इतिहास / History

भारत की मध्य पाषाण कालीन संस्कृति | भारत की मध्य पाषाण कालीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन

भारत की मध्य पाषाण कालीन संस्कृति | भारत की मध्य पाषाण कालीन सांस्कृतिक विशेषताओं का वर्णन

भारत की मध्य पाषाण कालीन संस्कृति

कतिपय विद्वानों के अनुसार मध्य पाषाण काल का कोई अस्तित्व नहीं है। उनके अनुसार पूर्व पाषाण काल के उपरान्त उत्तर पाषाण काल आरम्भ हुआ था। परन्तु शोध कार्यों तथा उत्खनन द्वारा अनेक ऐसे प्रमाण तथा सामग्री आदि की प्राप्ति हुई जिसके आधार पर पूर्वपाषाणकाल के उपरान्त एक ऐसे युग की संस्कृति की गाथा प्रकाश में आई है जिसे मध्य पाषाण काल की संज्ञा से विभूषित किया गया है। वर्किट तथा टॉड महोदय द्वारा किए उत्खननों द्वारा कुर्नूल तथा बम्बई से ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनके द्वारा मध्य पाषाण काल की विशेषताओं का पता चलता है।

(1) सामग्री तथा केन्द्र-

ब्रह्मगिरि (मैसूर) से रोप्पा नामक ग्राम के पास उत्खनन द्वारा लगभग पाँच फिट की गहराई पर माइक्रोलिथ तथा नियोलिथ प्राप्त हुए हैं तथा उससे नीचे लगभग आठ फीट की गहराई पर केवल माइक्रोलिथ प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार उचाली (पंजाब) तथा सरायकली (बिहार) से माइक्रोलिथ, पृण्पात्र तथा होमोसैपिअन्स (Homosapiens) के अवशेष साथ-साथ मिले हैं। इन प्राप्तियों से यह सिद्ध होता है कि माइक्रोलिथ अधिक प्राचीन है तथा उत्तर पाषाण (नियोलिथिक) बाद का है। अन्य साक्ष्यों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि माइक्रोलिथ का जन्म पूर्व पाषाण काल तथा उत्तर पाषाण काल के बीच में हुआ था। भारत में माइक्रोलिथ का जन्म मध्य पाषाण काल में हुआ था।

मध्य पाषाण काल का समय आज से पचास सहस्त्र वर्ष पूर्व से लेकर पच्चीस सहस्र वर्ष पूर्व तक माना जाता है। इस युग के पाषाण आयुध तथा अन्य सामग्री सरायकला (बिहार), उचाली (पंजाब), ब्रह्मगिरि (मैसूर), साबरमती की घाटी (गुजरात), सायरे पुरम, हीरपुरा, कुर्नूल, लाँधनाज (दक्षिण भारत) आदि स्थानों से प्राप्त हुई है।

(2) आयुध सामग्री-

उत्खनन द्वारा प्राप्त सामग्री से पता चलता है कि मध्य पाषाण काल के आयुधों में पूर्वपाषाणकाल की अपेक्षा कुछ परिपक्वता आ गई थी। इस युग के आयुधों में आयताकार, चन्द्राकार तथा पैने ब्लेड, कोर, नुकीले तथा स्पर आदि प्रकार प्रमुख हैं। इन आयुधों का बनाने में जैस्पर, फ्लिन्ट, चर्ट, कार्नेलियन, कल्सेडोनी आदि पाषाणों का प्रयोग किया जाता था। अनेक प्रकार के आयुधों में फरसा, भाला, हथौड़ा, चाकू, बाण तथा काटने, छीलने, फेंकने, चीरने तथा खोदने आदि के उपकरण प्रमुख हैं। इस समय के आयुधों की प्रमुख विशेषता यह थी कि इन्हें आसानी से प्रयोग करने के लिए इनके एक सिरे पर मूठ लगाई जाती थी।

(3) निवास स्थान-

वृक्षों पर रहना छोड़ कर अब मनुष्य पहाड़ों, गुफाओं नदियों के किनारे तथा कगारों के आस-पास घास-फूस की झोपड़ी बना कर रहने लगे थे। अब वे छोटे-छोटे समुदायों में भी रहने लगे थे।

