भारतरीय मिट्टियों का वर्गीकरण | भारतवर्ष में पायी जाने वाली मिट्टियों का वर्गीकरण | भारत की मिट्टियों की विशेषता अथवा लक्षण
भारतरीय मिट्टियों का वर्गीकरण | भारतवर्ष में पायी जाने वाली मिट्टियों का वर्गीकरण | भारत की मिट्टियों की विशेषता अथवा लक्षण
भारतरीय मिट्टियों का वर्गीकरण
भूतल की ऊपरी, बीली एवं विभिन्न आकार प्रकार के कणों वाली परत को मिट्टी कहा जासकता है। मिट्टी का निर्माण शैलों के टूटने तथा वनस्पति के सड़ने गलने से होता है। मिट्टी में पौधों का भोजन संचित होता है। मिट्टी एक सजीव वस्तु है जो जल एवं वायु के संयोग से वनस्पति के विकांस का आधार होती है। वनस्पतियाँ, पशुओं एवं मानव के लिए विभिन्न रूपों में उपयोगी होती हैं। पशुओं को इनसे भोजन की प्राप्ति तथा मानव को इनसे खाद्य पदार्थ के अतिरिक्त कच्चे माल प्राप्त होते हैं। मिट्टी की रचना माँ दो तत्वों धातु एवं कीटाणु का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मिट्टी में धातु मूल चट्टान से प्राप्त होती है जबकि कीटाणु पशुओं एवं पौधों के नष्ट होने से विकसित होते हैं मिट्टी में विद्यमान सूक्ष्म कीटाणु मिट्टी को तोड़कर बारीक करते रहते हैं। आवश्यकता से अधिक उच्च तापमान इन कीटाणुओं के लिए हानिकारक होता है। इसलिए बहुत गर्म क्षेत्रों की मिट्टी में उर्वरता कम पायी जाती है।
मिट्टी के विकास में निम्न पाँच कारक सहायक होते हैं-
(1) मूल शैल, (2) जलवायु (3) प्राकृतिक वनस्पति (4) उच्चावच एवं (5) समय।
उक्त सभी कारक परस्पर संबद्ध है फिर भी जलवायु इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक हैं। जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति सम्मिलित रूप से मूल शैल को प्रभावित करते हैं। इन कारकों का प्रभाव उच्चावच पर भी पड़ता है। इन कारकों की सक्रियता की अवधि का अंतिम प्रभाव मिट्टी के निर्माण पर होता है। इसलिए मिट्टी की संरचना परिवर्तित होती रहती है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research) ने जलवायु, विशेष रूप से वर्षा तथा जल प्रवाह को ध्यान में रखते हुए भारतीय मिट्टियों को निम्न प्रकारों में बाँटा है-
(i) लाल मिट्टी, (ii) काली मिट्टी, (iii) लैटराइट मिट्टी, (iv) लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी, (v) दलदली मिट्टी, (vi) जलोढ़ मिट्टी, (vii) मरूप्रदेशीय मिट्टी एवं,(viii) वन प्रदेशीय मिट्टी
भू-वैज्ञानिक आधार पर भारतीय मिट्टियों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है- (क) प्रायद्वीपीय मिट्टियाँ एवं (ख) प्रायद्वीपीय मिट्टयाँ प्रायद्वीपीय भारत में पायी जाने वाली मिट्टियों को पाँच भागों में विभक्त किया गया-
(i) रेग्यूर मिट्टी, (ii) लाल मिट्टी, (iii) लैटराइट मिट्टी, (iv) मिश्रित लाल एवं काली मिट्टी, (v) डेल्टाई जलोढ़ मिट्टी।
प्रायद्वीपेतर भारत की मिट्टियों के वितरण की दृष्टि से उन्हें पुनः दो व्यापक भागों में बाँटा गया है-
(1) उत्तरी मैदानी भाग की मिट्टियाँ एवं
(2) पर्वतीय भाग की मिट्टियाँ।
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उत्तरीय मैदानी भाग की मिट्टियों को सात प्रकारों में बाँटा गया है, वे हैं-
(1) जालेढ़ मिट्टी, (2) कैल्सियम जलोढ़, (3) वेस्टनट जलोढ़, (4) लवणीय जलोढ़, (5) क्षारीय जलोढ़, (6) तराई मिट्टी एवं, (7) मरूप्रदेशीय मिट्टी।
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पर्वतीय भाग की मिट्टियों को पाँच प्रकारों में बाँटा गया है-
(1) भूरी पर्वतीय मिट्टी, (2) लाल मिट्टी, (3) गहरी भूरी मिट्टी, (4) काली मिट्टी (5) हिमानी मिट्टी
मिट्टी की मौलिक उर्वरता विनाशशील वस्तु होती है। उसकी उर्वरता को बनाये रखने के लिए प्राकृतिक एवं रासायनिक खाद, जुताई आदि की आवश्यकता होती है। इनकी उपयोगिता में वृद्धि के लिए कृषि की प्राविधिकी में सुधार हेतु विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है।
