भारत की धातु युगीन संस्कृति | भारत की धातु युगीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन

भारत की धातु युगीन संस्कृति | भारत की धातु युगीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन

भारत की धातु युगीन संस्कृति

पूर्व पाषाण, मध्य पाषाण तथा उत्तर पाषाण युग को सामूहिक रूप में पाषाण युग की संज्ञा दी जाती है। जब मानव ने प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाये तो एक समय ऐसा आया जब उसे मात्र पाषाण प्रयोग से विरक्ति सी होने लगी। ऐतिहासिक धारा के स्वाभाविक स्वरूप का अनुशीलन करते हुए उसने कुछ और नवीन खोज द्वारा धातु के महत्व को समझाना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप उस युग का आविर्भाव हुआ जिसे इतिहास में “धातु युग” के नाम से जाना जाता है। पाषाण टूट सकता था, उसे मोडना, घुमाना कठिन था। इसके विपरीत धातु द्वारा निर्मित उपकरणों में सुडौलता, टिकाऊपन चिकनाहट तथा सुन्दरता आपेक्षित थी। धातु को किसी भी रूप में ढाला जा सकता था। इन्हीं विशेषताओं के कारण मनुष्य ने पाषाण प्रयोग की अपेक्षा धातु प्रयोग को महत्व दिया।

(1) धातु युग के भारतीय केन्द्र-

दक्षिण भारत में लोहे का प्रयोग होने तथा उत्तर भारत में ताँबे का प्रयोग होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। कानपुर, फतेहगढ़, मैनपुरी तथा मथुरा जिले से ताँबे के बने अनेक बारीक औजार, भडली मारने के बरछे, तलवारें तथा भाले प्राप्त हुए हैं। इन उपकरणों का विस्तार प्रायः सारे उत्तरी भारत में हुगली से सिन्धु नदी तक तथा हिमालय की तराई से कानपुर जिले तक पाया गया है। दक्षिण भारत की समाधियो से तांबे के बने प्याले या कटोरे जैसी चीजें मिली हैं जो या तो बाद की है अथवा उत्तर भारत से यहाँ आई थीं। ताँबे के हथियारों का सबसे बड़ा भण्डार मध्य-भारत के गुंगेरिया नामक ग्राम से प्राप्त हुआ है। मद्रास के चिंगलपुट, नेल्लूर तथा आर्कट आदि जिलों से लौह उपकरण उपलब्ध हुए हैं।

(2) धातु युग की सांस्कृतिक विशेषतायें-

जब हम धातु युग की विशेषताओं पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें पता चलता है कि धातु की खोज तत्कालीन मानव के बौद्धिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। धातु की खोज, प्राप्ति तथा उसे पिघला कर अनेक उपकरणों का निर्माण करने के लिए वैज्ञानिक क्षमता तथा निपुणता की आवश्यकता थी। अतः यह निश्चित है कि धातु प्रयोग द्वारा मनुष्य वैज्ञानिक क्षमता के मार्ग पर अग्रसर होने लगा था। जिस प्रकार पाषाण प्रयोग से ऊब कर, जब मनुष्य ने धातु अर्थात् लोहे तथा ताँबे का प्रयोग शुरू किया तो कालान्तर में उसने इन धातुओं के मिश्रण की विधि से भी परिचय प्राप्त किया। फलस्वरूप कांसे का आविष्कार हुआ। यह धातु ताँबे तथा टिन के मिश्रण से तैयार होती थी। यह आविष्कार मनुष्य के रासायनिक ज्ञान का परिचायक है।

(3) सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक जीवन-

सामाजिक जीवन के नियमों, व्यवस्थाओं तथा मान्यताओं में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। वस्तुतः उत्तर पाषाणकालीन सामाजिक जीवन अभी भी अवस्थित था। धार्मिक विषयों में अभी भी प्रकृति का दैविक रूप, भूतादि में विश्वास तथा चट्टानों, नदियों, पर्वतों, वृक्षों आदि की पूजा प्रमुख थी। आर्थिक तथा उद्योग धन्धों के क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ।

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