय होना चाहिये।” उनका यह दृष्टिकोण सम्भवत: उनकी राष्ट्र के विकास के प्रति समर्पित भावना की अभिव्यक्ति ही कही जा सकती है। श्री अरविन्द ने इसके विषय में कहा है- “हम कहते हैं-देखो मातृभूमि की जागृत आत्मा में विवेकानन्द आज भी जिन्दा हैं। भारत माता की सन्तानों के दिलों में विवेकानन्द अभी भी प्रतिष्ठित हैं।”

स्वामी जी शिक्षा को जीवन-निर्माण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हैं। किन्तु अपने देश की तत्कालीन शिक्षा प्रणाली से वे बिल्कुल भी सन्तुष्ट नहीं थे। उनका कहना था-“वर्तमान शिक्षा प्रणाली में कुछ अच्छी बातें अवश्य हैं, किन्तु इनकी तुलना बहुत अधिक दोष भी हैं।….. यह शिक्षा पद्धति केवल क्लर्क तैयार करने की एक मशीन मात्र है।”

उनके अनुसार यदि व्यक्ति को महज क्लर्क नहीं बनाना है, तो उसकी शिक्षा में धर्म का समावेश अवश्य किया जाना चाहिए, क्योंकि धर्म प्रत्येक मनुष्य को निर्भीक बनाता है।” धर्म के द्वारा व्यक्ति में आत्मदर्शन की क्षमता उत्पन्न होती है।

स्वामी जी के महान जीवन के महान कार्यों पर अब तक हमने विस्तार से चरच्चा की है। किन्तु किन्हीं कारणों से सम्भवत: अनजाने में उनसे ऐसी भूल भी हो गई है, जिसके कारण भारत को वह अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है, जिसकी उन्होंने कामना की थी। उनके जीवन की यह भूल उनका अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण था। उन्होंने भारत के जन-जन के विकास की आवश्यकता पर सदैव जोर दिया है, किन्तु भारत के जन-मानस की भाषा (राष्ट्र भाषा) को उन्होने कभी कोई महत्त्व नहीं दिया। अमेरिका में जाकर भी उन्होंने अंग्रेजी में भाषण दिया और उनका सम्पूर्ण साहित्य भी मूल रूप से अंग्रेजी में ही लिखा गया है। यह बात कुछ गले नहीं उतर रही कि जिस भारत माता की सेवा करना उनका अपना पहला लक्ष्य बनाना था उसकी भाषा के प्रति यह असावधानी उनसे कैसे हो गई?

यहाँ पर स्वामी दयानन्द का उदाहरण प्रस्तुत करना लेखक को आवश्यक प्रतीत हो रहा है। मातृभाषा, गुजराती होने के बावजूद स्वामी दयानन्द ने वैदिक साहित्य और वेदान्त की प्रतिष्ठा के लिए जो भी व्याख्यान दिये और जितना भी साहित्य लिखा वह सभी राष्ट्र भाषा हिन्दी में हो लिखा है। उन्होंने धर्म प्रचार के लिए अंग्रेजी को महत्त्व नहीं दिया। यह उनकी दूरदर्शिता हो कहीं जायेगी कि उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से भारत की आजादी के लगभग 70-80 वर्ष पूर्व ही यह जान लिया था कि अधिकांश भारत की आत्मा हिन्दी में ही बसती है, और आगे चलकर यहा भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होगी। स्वामी दयानन्द की जीवनावधि 82 से 1883 के मध्य रही। किन्तु इतना पहले ही उनके द्वारा हिन्दी को भारत की जन भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाना उनके महान दृष्टा होने की ही पुष्टि करता है। स्वामी विवेकानन्द तो उनवके बाद (1863 से 1902) आये थे, तब भी आश्चर्य है कि वे हिन्दी के महत्त्व को नहीं समझ सके। न जाने कितने देशीं में उन्होंने भ्रमण किया और भारत में भी व्यापक यात्राएं कीं, किन्तु कभी अपने समकालीन स्वामी दयानन्द से उनका साक्षात्कार नहीं हो सका। उनके जीवन काल के लगभग 20 वर्ष ऐसे थे, जब स्वामी दयानन्द भी भारत में मौजूद रहकर वैदिक धर्म की पताका फहरा रहे थे फिर कभी ऐसा अवसर क्यों नहीं आ सका कि ये दोनों महान सन्त परस्पर मिलते और एक-एक मिलकर ग्यारह की उक्ति को चरितार्थ करते।