मिट्टियों के वर्गीकरण के आधार के रूप में जलवायु, मूल शैल की संरचना, अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण के कारक एवं उनकी क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। उक्त कारकों के आधार पर भारतीय मिट्टियों को 6 प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है।
(i) जलोढ़ मिट्टी
(ii) कपास वाली काली अथवा लावा की मिट्टी
(iii) प्राचीन शैलों से निर्मित मिट्टियाँ
(iv) पर्वतीय मिट्टियाँ
(v) रेतीली मरूप्रदेशीय मिट्टी एवं
(vi) समुद्र तटीय मिट्टियाँ
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जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soils)-
इस मिट्टी का विकास नदियों की घाटियों में उनहीं के द्वारा ऊपरी भागों से लाकर जमा किये गये अवसादों द्वारा होता है। इस प्रकार की जलोढ़ मिट्टी का विस्तार सतलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों में लगभग पौने आठ लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रों में है। दक्षिण भारत में ऐसी मिट्टी का वितरण महानदी, गोदावरी, कृष्णा आदि नदियों के निचले बेसिनों एवं डेल्टाई भागों में पाया जाता है। उत्तरी विशाल मैदान के उत्तरी भाग में भाभर क्षेत्र पड़ता है जिसका निर्माण कंकड़-पत्थरों के निक्षेप द्वारा हुआ है जिसे नदियाँ पर्वतीय भागों से लाकर मैदानों में पहुँचते ही जमा कर देती हैं।
मैदानी जलोढ़ मिट्टियों को मुख्य रूप से दो उपवर्गों में बाँटा जाता है- (क) बाँगर एवं (ख) खादर। जो भाग बाढ़ क्षेत्र से ऊँचे हो जाते हैं वहाँ पुरातन जलोढ़ मिट्टी या चुनायुक्त चिकनी मिंट्टी पायी जाती है, इन्हें बाँगर कहा जाता है। इनमें कहीं-कहीं कंकड़ भी पाये जाते हैं। बाँगर मिट्टी के अपक्षालित होते रहने के कारण इसमें खाद एवं उर्वरकों की अधिक आवश्यकता होती है। बाढ़ क्षेत्र में नूतन जलोढ़ मिट्टी या जलोढ़ मिट्टी मिलती है। इन्हें खादर कहते हैं इनमें बाढ़ के समय प्रति वर्ष मिट्टी की नवीन परतें जमा होती रहती हैं। यह उपजाऊ मिट्टी होती है। जलोढ़ मिट्टी में रेत तथा चिकनी मिट्टी के मिश्रित रहने पर उसे दोमट कहते हैं। यह भुर-भुरी मिट्टी होती है जिसमें खाद के उपयोग में सुविधा रहती है।
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कपास वाली काली मिट्टी (Black Cotton Soil)-
इस मिट्टी का निर्माण लावा के निक्षेप द्वारा हुआ है अतः इसका रंग काला होता है। इसी मिट्टी में रासायनिक एवं खनिज तत्त्वों का आधिक्य पाया जाता है। इस मिट्टी का विस्तार मध्यप्रदेश के अमरकण्टक तथा महाराष्ट्र के पूना से कर्नाटक के बेलगाम तक लगीग 5.4 लाख वर्ग किलोमीटर में है। इस प्रकार इसके अंतर्गत महाराष्ट्र एवं गुजरात के अधिकांश भाग, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग तथा तमिलनाडु के कुछ भाग सम्मिलित हैं। इस मिट्टी में पानी धारण करने की क्षमता अधिक होती है और इनमें नमी बहुत दिनों तक बनी रहती है। ग्रीष्मकाल में जब इनमें से नमी समाप्त होने लगती है तो इसमें चौड़ी दरारें हो जाती हैं तब यह मिट्टी कड़ी जो जाती है। पुनः जल मिलने पर यह मुलायम हो जाती है। प्रत्येक वर्षा मिट्टी ऊपर-नीचे होती रहती है। अतः इसकी उर्वरता बनी रहती है और इसमें बिना खाद के उपयोग के बहुत दिनों तक कृषि होती रहती हैं। इस मिट्टी को कपास की मिट्टी भी कहा जाता है।
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प्राचीन शैलों से निर्मित मिट्टियाँ (Soils Formed of old rocks)-
लावा मिट्टी वाले भूभागों के अतिरिक्त प्रायद्वीपीय पठारी भाग में अधिकांशतया स्थैतिक मिट्टियाँ पायी जाती हैं। ये मिट्टियाँ विभिन्न प्रकार प्राचीन शैलों के विघटन एवं चूर्ण होने से बनी हैं। लैटराइटी प्रक्रिया का इन पर गहरा प्रभाव पाया जाता है। इनमें आर्द्रता ग्रहण करने की क्षमता कम होती है। चूँकि ये अधिक ढीली होती हैं इसलिए जल इनमें से होकर भूगर्भ में चला जाता है। प्राचीन शैलों से निर्मित मिट्टियों में निम्न हैं- (क) लाल दोमट मिट्टी, (ख) लाल बलुई मिट्टी एवं (ग) लैटराइट मिट्टी।