(4) खान-पान-

जीवनयापन का प्रमुख उद्यम आखेट ही था। कृषि कर्म तथा पशुपालन से अनभिज्ञ होने के कारण स्वयं उत्पन्न होने वाले कन्द, मूल, फल भोजन का अंग थे। पशु-पक्षियों का मांस तथा पकड़ी गई मछलियाँ भी उनके भोजन का अंग थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में मनुष्य पशुओं की उपयोगिता से भी परिचित हो चुका था।

(5) सामाजिक जीवन-

इस काल में सामाजिक भावना पहले की अपेक्षा अधिक जागृत हो चुकी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अब पारिवारिक प्रणाली का विकास हो चुका था। भित्तियों पर अंकित अनेक चित्रों से प्रकट होता है कि इस काल में मनुष्य अपने शरीर को पेड़ों की छाल, पत्ते तथा पशुओं की खाल से ढंकने लगे थे। इन भित्तियों पर कई चित्र ऐसे हैं जिनमें आखेट, पशुओं तथा मनुष्यों की आकृतियाँ बनी हुई हैं। इससे प्रकट होता है कि आखेट मनोरंजन का साधन भी था। कृषि तथा पशुपालन से अनभिज्ञ होने के बावजूद गाय, घोड़ा, बैल, भेड़, कुत्ता, मछली तथा घड़ियाल से मनुष्य का परिचय हो चुका था।

(6) धार्मिक जीवन-

इस बात के अनेक प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि मनुष्य में प्रारम्भिक धार्मिक भावना का जन्म हो चुका था। उत्खनन द्वारा अनेक ऐसे मानव अस्थिपंजर प्राप्त हुए हैं जिनके निकट कुत्ते का अस्थिपंजर भी है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि अब शव को पृथ्वी में गाड़ा जाता था तथा मनुष्य एवं कुत्ते के बीच किसी धार्मिक परम्परा का बीजारोपण हो चुका था। अनेक अस्थिपंजरों के पास पाषाण के आयुध तथा खाद्य सामग्री की प्राप्ति से प्रकट होता है कि अब अन्त्येष्टि क्रिया का सम्पादन होने लगा था। दक्षिण भारत के कुर्नूल की गुफाओं के चित्रों में कतिपय सांकेतिक

(5) व्यवसाय उद्योग तथा कृषि कर्म-

उत्तर पाषाणकालीन मानव ने व्यवसाय तथा उद्योग-धन्धों के क्षेत्र में क्रान्तिकारी उपलब्धियाँ प्राप्त की। पहले वह आखेट द्वारा प्राप्त मांस तथा पेड़ो से प्राप्त कन्दमूल फल खाता था, परन्तु इस काल में उसने अनुभव किया कि मात्र इन साधनों द्वारा ही उसकी आवश्यकतायें पूर्ण नहीं हो सकतीं। उपरोक्त विधि से भोजन प्राप्त करने में सदैव प्राण जाने का भय बना रहता था तथा पेड-पौधों से पूरे वर्ष तक खाद्य पदार्थ प्राप्त नहीं किये जा सकते थे। अतः उसका ध्यान उन पशुओं की ओर गया जो दूध दे सकते थे। फलतः उसने पशुपालन की कला का विकास किया। यह व्यावसायिक प्रगति का पहला चरण था । फिर उसे कृषि का ज्ञान हुआ। यह सर्वयुगीन क्रान्तिकारी ज्ञान था तथा इसने सारी सभ्यता की कायापलट कर दी। अनाज पीसने के लिए दो समान पाषाण खण्डों को चक्री के रूप में प्रयोग किया जाता था। कृषि द्वारा उत्पादित सामग्री में गेहूँ, बाजरा, जौ, मका, शाक, फल तथा कपास थे। कपास के उत्पादन के साध वस्त्र निर्माण कला का जन्म हुआ। पेड़, पौध तथा अन्य रसों द्वारा अनेक प्रकार के रंग बनाकर कपड़े रंगे जाते थे। खाद्य-सामग्री को सुरक्षित रखने के लिए मिट्टी के बड़े घड़े के आकार के बर्तन बनने शुरू हो गये। पहिये का आविष्कार होने के कारण बाद में बैलगाड़ियों जैसी सवारी प्रयोग में लायी जाने लगी। नदियाँ पार करने के लिए नाव के प्रयोग का ज्ञान हो चुका था। दैनिक जीवन की विविधता के रेखाओं से प्रकट होता है कि जादू टोने आदि में मनुष्य का विश्वास जमने लगा था।

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About the author

Kumud Singh

M.A., B.Ed.

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