स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द लगभग समकालीन थे। दोनों ही वेदान्त धर्म और दर्शन के उपासक तथा प्रचारक थे, किन्तु दोनों में एक ही देश में रहते हुए भी परस्पर सान्निध्य स्थापित क्यों नहीं हो सका यह एक खोज का विषय है।

स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी मोह को यदि छोड़ दिया जाए तो उनके जीवन को शुभ, पवित्र और मानव के लिए कल्याणकारी ही कहा जाएगा। उन्होंने भारतीय गौरवशाली परम्परा को विश्व में प्रतिष्ठित किया था और यह सिद्धान्त बताया था कि-ज्ञान मनुष्य के अन्दर ही है उसे जानो। अमेरिका के प्रेस ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। भारतवासियों ने भी उन्हें अपने अमर सन्तों और विद्वान दार्शनिकों की कोटि में सम्मिलित करते हुए उन्हें पर्याप्त सम्मान दिया है। उनका योगदान भारत को विकास के मार्ग पर ले जाने में सहायक हो सके, यही कामना है।

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मानव निर्माण की शिक्षा को बताते हुए स्वामी द्वारा निरूपित शिक्षक के स्वरूप का वर्णन

स्वामी जी ने एक सफल और व्यावहारिक मानस की बात कही है। वे शिक्षा को केवल जानकारी का ढेर नहीं मानते थे। शिक्षा ऐसी होनी चाहिये जिससे हमारा जीवन निर्माण हो सके और मनुष्यत्व की प्राप्ति हो सके। मानव विकास के लिए उन्होंने लौकिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षा पर बल दिया है। शिक्षा राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिये तथा शिक्षा प्रदान करने की विधि भी राष्ट्रीय होनी चाहिये।

स्वामी जी मनुष्य को ईश्वर का ही अंश मानते थे। उनका मानना था कि बालक में ईश्वर पूर्णता पहले से ही विद्यमान है। शिक्षा का कार्य उस पूर्णता को व्यक्त करना है। दूसरे शब्दों में, स्वामी जी की शिक्षा का आदर्श है-पूर्ण मानव का निर्माण जैसा कि उन्होंने कहा- “शिक्षा मानव में निहित पूर्णता- का प्रकाशन है।” सभी में ईश्वर शक्ति विद्यमान है। शिक्षा द्वारा मानव में अनन्त धैर्य, उत्साह, शक्ति एवं साहस उत्पन्न करके इस पूर्णता की प्राप्ति करनी है।

इस प्रकार स्वामी जी ने अपने विचारों में मानव निर्माण की शिक्षा का विस्तार से वर्णन  किया है। उनका कहना था कि वह शिक्षा के जीवन के संघर्ष हेतु तेयार नहीं करती, जो चरित्र का बलवान नहीं बनाती, जनकल्याण की भावना नहीं जगाती तथा शेर का साहस नहीं उत्पन्न करती व्यर्थ है। शिक्षा को घर-घर तक पहुँचाने की आवश्यकता है तभी भारत एक सम्पन्न देश कहलायेगा।