(क) लाल दोमट मिट्टी का विस्तार छोटा नागपुर पठार, छत्तीसगढ़ बेसिन, उत्तरी बुंदेलखंड, कर्नाटक में मालनद का पूर्वी ढाल, दक्षिणी सह्याद्रि एवं इसके पूर्वी ढाल तथा आंध्र प्रदेश के रायल सीमा पठार पर पाया जाता है।
(ख) लाल बलुई मिट्टी का विस्तार छत्तीसगढ़ बेसिन को छोड़कर पूर्वी मध्य प्रदेश, इसके निकट उड़ीसा की पहाड़ियों, आंध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु में स्थित पूर्वी घाट के पहाड़ों तथा उत्तरीय सह्याद्रि की पतली पेटी में पाया जाता है। यह पूर्णतया अपक्षालित मिट्टी होती है। इस मिट्टी में शुष्क प्रकार की कृषि की जाती है। लाल बलुई तथा लाल दोमट मिट्टियों का विस्तार लगभग 20-22 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है।
(ग) लैटराइट मिट्टी का विस्तार लाल मिट्टी के ही क्षेत्र में पाया जाता है। इस मिट्टी का गुण ईंट के समान होता है। इस मिट्टी का विकास उष्ण कटिबंधीय जलवायु, मंद ढाल वाले क्षेत्र तथा अनेक प्रकार की प्रवेश्य शैलों के क्षेत्र में होता है। उष्ण मानसून जलवायु वाले भूभागों में इस मिट्टी का विकास अधिक होता है क्योंकि इस प्रकार की जलवायु के अंतर्गत, दो ग्रीष्मकाल के मध्य एक वर्षा ऋतु होती है जिसके कारण लैटराइट शैलें टूट जाती हैं और लैटराइट मिट्टी का निर्माण होता है। इस मिट्टी के निर्माण में कई प्रकार की मूल शैलों का सहयोग होता है परंतु इसमें लाल शैलों के अधिक होने के कारण इसका रंग लाल होता है। कइसमें अल्युमिना एवं लौह के आक्साइड के मिश्रण पाये जाते हैं। इनमें नाइट्रोजन, चूना, पोटाश, फास्फोरिक एसिड तथा जीवांश की कमी पायी जाती है। फलस्वरूप यह अनुपजाऊ होती है।
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पर्वतीय मिट्टियाँ (Mountains Soils)-
पर्वतीय भागों में पायी जाने वाली मिट्टियाँ निर्माण एवं विकास की प्रक्रिया में ही रहती हैं इसीलिए वे नवीन होती हैं। इन भागों में मुख्य रूप से चार प्रकार की मिट्टियाँ पायी जाती है- (क) हिमालय के पर्वतीय भाग जैसे असम, उत्तरी बंगाल एवं उत्तर प्रदेश के देहरादून में तथा हिमालय प्रदेशीय कांगड़ा घाटी में चाय वाली काली मिट्टी पायी जाती है। इस मिट्टी में चूने की कमी एवं लोहे तथा वनस्पति अंश की अधिकता पायी जाती है, इस मिट्टी में चाय की खेती सफलतापूर्वक की जाती है। (ख) नैनीताल, मंसूरी एवं चकराता में चूना प्रधान मिट्टियाँ पायी जाती हैं।
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रेतीली मरूप्रदेशीय मिट्टी (Desert Soil)-
इस प्रकार की मिट्टी का विस्तार राजस्थान तथा गुजरात के सौराष्ट्र एवं कच्छ प्रदेशों में पाया जाता है। इनमें प्रायः कंकड़ तथा नमक का मिश्रण भी पाया जाता है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन, जीवांश एवं अन्य पोषक तत्त्वों का अभाव पाया जाता है। वैसे इनमें सिंचाई की सुविधा होने पर कृषि की जाती है। यह मिट्टी बहुत उपजाऊ नहीं होती है।
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समुद्र तटीय मिट्टियाँ (Coastal Soils)-
इन मिट्टियों को कणों के आकार, संरचना, स्थिति आदि के आधार पर कई प्रकारों में बाँटा जा सकता है। इन मिट्टियों की अधिकांश विशेषताएँ मूल शैलों पर निर्भर होती हैं। दक्षिण भारत की नदियों काली मिट्टी के प्रदेश से निकलती हैं अतः इनके द्वारा लायी हुई समुद्रतटीय भागों की मिट्टियाँ भी काली होती हैं। इसे काली दोमट कहते हैं। इसमें पोटाश एवं चूना पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है परंतु नाइट्रोजन, फास्फोरिक एसिड एवं वनस्पति अंश की कमी पायी जाती है। इसका वितरण महानदी, गोदावरी, कृष्णा कावेरी नदियों के डेल्टाई भागों में पाया जाता है।
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