शिक्षक के गुण- स्वामीज़ी ने शिक्षक के तीन विशेष गुण बताए हैं। प्रथम गुण हे उसका शास्त्र ज्ञान। अच्छा शिक्षक शास्त्रों के मर्म को जानता है, वह शब्दों, के परे अर्थ को जानता है। दूसरा गुण है निष्पापता। उसे हृदय और मन से पवित्र होना चाहिए। चित्त की शुद्धता के बिना वह छात्रों में आध्यात्मिक शक्ति का संचार नहीं कर सकता। तीसरा गुण यह है कि शिक्षक को धन, नाम या यश सम्बन्धी स्वार्थसिद्धि के धर्म शिक्षा नहीं देनी चाहिए। अतः गुरु त्यागभाव आवश्यक है।

स्वामी विवेकानन्द के मानव निर्माण शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य

स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा का आदर्श है- पूर्ण मानव का निर्माण। “शिक्षा मानव में निहित पूर्णता का प्रकाशन है।” इसी पूर्णता के प्रकाशन हेतु वे सतत प्रयत्नशील रहे। शिक्षा द्वारा मानव में अनन्त शक्ति, धेर्य, उत्साह एवं साहस उत्पन्न करके इस पूर्णता की प्राप्ति करनी चाहिए।

(1) चरित्र निर्माण- स्वामी विवेकानन्द चरित्र निर्माण को शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य मानते थे। उनका विश्वास था कि मानव विचारों का चरित्र से घनिष्ठतम सम्बन्ध होता है। व्यक्ति का जैसा विचार होता है वैसा ही चरित्र भी। अतः उत्तम विचारों के सृजन हेतु उन्होंने चरित्र- निर्माण के उद्देश्य को अत्यावश्यक बताया है। इस उद्देश्य के द्वारा सचमुच सकल्प शक्ति विकसित होती है।

(2) सामाजिक और सांस्कृतिक विकास- मानव के वैयक्तिक व सामाजिक, दोनों प्रकार के विकास पर बल देते हुए स्वामीजी कहते हैं कि हम दुर्बल है, इसीलिए त्रुटि करते हैं और हमारी दुर्बलता का कारण हमारा अज्ञान है। हमें अज्ञानी कोई नहीं बनाता, हम स्वयं अज्ञान के कारण हैं आत्मिक विकास ही वैयक्तिक विकास है। परन्तु यह तब तक सम्भव नहीं है, जब तक मनुष्य का सामाजिक विकास नहीं हो जाता। शिक्षा में सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य को वे महत्वपूर्ण मानते हैं।

(3) शारीरिक विकास- शारीरिक विकास को इन्होंने शिक्षा का प्रथम उद्देश्य माना है। स्वामीजी चाहते हैं कि “संसार में यदि कोई पाप है तो वह दुर्बलता का परित्याग करो। उपनिषद की महान शिक्षा यही थी। वर्तमान में ऐसे बलिष्ठ मनुष्यों की आवश्यकता है जिनकी पेशियाँ दृढ़ और स्नायु फौलाद की तरह कठिन हो।

 (4) जीविकोपार्जन- स्वामीजी के अनुसार वह शिक्षा जो मानव को जीवनोपयोगी तथा आत्म निर्भर बनाने में सक्षम हो। इसलिए उन्होंने छात्रों की प्राथमिक आवश्यकताओं की पर्ति हेतु जीविकोपार्जन को शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य माना था। वे विद्यार्थियों में कृषि, उद्योग, तकनीकी ज्ञान एवं व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से इतनी सामर्थ्य उत्पन्न करना चाहते थे। ताकि वे आत्मनिर्भर हो सके।

(5) धार्मिक शिक्षा- स्वामी जी धर्म को मानव की आन्तरिक निधि मानते थे। अतः उन्होंने धार्मिक शिक्षा को शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य माना है। धार्मिक शिक्षा द्वारा वे व्यक्ति में आत्मविश्वास, आत्म-श्रद्धा, आत्म-नियंत्रण, आत्म-निर्मरता, आत्म-त्याग, मानवता, सहयोग एवं प्रेम तथा विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास करक दिव्य मानव का सृजन करना चाहते थे।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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